भीड़ द्वारा पीट-पीट कर हत्या के विरोध में 28 जून को देश भर में प्रदर्शन हुए, उसी दिन अभिनेत्री रेणुका शहाणे ने अपने फेसबुक वॉल पर यह पोस्ट लिखी.
मेरे नाम पर नहीं
बेरहम लोगों की एक हिंसक भीड़ ने जुनैद की हत्या कर दी. मुझे इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि क़ातिल किस धर्म को मानते थे, न ही मुझे इस बात की चिंता है कि जुनैद का मज़हब क्या था.
मुझे सिर्फ़ एक बात की फ़िक्र है…वह यह है कि बेदर्द मनुष्यों के एक समूह ने हमला करके, एक किशोर की बेरहमी से हत्या कर दी और तीन अन्य नौजवानों को बुरी तरह घायल कर दिया!
जुनैद, 16 साल का था…
अगले साल मेरा बड़ा बेटा 16 साल का हो जाएगा… मैं जुनैद की मां के लिए मेरा दिल टूट रहा है.
न केवल जुनैद को कुछ वहशियों ने मार डाला, बल्कि एक जनसमूह खड़ा उन्हें यह सब करते देखता रहा. जुनैद के हत्यारे वह निर्मम लोग भी हैं, जो खड़े हो कर यह तमाशा देखते रहे और चुप्पी साधे रहे.
यहां कुछ ऐसे लोग भी हैं, जो भीड़ द्वारा इस हत्या को तर्कसंगत ठहरा रहे हैं.
जी हां, नफ़रत हर तरह के तर्क ढूंढ लाती है.
अब इस तरह की हत्याओं की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है. यह इतनी मामूली बात हो गई है कि इस बारे में अब कोई बात ही नहीं करता है.
कोई नहीं पूछता कि गुनहगारों के साथ क्या हुआ. वह पकड़े गए और उनको सज़ा मिली भी या फिर वह और हिंसा करने के लिए आज़ाद छोड़ दिए गए.
मैं यह सोच भी नहीं पाती हूं कि कैसे कोई किसी निहत्थे और मासूम व्यक्ति का क़त्ल कर सकता है!
मैं कल्पना नहीं कर सकती कि कैसे लोग इस भयावह हिंसा का समर्थन कर सकते हैं! आखिर क्यों क़ानून को हाथ में लेने की जगह, कोई पुलिस में शिकायत नहीं करता?
कहीं यह इसीलिए तो नहीं कि हत्यारी भीड़ यह जानती है कि उनके इस काम के पीछे कोई कारण ही नहीं है? वह सिर्फ़ नफ़रत के नाम पर हत्या करना चाहते हैं.
आप किसी भी धर्म, विचारधारा, भाषा या मूल के हों, किसी के भी नाम पर भीड़ बनकर हत्या को सही नहीं ठहराया जा सकता है.
हम न जाने कितने दंगे, आतंकी हमले, जनसंहार और लिंचिंग झेल चुके हैं, लेकिन हमने कोई सबक नहीं सीखा है.
सीधी बात यह है कि इस घृणा के शिकार बेगुनाह लोग बनते हैं. वह अमूमन ग़रीब तबके से होते हैं. वह ऐसे लोग होते हैं, जो आपका मुक़ाबला नहीं कर सकते हैं. यह कहीं और ज़्यादा दुखदायी बात है.
जब नफ़रत राज करती है, तो मासूमियत की मौत हो जाती है!
मैं इस नफ़रत को बढ़ावा देने का हिस्सा नहीं बन सकती हूं.
1993 में मुंबई के भयंकर दंगों के बाद, मैं परेल से आज़ाद मैदान तक एकता मंच के साथ, ‘हम होंगे क़ामयाब’ गाते हुए मार्च कर रही थी, जिससे मुंबई में दंगों और उसके बाद के बम धमाकों से सहमें लोगों में एक-दूसरे के प्रति भरोसा जगे.
2008 में मैं 26/11 के बाद कांग्रेस की केंद्र और राज्य सरकार की नाक़ामी और लापरवाही के ख़िलाफ़ गेटवे ऑफ इंडिया पर हुए विरोध प्रदर्शन में भी थी.
मैंने अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का भी केंद्र की यूपीए 2 सरकार के समय समर्थन किया. मैं ज्योति सिंह के बलात्कार और हत्या, पल्लवी पुरकायस्थ और स्वाति की गिरती हालत के मामले में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर भी मुखर रही.
आज मैं इस भीड़ की हत्यारी मानसिकता के ख़िलाफ़ भी डट कर खड़ी हूं, क्योंकि हमारे देश में अब इसे राजनैतिक संरक्षण मिल रहा है.
मैं किसी राजनैतिक दल की सदस्य नहीं हूं. मैं दुनिया के सबसे अद्भुत लोकतंत्रों में से एक की नागरिक हूं. इसीलिए हमारे लिए और अहम हो जाता है कि हम अपने संविधान की आत्मा की रक्षा और सम्मान करें.
मैं, भारत की एक गौरवान्वित नागरिक के तौर पर, ऐसे किसी भी व्यक्ति के साथ नहीं हूं, जो इस प्रकार की पीट पीट कर की जाने वाली हत्याओं का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन करे. मेरी निष्ठा सिर्फ़ और सिर्फ़ भारतीय संविधान के प्रति है.
अगर देश में लोकतंत्र के आधार को कमज़ोर करने के लिए सरकार या कोई भी अन्य संस्था कुछ करती है, तो मैं इसका मुखरता से विरोध करूंगी.
मैं कार्टर रोड, मुंबई पर आयोजित इस विरोध प्रदर्शन का शिद्दत से हिस्सा बनना चाहती थी, पर मैं ऐसा न कर सकी. लेकिन मैं इस नफ़रत की मुहिम का हिस्सा नहीं हूं…
मैं अपने बच्चों को इस नफ़रत का हिस्सा नहीं बनने दूंगी!
मैं अपने हाथों को बेगुनाहों के ख़ून से नहीं रंग सकती!
मैं इसके साथ नहीं… नॉट इन माइ नेम!
(अनुवाद: मयंक सक्सेना)