जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और वर्तमान में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइसेंस के चेयरमैन प्रोफेसर अरुण कुमार का कहना है कि कोरोना वायरस के मद्देनजर लॉकडाउन से उत्पन्न प्रवासी मजदूरों की समस्या सरकार की गलत नीतियों और असंतुलित विकास का नतीजा है.
नई दिल्लीः जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार का कहना है कि कोरोना वायरस के मद्देनजर लॉकडाउन से उत्पन्न प्रवासी मजदूरों की समस्या सरकार की गलत नीतियों और असंतुलित विकास का नतीजा है.
जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और वर्तमान में इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइसेंस के चेयरमैन प्रोफेसर अरुण कुमार से प्रवासी मजदूरों की समस्या और उसके समाधान के बारे में बातचीत.
लॉकडाउन के बीच प्रवासी मजदूर अपने गांव-घरों को लौट रहे हैं. इससे बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश जैसे अपेक्षाकृत पिछड़े राज्यों की अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा?
इन राज्यों की अर्थव्यवस्था की स्थिति पहले से ही खराब है. इन प्रांतों की बचत दर राष्ट्रीय औसत से कम है और बचत का बड़ा हिस्सा भी दूसरे प्रांतों में उपयोग होता है यानी ऋण-जमा अनुपात कम है. बिहार के मामले में यह राष्ट्रीय औसत का लगभग आधा है. इससे असामनता की खाई बढ़ती चली जाती है. इन राज्यों में इन प्रवासी मजदूरों के माध्यम से इनके घर-परिवार को जो पैसा जाता था, अब वह भी प्रभावित हुआ है. इसका असर भी पड़ेगा.
प्रवासी मजदूर अब जब अपने घरों को लौट रहे हैं तो वहां की राज्य सरकारों को क्या करना चाहिए?
मनरेगा में सरकार ने हाल में आर्थिक पैकेज के तहत 40,000 करोड़ रुपये अतिरिक्त राशि डाली है. यह कुछ भी नहीं है. आपको इसमें कम-से-कम तीन लाख करोड़ रुपये अतिरिक्त डालने चाहिए और बड़े पैमाने पर कामगारों को काम उपलब्ध कराना चाहिए. शहरी क्षेत्रों में रोजगार गारंटी योजना को दोबारा लागू करना चाहिए और यह सब युद्धस्तर पर होना चाहिए क्योंकि स्थिति युद्ध से भी बदतर है. लोगों को काम मिलने से उनके पास पैसा आएगा. मांग बढ़ेगी, उद्योग निवेश के लिये आकर्षित होंगे.
इस प्रकार की समस्या भविष्य में नहीं हो, इसके लिये सरकार को क्या करना चाहिए?
हमें अपनी विकास नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा. ऊपर से नीचे की ओर नहीं बल्कि गांव के स्तर से विकास को गति देने की जरूरत है. सरकार ने प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत अनाज उपलब्ध कराने का प्रयास किया. मजदूरों को मुफ्त राशन देने की घोषणा की है, लेकिन समस्या क्रियान्वयन और संचालन व्यवस्था के स्तर पर है. इसे दूर करना होगा. केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर समन्वय जरूरी है और इसके लिए प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मुख्यमंत्रियों की परिषद होनी चाहिए. मंत्रिमंडल सचिव की अध्यक्षता में मुख्य सचिवों की एक समिति होनी चाहिए. इससे समन्वय बेहतर होगा और काम सुचारू रूप से होगा.
क्या आपको लगता है कि लॉकडाउन पर फैसला लेने से पहले सरकार को प्रवासी मजदूरों के बारे में सोचना चाहिए था? क्या सरकार बेहतर नीति बना सकती थी?
हमने कभी भी असंगठित क्षेत्र, प्रवासी मजदूरों, सूक्ष्म और कुटीर उद्योग के बारे में नहीं सोचा. सिर्फ यही सरकार नहीं आजादी के बाद किसी भी सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया. सरकार ने सोचा ही नहीं कि लॉकडाउन से इतनी बड़ी संख्या में पलायन होगा. ये सोचना चाहिए था कि लॉकडाउन से काम बंद होने से असंगठित क्षेत्र पर क्या असर होगा? यह सोचना चाहिए था कि सामाजिक दूरी कैसे होगी जब एक कमरे में 6-6 लोग रहते हैं? आप हाथ धोने की बात कर रहे हैं, उनके पास पीने का पानी नहीं है, वो क्या करेंगे? वो रोज कमाकर खाते हैं तो लॉकडाउन में क्या करेंगे? इसीलिए लॉकडाउन का जितना फायदा मिलना चाहिए था, नहीं मिला. अब पता चल रहा है कि स्थिति कितनी खराब है.
प्रवासी मजदूरों के पारिश्रमिक, कल्याण, बेहतर जीवनयापन और अन्य सुविधाओं को लेकर 1978 में अंतर्राज्यीय प्रवासी कामगार कानून बना था लेकिन ऐसा लगता है, उस पर कोई अमल ही नहीं हुआ. इस पर आप क्या सोचते हैं?
हमारे यहां कानून की कोई कमी नहीं है लेकिन समस्या गवर्नेंस और क्रियान्वयन की है. हमने नीति बना दी कि जो भी प्रवासी मजदूर हैं, उनका पंजीकरण होना चाहिए लेकिन कौन उद्योग पंजीकरण करता है? लाखों की संख्या में श्रमिक निर्माण क्षेत्र में हैं, वहां पंजीकरण का नियम है लेकिन नहीं होता. भविष्य निधि मिलनी चाहिए, पर नहीं मिलती. सप्ताह में एक दिन छुट्टी मिलनी चाहिए लेकिन नहीं मिलती. इसका एक बड़ा कारण नियोक्ता और प्रशासन के स्तर पर भ्रष्टाचार है. गवर्नेंस की समस्या है. नीति निर्माताओं के दिमाग में प्रवासी मजदूर, अंसगठित क्षेत्र आता ही नहीं. हम उद्योग की बात सुन लेते हैं लेकिन नीचे, गरीब तबके के लोगों पर ध्यान ही नहीं देते.