क्या चीन में काम कर रहीं कंपनियों को देश में लाने में सफल होगा भारत?

चीन में कामगारों के बढ़ते वेतन और अमेरिका के साथ इसके ट्रेड वॉर के बाद कई मल्टीनेशनल कंपनियों ने वहां से अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस शिफ्ट करने शुरू कर दिए थे, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद अप्रैल 2018 से लेकर अगस्त 2019 के बीच ऐसी कंपनियों में से सिर्फ तीन ही भारत आईं.

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An employee wearing a face mask works on a production line manufacturing socks for export at a factory in Huzhou's Deqing county, Zhejiang province, China February 19, 2020. China Daily via REUTERS

चीन में कामगारों के बढ़ते वेतन और अमेरिका के साथ इसके ट्रेड वॉर के बाद कई मल्टीनेशनल कंपनियों ने वहां से अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस शिफ्ट करने शुरू कर दिए थे, लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद अप्रैल 2018 से लेकर अगस्त 2019 के बीच ऐसी कंपनियों में से सिर्फ तीन ही भारत आईं.

An employee wearing a face mask works on a production line manufacturing socks for export at a factory in Huzhou's Deqing county, Zhejiang province, China February 19, 2020. China Daily via REUTERS
चीन में एक मैन्युफैक्चरिंग यूनिट. (फोटो: रॉयटर्स)

अजीब विरोधाभास है, पीएम नरेंद्र मोदी देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं. स्वदेशी की सीढ़ी चढ़ाना चाहते हैं, लेकिन उनकी सरकार ने चीन में काम कर रही उन अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियों पर अपनी निगाहें गड़ा रखी हैं, जो वहां से अपनी फैक्ट्रियां हटाकर भारत, वियतनाम, इंडोनेशिया, कंबोडिया, बांग्लादेश, फिलीपींस और ताइवान ले जाना चाहती हैं.

चीन में कामगारों के बढ़ते वेतन और अमेरिका के साथ इसके ट्रेड वॉर के बाद कई मल्टीनेशनल कंपनियों ने वहां से अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस शिफ्ट करने शुरू कर दिए थे, लेकिन तमाम कोशिश के बाद भी अप्रैल 2018 से लेकर अगस्त 2019 के बीच ऐसी कंपनियों में से सिर्फ तीन ही भारत आईं.

अब एक बार फिर मोदी सरकार ने कोविड-19 जैसी महामारी से चीन में अपने सप्लाई चेन के जोखिम कम करने का मन बना रही कंपनियों को भारत लाने की कोशिश तेज कर दी है.

लिहाजा वाणिज्य मंत्रालय के कॉरिडोर से ऐसी खबरों के आने का सिलसिला शुरू हो गया है, जिनके मुताबिक सरकार ने भारतीय दूतावासों के जरिये 1000 से अधिक कंपनियों को भारत में अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस और सप्लाई चेन शिफ्ट करने के लुभावने ऑफर दिए हैं.

खबरों के मुताबिक, इन कंपनियों के लिए 4 लाख 60 हजार हेक्टेयर से भी ज्यादा का लैंड पूल विकसित किया जा रहा है. इस मिशन की गंभीरता का दावा करने वालों का कहना है कि सरकार लग्जमबर्ग के आकार (2,43,000 हेक्टेयर) से लगभग दोगुनी साइज की जमीन का इंतजाम कर रही है.

इस जमीन पर इलेक्ट्रिकल, फार्मास्यूटिकल्स, फूड प्रोसेसिंग, केमिकल और टेक्सटाइल समेत दस सेक्टर की मैन्युफैक्चरिंग कंपनियों को फैक्ट्रियां लगाने की इजाजत दी जाएगी. एक तरह से यह सरकार का ‘मेक इन इंडिया’ 2.0 होगा.

क्या वियतनाम, इंडोनेशिया, ताइवान के मुकाबले भारत को तरजीह मिलेगी ?

जिन कंपनियों ने अपनी सारी सप्लाई चेन चीन में केंद्रित कर रखा है, उनके लिए कोविड-19 जैसी महामारी बड़ा जोखिम है. इनमें से कई अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस दुनिया के दूसरे देशों में शिफ्ट कर इसे कम करना चाह रही हैं. लेकिन क्या ये कंपनियां, वियतनाम, इंडोनेशिया, कंबोडिया, बांग्लादेश और ताइवान के मुकाबले भारत को तरजीह देंगी?

चीन में काम कर रही कंपनियों को यहां बुलाने के मामले में ये देश भारत को कड़ी टक्कर दे रहे हैं. पहली नजर में भारत का बहुत बड़ा बाजार, सस्ता श्रम और कुछ हद तक कुशल कामगारों की उपलब्धता चीन छोड़ने वाली कंपनियों के लिए लुभावनी लग सकती हैं.

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू स्याह है. चीन छोड़ने का मन बना रही कंपनियों को अपने यहां बुलाने की भारत की यह मुहिम एक ऐसे मुश्किल दौर में शुरू हुई है, जब अंतरराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था कोविड-19 की वजह से बुरी तरह जख्मी है.

ऐसे में इन कंपनियों के लिए एक ऐसे देश (भारत) में अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस शिफ्ट करने का फैसला बड़ा कठिन होगा, जो इस वक्त कमजोर बिजनेस, इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर और आर्थिक सुधारों की धीमी रफ्तार की दिक्कतों से जूझ रहा है.

देश में पिछले दिनों मल्टीनेशनल कंपनियों के खिलाफ जो माहौल बना है और बिजनेस जिस तरह से चंद बड़े कॉरपोरेट घरानों के हाथों में सिमट गए हैं, वह चीन छोड़ने का इरादा रखने वाली कंपनियों की नजर में भारत को एक कमजोर दावेदार साबित करता है.

पिछले दिनों आईएलएंडएफएस कांड से लेकर टेलीकॉम कंपनियों के एजीआर विवाद तक, बिजनेस की संभावनाओं को झटके देने वाले तमाम मामले सामने आए, जिससे लगा कि भारत में निवेश करना अपनी मुसीबतों में और इजाफा करना है.

इस बीच देश के कंज्यूमर मार्केट में मांग जिस तेजी से घटी उसने भी इसे एक बड़े उपभोक्ता बाजार के तौर पर देख रहे इन कंपनियों को सावधान किया है. यही वजह है कि अप्रैल 2018 से लेकर अगस्त 2019 के बीच चीन छोड़ने वाली 56 कंपनियों में से 26 बेहतर इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर और तेज आर्थिक सुधारों वाले देश वियतनाम चली गईं. भारत के हिस्से सिर्फ तीन कंपनियां आईं.

आरएसएस के वरिष्ठ नेता शेषाद्रि चारी ने खुद ट्वीट कर इस स्थिति की ओर ध्यान खींचा था.

किसी भी देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने में उसके बेहतर जमीन अधिग्रहण कानून, सस्ती व्यावसायिक बिजली, सड़कें, स्पेशल इकनॉमिक जोन, पोर्ट जैसी लॉजिस्टिक्स सुविधाओं समेत कुशल मानव संसाधन के साथ सुविधानजक टैक्स और टैरिफ दरों की अहम भूमिका होती है. पुराने श्रम कानूनों की अड़चनें भी एक बड़ी दिक्कत है.

हालांकि भारत में प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले कामगारों की सौदेबाजी की ताकत काफी कम है. यूपी, एमपी और गुजरात में श्रम कानूनों के सुधारों को चीन में काम रही कंपनियों को यहां लाने की कवायद के तौर पर ही देखा जा रहा है. यह अलग बात है कि सिर्फ श्रम कानूनों में सुधार से निवेश नहीं बरसता.

ऐसे कैसे पूरा होगा मैन्युफैक्चरिंग हब बनने का सपना?

तमाम पैमानों पर देखें तो भारत की स्थिति ऐसी नहीं है कि यह दुनिया के मैन्युफैक्चरिंग हब के तौर पर उभर सके. दो उदाहरण काफी होंगे.

सऊदी अरब की सबसे बड़ी तेल कंपनी अरामको का महाराष्ट्र में रिफाइनरी लगाने का काम जमीन अधिग्रहण विवाद की वजह से लटक गया है. दूसरा, दक्षिण कोरियाई कंपनी पोस्को का ओडिशा में इंटिग्रेटेड स्टील प्लांट बनाने का सपना भी इसी वजह से पूरा नहीं पाया. एक दशक पहले यह भारत में सबसे बड़ा विदेशी निवेश था.

A worker welds steel pipes to make a counter at a steel furniture manufacturing unit in Ahmedabad, India September 1, 2016. REUTERS/Amit Dave/File Photo
(फोटो: रॉयटर्स)

मैन्युफैक्चरिंग हब के तौर पर उभरने की चाहत रखने वाले देश के पास काफी तेज कनेक्टिविटी होनी चाहिए. मसलन चीन में बेहद आधुनिक इंफ्रास्ट्रक्चर है. छह लेन की सड़कों और तेज क्लीयरेंस वाले बंदरगाहों की वजह से चीन से निर्यात करना बेहद आसान है. चीन में बने इलेक्ट्रोनिक्स सामान और पुर्जों को कई दफा 20 से 30 बार प्रांतों के बॉर्डर पार करने पड़ते हैं. लिहाजा गति काफी मायने रखती है.

दूसरी ओर, भारत में ऐसे भी मामले आते रहते हैं, जहां राज्यों की सीमा पार करने की अड़चनों की वजह से दूसरे देश में बैठे आयातक ऑर्डर कैंसिल कर देते हैं. फाइनेंशियल टाइम्स के साउथ चाइना संवाददाता रहे राहुल जैकब ने हाल में एक वाकये का जिक्र किया था, जिसके मुताबिक एक निर्यातक का माल तीन राज्यों की सीमा पार कर एयरपोर्ट तक वक्त पर पहुंच ही नहीं पाया और ऑर्डर कैंसिल हो गया.

स्केल, स्पीड और स्किल ने बनाया चीन को मजबूत

भले ही भारत, वियतनाम, फिलीपींस, इंडोनेशिया, बांग्लादेश और कंबोडिया जैसे खुद को दुनिया की फैक्ट्री के तौर पर स्थापित करने की कोशिश में लगे हैं और कुछ देशों को चीन में उत्पादन कर रही कंपनियों को अपने यहां बुलाने में कामयाबी मिली है. लेकिन यह भी सच है कि चीन दुनिया का फैक्ट्री यूं ही नहीं बना है.

चीन के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का जो स्केल, स्पीड और स्किल है उसका मुकाबला करना बेहद मुश्किल है.

लाखों फैक्ट्रियों, सप्लायर्स, लॉजिस्टिक्स सर्विस, ट्रांसपोर्टेशन इंफ्रास्ट्रक्चर का जो विशालकाय नेटवर्क चीन ने तैयार किया है, वह पिछले कुछ वर्षों के अभियान का नतीजा नहीं है. यह काम पिछले तीन दशकों के दौरान हुआ है, जब यहां जापान, ताइवान और हॉन्गकॉन्ग से बड़े पैमाने फंड और टेक्नोलॉजी आई.

यह दौर यहां कमजोर पर्यावरण और श्रम कानूनों का था. विशाल, सस्ता और शिक्षित श्रम बल मौजूद था.सबसे बड़ी बात यह है कि इस अवधि के दौरान अंतरराष्ट्रीय बाजार तक इसकी बेरोकटोक पहुंच बरकरार थी. इन सबने मिलकर एक मैन्युफैक्चरिंग हब के तौर पर चीन को ऐसी ताकत बना दिया, जिससे दुनिया की फैक्ट्री का दर्जा छीनना अब नामुमकिन हो गया है.

जो लोग चीन की अंतरराष्ट्रीय हैसियत कमजोर पड़ने और वहां से कंपनियों के दूसरे देशों की ओर जाने की बात कर रहे हैं उन्हें हाल में अमेरिकी पत्रकार थॉमस एल. फ्रीडमैन ने चेतावनी देते हुए कहा था कि वे अपना आकलन पेश करने में इतनी जल्दबाजी न करें.

चीन बड़े से लेकर छोटे मैन्युफैक्चरर्स के लिए इंटिग्रेटेड सेवा मुहैया कराता है यानी सप्लाई चेन से जुड़े सभी लिंक को एक साथ जोड़कर दी जाने वाली सुविधा. चीन में एक ही उत्पाद को बेहतर डिजाइन और कम लागत के साथ बनाने के लिए सौ से ज्यादा कॉन्ट्रेक्ट मैन्युफैक्चरर्स सामने आ सकते हैं.

इसी तरह लॉजिस्टिक्स और आयत सुविधाएं जैसे सर्विस प्रोवाइडर्स कंपनियों की भी भरमार है. चीन का घरेलू मार्केट भी विशालकाय है. उसकी तुलना में भारतीय उपभोक्ता बाजार और इसके उपभोक्ताओं की खरीद क्षमता बेहद कम है.

राहुल जैकब बीबीसी से एक बातचीत में कहते हैं, ‘प्रोडक्ट लाइन और सप्लाई चेन की समझ लोगों की समझ के मुकाबले कहीं जटिल चीजें हैं और रातों-रात इन्हें रेल की पटरियों की तरह उखाड़कर दूसरी जगह ले जाना मुमकिन नहीं है.’

जैकब कहते हैं कि चीन बड़े बंदरगाह और हाइवे जैसे इंटीग्रेटेड इंफ्रास्ट्रक्चर मुहैया कराता है. इसके अलावा, वहां अतिकुशल लेबर और मॉर्डन लॉजिस्टिक्स भी उपलब्ध है. अंतरराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह की सख्त डेडलाइन वाले वाले माहौल में काम करती हैं उसमें ये सुविधाएं अहम पहलू साबित होती हैं. भारत इन तमाम मानकों पर पिछड़ा हुआ नजर आता है.

मोदी सरकार की बड़ी चूक

इस बीच मोदी सरकार ने बड़ी चूक की है. जिन मुक्त व्यापार समझौतों का वियतनाम, बांग्लादेश, इथोपिया, कंबोडिया जैसे देशों के निर्यातक फायदा उठा रहे हैं, उनसे भारत की दूरी चिंतित करती है.

पिछले दिनों आरसीईपी (RCEP) समझौते से भारत का दूर रहना एक बड़ी भूल थी. यह समझौता आसियान और उनके साथी देशों के बाजार में पहुंच आसान बनाता है. लेकिन चीन के डर से भारत इसमें शामिल नहीं हुआ.

उसे लगा कि चीनी कंपनियां भारत का बाजार हड़प लेंगी. ऐसे में कोई भी कंपनी भारत में अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस क्यों लाएगी, जो उसे 16 सदस्यों वाले इस विशाल से बाजार से महरूम रखे. आरसीईपी देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है और इसकी जीडीपी ग्लोबल जीडीपी की एक तिहाई है.

अंतरराष्ट्रीय कारोबार अब ‘नियर सोर्स’ (जहां बनाएं, वहीं बचें) और ‘आउटसोर्स’ दोनों ढर्रे पर चल रहा है. अगर भारत की पहुंच आरसीईपी जैसे फ्री ट्रेड जोन में नहीं होगी तो सामान बनाकर इन देशों में बेचने वाली कंपनियां भारत में कतई अपना मैन्युफैक्चरिंग बेस नहीं बनाएंगी.

कुल मिलाकर भारत इस वक्त उल्टी चाल चल रहा है. ‘लोकल पर वोकल’ और आत्मनिर्भरता के नाम पर एफडीआई (चीन और कुछ और पड़ोसी देशों से आने वाले निवेश को लेकर कड़ाई) के नियम कड़े किए जा रहे हैं. टैक्स टेरर (वोडाफोन का मामला) कायम किया जा रहा है और टैरिफ की दरें बढ़ाई जा रही हैं.

पिछले चार बजट से टैरिफ दरें बढ़ रहीहैं. ऐसा लगता है कि माहौल 1991 के पहले वाला हो गया है. भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और चीन में भारत के राजदूत रहे शिवशंकर मेनन ने हाल में कहा कि सरकार लगातार संरक्षणवादी नियम अपना रही है.

भारतीय कंपनियां संरक्षण के साये में पलने की अभ्यस्त होती जा रही हैं. वे घरेलू बाजार में संरक्षण चाहती हैं लेकिन वह विदेशी पूंजी के लिए भी लालायित रहती है. सरकार की आत्मनिर्भरता के नए नारे से उसकी इस प्रवृति को और बढ़ावा मिलता जा रहा है.

ऐसे माहौल में कौन चीन से अपने मैन्युफैक्चरिंग बेस को समेटकर भारत आना चाहेगा. वो तो वहीं जाएंगे, जहां उन्हें माहौल ज्यादा मुफीद लगेगा.

याद रहे, 2019 में वियतनाम का निर्यात आठ फीसदी बढ़ कर 264 अरब डॉलर तक पहुंच गया था. यही रफ्तार रही तो जल्द ही यह भारत के 331 अरब डॉलर (2018-19) के निर्यात (वस्तुओं का निर्यात) को पार कर लेगा. और भारत के खाते में चूके हुए मौकों की एक और दास्तान दर्ज हो जाएगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)