देश में कोविड-19 महामारी के शुरुआती दौर में आयुष मंत्रालय द्वारा जारी एक परामर्श में आर्सेनिकम एल्बम 30 C नाम की होम्योपैथिक दवा को दिन में तीन बार लेने की सलाह दी गई थी. लेकिन शोध बताते हैं कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि होम्योपैथी कोविड या किसी भी अन्य मर्ज़ के ख़िलाफ़ कोई सुरक्षा प्रदान करती है.
कोरोना वायरस महामारी को संभालने की एक कोशिश में 6 मार्च को आयुष मंत्रालय ने एक परामर्श जारी किया, जिसमें आर्सेनिकम एल्बम 30 C (Aa30C) नामक एक होम्योपैथिक दवा दिन में तीन बार खाली पेट लेने की सलाह दी.
उसके बाद हम सभी ने अपने आस-पास इस दवा को बंटते देखा और इसके चर्चे सुने हैं. यहां बात करेंगे इस दवा को बनाने की पद्धति और उससे जुड़े सवालों पर.
सबसे पहले जानते हैं कि होम्योपैथी की यह दवा बनाई कैसे जाती है. आर्सेनिक ट्राईऑक्साइड (Arsenic Trioxide) नाम का एक रसायन पहले पानी, एल्कोहल, और ग्लिसरीन के मिश्रण में घोला जाता है. उसके बाद इस घोल को 100 गुना पानी मिलाया जाता है.
ऐसा करने से इस दवा की शक्ति को 1C कहा जाता है. पानी मिलाने का यह कदम 30 बार दोहराकर 30C शक्ति की दवा बनती है.
होम्योपैथी का एक सिद्धांत यह कहता है कि दवा जितनी ज्यादा जलमिश्रित होगी, उतनी ज्यादा शक्तिशाली होगी. 30C की इस दवा को मीठी गोलियों पर डालकर लोगों को दिया जाता है.
ऐसे में एक सवाल जो मन में उठता है वह यह है कि 30 बार जलमिश्रण करने के बाद, असल में जो बूंदे मीठी गोलियों पर डाली जा रही हैं, उसमें असली दवा के कितने अणु हैं.
इस सवाल का जवाब हम रसायन विज्ञान के एक सरल से सिद्धांत से निकाल सकते हैं. इस सिद्धांत के अनुसार गणना करने पर पता चलता है की अगर शुरुआती दवा के 1 लीटर में 200 ग्राम आर्सेनिक डाला गया हो, तो 30 बार जलमिश्रण करने के बाद उसमें सिर्फ पानी ही बचता है!
30C की इस दवा में अगर हम आर्सेनिक का एक अणु ढूंढ़ना चाहें, तो हमें दस लाख सूरजों जितने आयतन में खोज करनी होगी! इस बात से पता चलता है कि होम्योपैथी की दवा में दरअसल केवल पानी और एल्कोहल ही है. पर शायद हमें इस गणना से चकित नहीं होना चाहिए.
होम्योपैथी का जन्म जर्मनी में सामुएल हाहनेमन (1755 – 1843) ने किया था. रसायन विज्ञान के जिस सिद्धांत से हमने गणना की, उस सिद्धांत का हाहनेमन के समय में जन्म भी नहीं हुआ था.
असल में वह एक ऐसा समय था जब जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान जैसे विषयों ने बहुत प्रगति नहीं की थी. इलाज के नाम पर मरीज को ज़ख्म दे उसका खून बहने देना एक सामान्य सा ‘इलाज’ माना जाता था.
ऐसे माहौल में होम्योपैथी का जन्म हुआ और उसे उस समय की क्रूर प्रणालियों के मुकाबले इलाज करने का एक दयाशील तरीका मानकर हाथोंहाथ अपनाया गया.
तब से लेकर अब तक 200 साल में विज्ञान के हर पहलू ने बहुत विकास किया है. बारहवीं पास विज्ञान का कोई भी छात्र हमारी की गई गणना आसानी से कर सकता है.
आश्चर्य तो हमें इस बात पर होना चाहिए कि इस प्रगति के बावजूद होम्योपैथी के सिद्धांत हमारी बेहतर हुई समझ के बदौलत उठे जाने वाले वैज्ञानिक प्रश्नों से बचे रहे हैं.
होम्योपैथी इस बात का जवाब कुछ ऐसे देती है. पानी में आर्सेनिक घोलने पर पानी के अणु अपने आसपास आर्सेनिक होने के तथ्य को याद रखते हैं.
जलमिश्रण करने पर जब आर्सेनिक कम हो जाता है, तब भी आर्सेनिक होने की बात मिश्रण में याद रहती है. यह ‘याद’आपकी और मेरी याद जैसी नहीं है, बल्कि पानी के अणु अपने आप को कुछ ऐसा व्यवस्थित करते हैं कि उस व्यवस्था में कभी आर्सेनिक होने की जानकारी छुपी है.
असल में होम्योपैथी कहती है कि जितना ज्यादा जलमिश्रण होगा, औषधि उतनी ही शक्तिशाली होती जाएगी.
पर कोरोना वायरस के इलाज में आर्सेनिक क्यों? यह होम्योपैथी के दूसरे सिद्धांत पर आधारित है. यह सिद्धांत कहता है कि जो चीज कोरोना वायरस जैसे लक्षण पैदा करती है, वही दवा के रूप में इस्तेमाल करनी चाहिए.
दुर्भाग्य से, होम्योपैथी और पानी की याद रखने की श्रमता की कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं है. मशहूर वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ भी इस विवाद में पड़ गई थी.
हमें खुद सोचना चाहिए कि अगर पानी अपने संपर्क में आए रसायनों को याद रखता है, तो वो सिर्फ आर्सेनिक ही क्यों याद रखेगा? वो बहुत-सी चीजें याद रखेगा!
जिस तालाब से वो आया है, उसमें पड़े कचरे को याद रखेगा. जिस बोतल में था, उस बोतल की धातु को याद रखेगा.
कुछ साल पहले एक और विचार सामने रखा गया. ऐसा दावा किया गया कि जलमिश्रण के दौरान जब बुलबुले बनते हैं तो दवा के कण उनसे चिपककर ऊपर तक उठते हैं.
ऐसे में अगर हम जलमिश्रण के लिए इस ऊपरी सतह से सामान उठाएं, तो दवा के कण कभी कम नहीं होंगे. दुर्भाग्य से इस पर्चे में भी कुछ प्रश्न हैं, जिनका जवाब अभी हमारे पास नहीं है.
जैसे कि बुलबुले से दवा के कण कैसे चिपकते हैं, कहीं ये कण दवा की जगह किसी और स्रोत से तो नहीं आ रहे हैं आदि. और यदि ऐसा है, तो 30 बार जलमिश्रण करने की जरूरत क्यों थी?
अब उससे भी बड़ा सवाल है कि यह आर्सेनिक से संपर्क में आया पानी शरीर में ऐसे कौन-से बदलाव ला रहा है, जिस से हम कोरोना वायरस से बेहतर लड़ सकते हैं? विज्ञान के पास ऐसा कोई प्रमाण नहीं है.
एक दवा बनाने के लिए बहुत वर्ष लगते हैं-जिसमें बहुत से प्रयोग होते हैं, कुछ काम करते हैं, अधिकतर नहीं, फिर जानवरों पर प्रयोग होते हैं, फिर कुछ गिनती के लोगों पर.
अगर इस प्रणाली का हर एक कदम सही जाए, तभी एक दवा तैयार होती है. होम्योपैथी के ऐसे प्रयोग कहां हैं? आपको नहीं मिलेंगे.
होम्योपैथी पर विश्वास रखने वाले कहेंगे कि ऐसे प्रयोग होम्योपैथी में हो ही नहीं सकते क्योंकि होम्योपैथी में डॉक्टर मरीज के साथ घंटा भर बैठ, उसके शरीर को ठीक से समझकर उसी के लिए अनुकूल दवा देता है.
अगर ऐसा है, तो कोरोना वायरस से लड़ने के लिए तो कोई डॉक्टर किसी मरीज के साथ समय नहीं बिता रहा.
जब हम ऐसी बात सुनते हैं कि ‘होम्योपैथी असरदार है, 1000 में से 900 लोग ठीक हो गए’ तो जाहिर है कि हमारा विश्वास उस पर बनेगा. पर विज्ञान ऐसे नहीं सोचता.
होम्योपैथी (या किसी भी और चिकित्सा पद्धति) पर तभी विश्वास करा जा सकता है, अगर बिना दवा के 1000 में से 900 से कहीं काम ठीक हो रहे हैं.
अगर बिना दवा के भी 900 लोग ठीक हो रहे थे, तो जाहिर है कि उनके ठीक होने में होम्योपैथी नहीं, हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली जिम्मेदार है.
क्योंकि होम्योपैथी चल रही है, यह कोई प्रमाण नहीं है कि वह किसी वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है. आज भी ढेरों जगह टैरो कार्ड और सितारों को देखकर भविष्य बताया जाता है.
होम्योपैथी पर अनुसंधान कई प्रतिष्ठित प्रकाशन छापते हैं. वह शायद विज्ञान के व्यवसायीकरण का एक नतीजा है. पर आइये देखते हैं कि विश्व की कुछ सबसे प्रसिद्ध जीव विज्ञान की संस्थाएं इस बारे में क्या कहती हैं.
अमेरिका का एनआईएच (NIH) कहता है कि होम्योपैथी के किन्हीं भी लोगों के प्रति प्रभावी होने का कोई सबूत विज्ञान के पास नहीं है.
ब्रिटेन का एनएचएस (NHS) कहता है कि होम्योपैथी पर बहुत काम हो चुका है, पर अब तक कोई ऐसा प्रमाण नहीं है की होम्योपैथी किसी भी रोग के इलाज में प्रभावशाली हो.
2010 में ब्रिटेन की एक सरकारी कमेटी ने सरकार को होम्योपैथी पर पैसा खर्च करने पर रोक लगाने का सुझाव दिया. 2017 में एनएचएस ने सिफारिश की थी कि डॉक्टर मरीज को होम्योपैथी इलाज न दें.
होम्योपैथी पर सभी प्रकाशित रिसर्च पेपर पढ़ने के बाद साल 2015 में ऑस्ट्रेलिया की एनएचएमआरसी (NHMRC) ने कहा था कि होम्योपैथी के मनुष्यों पर काम करने का कोई सबूत नहीं है.
2014 के इबोला वायरस संक्रमण के दौरान विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस बीमारी के फैलने के प्रसंग में कहा, ‘नैतिक रूप से अप्रमाणित इलाजी हस्तक्षेप, अगर उसने प्रयोगशाला में या जानवरों में प्रोत्साहित करने वाले नतीजे दिखाए हैं, पर अभी सुरक्षा और दक्षता को जांचा नहीं गया है, को मनुष्यों पर इस्तेमाल करा जा सकता है.’
इस बयान में रेखांकित किए गए शब्द होम्योपैथी या इलाज के प्रसंग में बात करते समय अक्सर छोड़ दिए जाते हैं. ऐसा ही आयुष मंत्रालय के परामर्श के साथ भी हुआ.
हमने जितना भी पढ़ा उससे यह नहीं लगता कि होम्योपैथी किसी वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है, पर पिछले दिनों अगर हम अपने आसपास देखें, तो Aa30C लेने की होड़ मची थी.
एक जादुई दवा समझ लोगों ने अत्यधिक दाम देकर इस दवा को बाजार से खरीदा. ऐसा होने पर आयुष मंत्रालय ने भी एक स्पष्टीकरण में कहा कि उनका दवा लेने का सुझाव केवल एक सामान्य प्रसंग भर था- पर इस से Aa30C के प्रति उत्साह में कोई खास फर्क नहीं आया.
तो अब हम जानते हैं कि होम्योपैथी की इस दवा में पानी और एल्कोहल के अलावा कुछ नहीं है, तो उसके कुछ बूंदें या मीठी गोलियां खा लेने से कोई नुकसान नहीं होगा.
पर उसका नुकसान तब होगा जब लोग उसे खाने के बाद समझेंगे कि अब कोरोना वायरस उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता.
बीते दिनों ही ऐसे किस्से सामने आए जहां लॉकडाउन के दौरान सड़क पर घूमते युवकों से जब उनके बाहर होने का कारण पूछा गया था, तो उन्होंने कहा कि वह Aa30C खाकर आए हैं!
(अनुराग मेहरा, सुप्रीत सैनी और महेश तिरुमकुडुलु आईआईटी बॉम्बे में पढ़ाते हैं.)
(मूल अंग्रेज़ी लेख से सुप्रीत सैनी द्वारा अनूदित)