कैसे एक व्यक्ति, जिसे दंगों के मामले में अवैध हथियारों के साथ पकड़ा गया, को ज़मानत मिल सकती है, लेकिन जिनके पास ऐसा कुछ बरामद नहीं हुआ, वे अब भी सलाखों के पीछे हैं?
फरवरी 2020 के दिल्ली दंगों के बाद दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए गए दो लोगों के दो मामलों पर जरा गौर कीजिए.
एक मामला एक गर्भवती मुस्लिम महिला का है, जो जामिया मिलिया इस्लामिया की छात्रा भी हैं और जिनका किसी तरह की आपराधिक गातिविधि का कोई पूर्व रिकॉर्ड नहीं रहा है. उन्हें हिंसा खत्म होने के छह हफ्ते बाद हिरासत में लिया गया. उन्हें गिरफ्तार करते वक्त उनके पास से कोई हथियार और गोला-बारूद बरामद नहीं हुआ था.
दूसरा मामला एक हिंदू पुरुष का है, जिसके बारे में पुलिस का दावा है कि वह पिछले दो सालों से हथियारों की सप्लाई कर रहा था. वह हथियार और कारतूस मध्य प्रदेश से खरीदकर दिल्ली लाता था.
उसे दिल्ली में चल रही हिंसा के दौरान गिरफ्तार किया गया और पुलिस का कहना है कि उसके पास से 5 पिस्तौल और 20 कारतूस बरामद किए. गौरतलब है कि हिंसा में मारे गए 55 लोगों में से कई गोली के जख्म से मारे गए.
दोनों को स्पेशल सेल द्वारा गिरफ्तार किया गया और यह एक संयोग है कि दोनों पर एफआईआर सं. 59 के तहत मामला दर्ज किया गया है. पता चला है कि स्पेशल सेल फिलहाल एक ही संख्या यानी एअफआईआर-59 से दो एफआईआर की तफ्तीश कर रही है. मगर यहीं दोनों के साथ किए जाने वाले बर्ताव का अंतर बेहद साफ हो जाता है.
गर्भवती महिला को 6 मार्च, 2020 को एफआईआर 59 के तहत गिरफ्तार किया गया था. यह एफआईआर क्राइम ब्रांच ने दायर की थी, जिसे बाद में स्पेशल सेल को हस्तांतरित कर दिया गया था.
हथियारों के डीलर को 27 फरवरी, 2020 को एफआईआर-59 के तहत गिरफ्तार किया गया था. यह एफआईआर खुद स्पेशल सेल ने दायर की थी.
गर्भवती सफूरा जरगर पर भारत के बेहद सख्त आंतकवाद विरोधी कानून- गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत आरोप लगाया गया है और वे अब एक महीने से अधिक से जेल में हैं और उनको जमानत मिलने की कोई संभावना नजर नहीं आती.
ऐसा करते वक्त न उनकी अवस्था को ध्यान में रखा गया है और न ही इन दिनों दिल्ली की भीड़-भरी जेल व्यवस्था में कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बढ़े हुए खतरे को.
दूसरी तरफ जो मनीष सिरोही नाम का व्यक्ति है, उस पर सिर्फ आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया है, जबकि उसे दंगों के दौरान गिरफ्तार किया गया था और उसके पास से अवैध हथियार बरामद हुए थे.
6 मई को दिल्ली की एक अदालत ने उसे कोविड-19 से संक्रमित होने के खतरे का हवाला देते हुए जमानत दे दी.
‘इसलिए ऊपर जिक्र किए गए तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए और इस तथ्य को भी ध्यान में रखते हुए कि कोविड-19 महामारी तेजी से फैल रही है और इस बात पर गौर करते हुए कि जेल में बंद रखने पर आवेदक के इस वायरस से संक्रमित होने का खतरा हमेशा बना रहेगा, आवेदक को 25,000/- के निजी बॉन्ड और डिस्ट्रिक्ट एंड सेशन जज, पीएचसी, नई दिल्ली द्वारा तैयार रोस्टर के हिसाब से ड्यूटी दे रहे कोर्ट ऑफ लर्नेड सीएमएम/ लर्नेड एसीसीएमएम/ लर्नेड एमएम की संतुष्टि के बाद समान राशि की गारंटी पर जमानत दी की जाती है.’
दो एफआईआर और दोहरे मानदंड
वकीलों का कहना है कि सफूरा और सिरोही के साथ किया जाने वाला बिल्कुल विपरीत व्यवहार इस धारणा को मजबूती देता है कि दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हिंसा को लेकर एक ‘राजनीतिक‘ नजरिया अपना लिया है, जिसमें भड़काऊ भाषण देने में भाजपा नेताओं की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया जाता है और सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया जाता है.
सफूरा, जो सीएए के खिलाफ हुए प्रदर्शनों में सक्रिय थीं, उन्हें 6 मार्च की एफआईआर-59 के तहत 13 अप्रैल को गिरफ्तार किया गया. दिल्ली पुलिस ने जामिया के एक और छात्र मीरान हैदर, विश्वविद्यालय के अल्युमनाई एसोसिएशन के अध्यक्ष शिफा-उर-रहमानी और दो और सीएए विरोधी कार्यकर्ताओं, ख़ालिद सैफी और पूर्व काउंसिलर इशरत जहां को उसी एफआईआर के तहत गिरफ्तार कर लिया.
6 मार्च की एफआईआर 59 सब इंस्टपेक्टर की शिकायत पर दायर की गई थी, जिसका दावा था कि एक मुखबिर ने उसे बताया कि 23 से 25 फरवरी के बीच दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की इस साल फरवरी में भारत यात्रा के दौरान राजधानी में दंगे भड़काने की पूर्व नियोजित साजिश का हिस्सा थी.
यह एफआईआर दंगा करने, घातक हथियार रखने और गैर कानूनी सम्मेलन से संबंधित आईपीसी की धाराओं 147, 148, 149 और 120 (बी) के तहत क्राइम ब्रांच द्वारा दायर की गई थी.
स्पेशल सेल को मामला ट्रांसफर किए जाने के बाद हत्या करने की साजिश (302), हत्या की कोशिश (307), राजद्रोह (124 ए), मजहब के आधार पर विभिन्न समुदायों के बीच शत्रुता फैलाने और आर्म्स एक्ट की धाराएं ऊपर से जड़ दी गईं.
27 फरवरी की एफआईआर स्पेशल सेल द्वारा दो अन्य लोगों के साथ मनीष सिरोही की गिरफ्तारी के बाद 27 फरवरी को दायर की गई.
पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक पूछताछ के दौरान दोनों ने पुलिस ने बताया कि वे पिछले दो सालों से हथियारों की सप्लाई कर रहे थे. वे मध्य प्रदेश से हथियार और कारतूस खरीदा करते थे और दिल्ली में उसकी सप्लाई किया करते थे.
दंगे की साजिश मे आतंकवाद के कानून की एंट्री
20 अप्रैल के आसपास स्पेशल सेल ने कठोर कानून यूएपीए की धारा 13, 16, 17, 18 को 6 मार्च के एफआईआर-59 में जोड़ दिया. ये धाराएं गैर कानूनी गतिविधि के अपराधों, आतंकी कार्रवाई को अंजाम देने, आतंकी कार्य के लिए फंड जमा करने और आतंकी कार्रवाई को अंजाम देने की साजिश रचने से संबंधित हैं.
एफआईआर में यूएपीए के तहत अतिरिक्त आरोप जोड़ देने से आरोपी को जमानत मिलने की संभावना आतंक विरोधी कानून के साथ लगी पूर्व-शर्तों के कारण काफी कम हो गई.
यूएपीए की धारा 43 डी, उप धारा 5 के अनुसार इस अधिनियम के तहत किसी अपराध के आरोपी को उसके अपने बॉन्ड पर रिहा नहीं किया जा सकता है, जब तक कि पब्लिक प्रोसिक्यूटर ऐसी सिफारिश न करे.
तब भी, अगर कोर्ट का यह मत है कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ लगाए गए आरोप प्रथमद्रष्टया सही हैं, तो वह जमानत देने से इनकार कर देगा.
6 मार्च की एफआईआर 59 के तहत यूएपीए के आरोपों का सामना कर रही सफूरा जरगर, जो तीन महीने की गर्भवती हैं, मीरान हैदर, शिफा-उर-रहमान, खालिद सैफी और इशरत जहां फिलहाल जेल में बंद हैं.
इसके ठीक उलट हथियरों के डीलर मनीष सिरोही का मामला है, जिसे पटियाला हाउस कोर्ट ने 6 मई को जमानत दे दी. कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किया गया जमानत आदेश यह दिखाता है कि सिरोही को दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 26 फरवरी, 2020 को गिरफ्तार किया था और उस पर एफआईआर 59/2020 के तहत मामला दर्ज किया था.
मामले का ब्यौरा देते हुए जमानत के आदेश में यह बताया गया है कि उसकी गिरफ्तारी के समय उसके पास से 5 पिस्तौल और 20 कारतूस बरामद हुए थे :
‘जैसा कि आरोप है, आवेदक के साथ-साथ सह-आरोपी ज़ाहिद को स्पेशल सेल के अधिकारियों ने मिली सूचनाओं के आधार पर 26.02.2020 को पकड़ा और बताया गया है कि सह-आरोपी ज़ाहिद के पास से 20 बंदूक और 80 कारतूस बरामद हुए थे और 5 पिस्तौल और 20 कारतूस आवेदक मनीष सिरोही के पास से बरामद हुए थे.
इस केस का आवेदक ऊपर उल्लिखित तारीख से हिरासत में है और जांच आधिकारी ने यह भी बताया है कि जांच पूरी हो गई है और संबंधित अदालत में 25.04.2020 को चार्जशीट भी दायर की जा चुकी है. इससे पहले किसी मामले में आवेदक की कोई भागीदारी न होने की बात का जिक्र भी जांच अधिकारी ने किया है.’
इस तरह से आखिरकार मनीष सिरोही, जिसके पास से दिल्ली में हो रही सांप्रदायिक दंगों के दौरान 5 पिस्तौल और 20 कारतूस बरामद हुए थे, को जमानत दे दी गई.
बेल और जेल का अजब खेल
कानून विशेषज्ञों के मुताबिक यहां एक साफ अंतर्विरोध है. सिरोही को दंगों के दौरान गिरफ्तार किया गया था और उसके पास से अवैध हथियार बरामद हुए थे, लेकिन उसके खिलाफ सिर्फ आर्म्स एक्ट के तहत मामला दर्ज किया गया है, लेकिन दंगों के दो महीने बाद गिरफ्तार विद्यार्थियों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया है.
इसलिए अगर सिरोही पर, उसके पास से हथियार बरामद होने के बावजूद आतंकवाद का आरोप नहीं लगाया गया है, तो अन्यों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज करने का आधार क्या है?
ऐसा कैसे हो सकता है कि दंगों के दौरान अवैध हथियारों के साथ पाए जानेवाले व्यक्ति की जमानत अर्जी पर कोई आपत्ति न की जाए और अन्य लोग, जिनके पास से कुछ भी बरामद नहीं किया गया था, वे आज भी जेल की सलाखों के पीछे कैद हों?
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, दिल्ली के क्रिमिनल जस्टिस प्रोग्राम- प्रोजेक्ट 39ए के कार्यकारी निदेशक डॉ. अनूप सुरेंद्रनाथ कॉन्सपिरेसी थ्योरी के आधार पर एफआईआर दर्ज करने और मनमाने ढंग से कुछ चुने हुए लोगों को जमानत देने को लेकर चिंता जताते हैं.
उन्होंने कहा, ‘जांच एजेंसियों के बीच कहानियों पर आधारित एफआईआर की लोकप्रियता जिस तरह से बढ़ रही है, उससे हमारे संवैधानिक लोकतंत्र में कानून का राज का सम्मान करनेवाले किसी भी व्यक्ति को भी डर लगना चाहिए.’
उन्होंने आगे जोड़ा, ‘हमने भीमा कोरेगांव मामलों में इसका इस्तेमाल होता देखा और अब हम दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों के मामलों में इसका इस्तेमाल होता देख रहे हैं. इन प्राथमिकियों में कॉन्सपिरेसी थ्योरी बुनकर, जिनका शायद ही कोई तथ्यात्मक या कानूनी आधार है, यूएपीए जैसे दमनकारी कानूनों के तहत मनमानी गिरफ्तारियों को अंजाम दिया जा रहा है. यूएपीए जैसे कानून, जिसके तहत किसी व्यक्ति को बिना चार्जशीट के ज्यादा लंबे समय हिरासत में रखा जा सकता है और जो आरोपी को प्रक्रियागत सुरक्षाकवच से महरूम रखते हैं, विरोध करने वालों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए राज्य (स्टेट) को काफी पसंद आते हैं.’
शायद इससे भी ज्यादा हैरतअंगेज यह है कि लोगों को किसी साजिश के लिए गिरफ्तार किया जा रहा है और फिर उनमें से किसी एक को बिना किसी कानूनी रूप से वैध आधार के जमानत पर रिहा कर दिया जा रहा है.
इसमें कोई दो राय नहीं कि जमानत ज्यादा से ज्यादा लोगों को दी जानी चाहिए, लेकिर अगर यह काम मनमाने ढंग से किया जाने लगेगा और अगर यह कानूनसम्मत न होकर किसी अन्य विचार से प्रेरित होगा, तो यह अनुचित भेदभाव की चिंताओं को जन्म देगा.
नालसार यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ की प्राध्यापिक और काफ्कालैंड : लॉ, प्रीजुडिस एंड काउंटर टेररिज्म इन इंडिया की किताब की लेखिका मनीषा सेठी का कहना है कि यूएपीए की मुख्य विशेषता इसका मनमर्जी आधारित होना है, जिसके तहत इसका इस्तेमाल पुलिस के विवेक के अधीन कर दिया गया है.
उन्होंने कहा, ‘यूएपीए किसी अपराध को दर्ज करने के स्तर से लेकर जांच, अभियोजन और फैसले के स्तर तक व्यक्तिगत पूर्वाग्रह शामिल होने की गुंजाइश बना देता है. यह व्यक्तिगत पूर्वाग्रह को मजबूती देने वाला कानून है. इसलिए मिलते-जुलते अपराधों के लिए आतंकवाद विरोधी कानून का इस्तेमाल किया जाए या साधारण आपराधिक कानून का, यह फैसला कार्यपालिका- पुलिस, जांच एजेंसी या सरकार- पर निर्भर है क्योंकि आतंकवाद की परिभाषा ही अपने आप में बेहद अस्पष्ट है.’
उन्होंने यह भी कहा, ‘यह कानून कई गतिविधियों का उल्लेख करता है, जिन्हें आतंकी गतिविधि करार दिया जा सकता है, लेकिन उन्हीं अपराधों के लिए सामान्य कानूनों के तहत भी मुकदमा चलाया जा सकता है. आतंकी गतिविधि की परिभाषा के केंद्र में ‘आतंकी घटना को अंजाम देने का इरादा’ है. यह फैसला पूरी तरह से पुलिस पर निर्भर करता है कि वह किस मामले में आर्म्स एक्ट लगाए और किस मामले में आतंकवाद का आरोप.’
सेठी ने कहा, ‘गिरफ्तारी के वक्त भौतिक सबूतों की बरामदगी के बावजूद (मनीष सिरोही के मामले में) और इस तथ्य के बावजूद कि दूसरों के खिलाफ एक अस्पष्ट साजिश के जिक्र के अलावा कोई ठोस आरोप नहीं है, एक को पहले गिरफ्तार किया जाता है और फिर आर्म्स एक्ट के तहत उसे जमानत दे दी जाती है और अन्यों पर यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया जाता है, जिसमें जमानत के नियम काफी कठोर हैं और बेल मिलना लगभग असंभव है.’
उन्होंने यह भी कहा कि आतंकवाद विरोधी कानूनों को लेकर किए गए कई अध्ययन दिखाते हैं कि ‘आतंकवाद विरोधी कानूनों का डंडा अधिकांशतः हाशिये पर खड़े समुदायों पर चलता है, खासकर अल्पसंख्यकों पर, जिन्हें राष्ट्र के अन्य के तौर पर चित्रित किया जाता है.’
पुलिस द्वारा लगाए गए अलग-अलग आरोपों के अलावा- सफूरा पर यूएपीए और सिरोही पर आर्म्स एक्ट- कोरोना वायरस महमारी के दौरान एक गर्भवती को जमानत देने से इनकार करना और उन्हें हिरासत में रखना भी चिंता का विषय है.
भारत सहित कई देश वैश्विक महामारी के दौरान गर्भवती महिलाओं और उन्हें सुरक्षित रखने को लेकर विशेष दिशानिर्देश जारी कर रहे हैं. इससे पहले सार्स, मर्स, इबोला और जिका जैसे वायरसों के प्रसार के दौरान महिलाओं को नकारात्मक प्रसव परिणामों के कारण जोखिमग्रस्त पाया गया था.
अतीत के अध्ययनों के आधार पर गर्भवती महिलाओं को अब तक ‘उच्च जोखिम समूह’ घोषित किया गया है. लेकिन दिल्ली पुलिस और अदालतों ने सफूरा जरगर की गर्भावस्था और एक विचाराधीन कैदी के तौर पर उन्हें और उनके अजन्मे बच्चे को जिस जोखिम में डाला जा रहा है, उस पर पर ध्यान नहीं दिया है.
नोट (15 मई, 6:05 शाम): हालांकि, सफूरा जरगर और मनीष सिरोही दोनों पर ही दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल द्वारा एफआईआर 59/2020 के तहत कार्रवाई की जा रही है, मगर वास्तव में ये एक ही संख्या से दो एफआईआर हैं, जो स्पेशल सेल के पास हैं. पहली की तारीख 27 फरवरी, 2020 है और वह सिर्फ मनीष सिरोही से संबंधित है और दूसरे की तारीख 6 मार्च है, जो सफूरा और अन्यों से संबंधित है. अंग्रेजी में आई इस रिपोर्ट के पूर्ववर्ती प्रारूप में एक ही संख्या की दो एफआईआर को चूकवश एक ही एफआईआर माना गया था.
दिल्ली पुलिस का जवाब:
15 मई को दिल्ली पुलिस ने इस स्टोरी के जवाब एक ट्वीट किया:
रिपोर्टर का जवाब:
2/2 I was able to access the full record only today & corrected my report late this afternoon itself. @TheWire_in updated my story at 6:05pm, noting this error. However, the fact that Safoora & Sirohi were arrested under 2 separate FIRs doesn’t alter the basic thrust of the story
— seemi pasha (@seemi_pasha) May 15, 2020
दिल्ली पुलिस द्वारा दिए गए जवाब पर रिपोर्टर सीमी पाशा का कहना है, ‘प्रिय दिल्ली पुलिस, किसी एजेंसी द्वारा एक ही संख्या के दो अलग एफआईआर से जांच करना असामान्य है. जैसा कि आपने बताया है, स्पेशल सेल वर्तमान में दो मामलों की जांच एक ही एफआईआर संख्या -एफआईआर सं. 59/2020– से कर कर रहा है, जिससे भ्रम पैदा हुआ.’
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं आज जाकर पूरे रिकॉर्ड को देख सकी और और आज देर दोपहर तक मैंने अपनी रिपोर्ट को दुरुस्त कर दिया था. द वायर ने मेरी स्टोरी को 6:05 बजे शाम में इस भूल का संज्ञान लेते हुए इस स्टोरी को अपडेट कर दिया था. हालांकि यह तथ्य, कि सफूरा और सिरोही को दो अलग-अलग एफआईआर के तहत गिरफ्तार किया गया, इस स्टोरी के बुनियादी मंतव्य में कोई बदलाव नहीं लाता है.’
संपादक की तरफ से
इस आलेख की लेखक सीमी पाशा ने 15 मई 2020 को देर दोपहर में हमें यह जानकारी दी कि इस मामले में सिर्फ एक एफआईआर की जगह, जैसा कि उनकी स्टोरी में चूकवश बताया गया था, वास्तव में एक ही संख्या 59/2020 से दो एफआईआर थीं, जिनकी जांच फिलहाल दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल कर रही है.
इस जानकारी के मद्देनजर स्टोरी को उसी दिन, भूल को स्वीकार करते हुए, 6:05 बजे शाम में, यानी दिल्ली पुलिस द्वारा ट्विटर पर मामले का स्पष्टीकरण दिये जाने से पहले ही, संशोधन के साथ पुनः प्रकाशित कर दिया गया.
(सीमी पाशा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)
(इस रिपोर्ट को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)