जिस पैगम्बर के व्यवहार ने उनपर रोज़ कूड़ा फेंकने वाली औरत को बदलने पर मजबूर कर दिया, उन्हीं के कुछ अनुयायी एक फेसबुक पोस्ट मात्र पर हिंसक हो जाते हैं.
पश्चिम बंगाल में एक नाबालिग़ की फेसबुक पर की गई आपत्तिजनक पोस्ट के बाद उसका घर फूंके जाने की घटना बेहद निंदनीय है. ये घटना उसी तरह की अराजक भीड़ के द्वारा अंजाम दी गई है जो भीड़ गाय के नाम पर अराजकता फैलाकर हर दम हिंसा पर उतारू रहती है. भीड़तंत्र का दायरा बढ़ता ही चला जा रहा है.
मुझे ये कहने में जरा सी भी झिझक महसूस नहीं हो रही है कि इस घटना में शामिल लोग भी क़ानून व्यवस्था को हाथ में लेकर ख़ुद ही फ़ैसला करने की उसी पंरपरा को आगे बढ़ा रहे हैं जो परंपरा अख़लाक़ के क़त्ल से लेकर जुनैद के क़त्ल तक चली आ रही थी.
ट्रेन में भीड़ का एक झुंड नाबालिग जुनैद को बिला वजह चाकुओं से गोद डालता है तो वहीं दूसरी तरफ़ एक नाबालिग लड़के की आपत्तिजनक फेसबुक पोस्ट को आधार बनाकर उसका घर फूंक देने का दुस्साहसिक क़दम उठा लिया जाता है. सवाल फिर वही उठता है कि इस भीड़ का माई बाप कौन है? भीड़तंत्र की इस भेड़चाल को वक़्त रहते क्यों नहीं रोका गया?
अख़लाक़ से लेकर जुनैद तक आते आते क्यों इसे लेकर सरकारों की कान पर जूं नहीं रेंगी? अगर ये भीड़ दादरी में ही दफ़न कर दी जाती तो इसकी आंच पश्चिम बंगाल तक कभी नहीं आ पाती. मगर अख़लाक़ के क़ातिल की लाश पर लिपटे तिरंगे ने इस भीड़ को नया जीवन दे दिया है.
अख़लाक़ के क़ातिल की शवयात्रा में केंद्रीय मंत्री की मौजूदगी ने भीड़ को प्रोत्साहित करने का काम किया. क़ातिल की लाश पर से अगर उसी वक़्त तिरंगे को हटा दिया गया होता तो भीड़तंत्र वाली ये परंपरा उसी लाश के साथ जलकर खाक़ हो जाती. अगर केंद्रीय मंत्री उस दिन अख़लाक़ के क़ातिल की शवयात्रा में शामिल ना होकर अख़लाक़ के घर चले जाते तो इस भीड़ का दुस्साहस उसी दिन दम तोड़ देता.
पर अफ़सोस सरकारों और ज़िम्मेदारों ने ऐसा नहीं किया जिसका ख़ामियाज़ा हमें मिनहाज़, नजीब, पहलू, नईम, गंगेश, जुनैद को खोकर चुकाना पड़ा, इसी का ख़ामियाज़ा आज पश्चिम बंगाल के नाबालिग इंद्र का परिवार भुगत रहा है.
प्रधानमंत्री महोदय ने भीड़ को गांधी की याद दिलाने में काफ़ी देर कर दी. उन्होंने भीड़ को नसीहत तब दी, जब गोडसे भीड़ के दिलो-दिमाग़ पूरी तरह हावी हो चुका था.
सवाल जो अहम है वो कोई पूछने तैयार नहीं है? भीड़ को बढ़ावा किसने दिया? टीवी चैनलों की डिबेट में इस भीड़ को लेकर सरकार के नुमाइंदों से सवाल क्यों नहीं पूछे गए? अख़लाक़, जुनैद, पहलू, नजीब पर ख़ामोशी से तमाशा देखने वाले लोग अपनी चुप्पी तोड़ने के लिए इंद्र तक इंतज़ार क्यों करते हैं?
गृहमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक इस भीड़ पर ख़ामोश क्यों रहते हैं? विदेश में हुई घटनाओं और मौतों पर ट्वीट करके त्वरित टिप्पणी करने वाले प्रधानमंत्री महोदय अख़लाक़ से लेकर नजीब और जुनैद तक खामोश क्यों रहते हैं? आख़िर क्या सोचकर वे नजीब और रोहित के अम्मी के आंसुओं को नज़रअंदाज़ किए जाते हैं?
हमारी आस्थाएं भी बड़ी कमज़ोर हो चली हैं. हमारी भावनाएं बड़ी नाज़ुक हो चुकी है और क़ानून व्यवस्था में हमारा विश्वास तो जैसे बचा ही नहीं है. हम अफ़वाहों पर जितनी आसानी से और जितनी तेज़ी से विश्वास कर लेते हैं वो अपने आप में एक वर्ल्ड रिकॉर्ड है. और इन अफ़वाहों पर हमारी प्रतिक्रिया देने की गति प्रकाश की गति को भी पछाड़ने को आतुर है.
जिस पैगम्बर मोहम्मद (स.अ.व.) के अच्छे व्यवहार ने उन पर हर रोज़ कूड़ा फेंकने वाली औरत तक को बदलने पर मजबूर कर दिया था उसी पैगम्बर के कुछ अनुयायी एक फेसबुक पोस्ट मात्र पर किस तरह उत्तेजित हो जाते हैं और प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ये भी सोचने और आत्म-मंथन करने का विषय है.
हम दुनियां की नज़रों में एक मजबूत लोकतंत्र हैं पर भीड़तंत्र हमारे देश की लोकतांत्रिक आत्मा को हर रोज़ कचोट रहा होता है और हम चुपचाप इस सबका तमाशा देखते रहते हैं. एक मां अपने बेटे के लिए बिलखती रहती है और हम चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं. देश का अन्नदाता जंतर-मंतर से लेकर राजपथ तक नंगे बदन लोटता रहता है और हम चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं.
अपने हक़ के लिए प्रदर्शन कर रहे किसानों को गोलियों से भून दिया जाता है और हम चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं. कृषि कर्मण अवार्ड विजेता राज्य में एक महीने के भीतर पचास किसान आत्महत्या कर लेते हैं और हम चुपचाप तमाशा देखते रहते हैं. इन सब घटनाओं पर सरकारें चुपचाप रहती हैं और हम सरकारों की चुप्पी पर चुप्पी ओढ़कर उसे चुप रहने की एक बड़ी वजह देते हैं.
दरअसल, हमारी यही चुप्पी ही देश के मौजूदा हालात के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है. हम सबकुछ देखकर अनजान बन जाते हैं और भीड़ का हौसला बढ़ता चला जाता है. हम सरकारों और ज़िम्मेदारों की चुप्पी पर चुपचाप तमाशाबीन बने देखते रहते हैं और ज़िम्मेदार हमारी इसी चुप्पी का फ़ायदा उठाकर अपने चिंटुओं की इन हरकतों पर पर्दा डालकर ख़ामोशी के साथ आपके सामने से खिसक लेते हैं और हम देखते रह जाते हैं.
जब तक हम इसी तरह ख़ामोश रहेंगे, तमाशाबीन की तरह तमाशा देखते रहेंगे, तब तक ये सब होता ही रहेगा. अगर हम सचमुच इन सब चीज़ों को रोकने के लिए गंभीर हैं तो हमें इन सबके असल ज़िम्मेदारों से ईमानदारी से सवाल पूछना होगा, उनकी जवाबदेही याद दिलानी होगी. तब कहीं जाकर कुछ सकारात्मक नतीजों की उम्मीद की जा सकती है. अन्यथा एक दिन ये भीड़ अपने तमाशाबीनों को भी अपनी चपेट में ले लेगी और फिर कुछ और लोग हमारा तमाशा देख रहे होंगे.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.)