ममता न तो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोपों-अफवाहों पर लगाम कस पा रही हैं और न ही बहुसंख्यक उग्रता पर. आखिर सांप्रदायिकता को रोकने में बहुसंख्यक वोटों की सरकारों की तरह अल्पसंख्यक वोटों की सरकारें भी क्यों लाचार नज़र आती हैं?
सांप्रदायिक सोच रखने वालों के लिए बंगाल नया ख़ुराक है. वे कभी बराबरी तो कभी चुप्पी के नाम पर इस ख़ुराक को फांक रहे हैं. उनके लिए बंगाल की हिंसा बहुसंख्यक सांप्रदायिकता पर प्रहार करने वालों का मज़ाक उड़ाने का मौका है. उन्हें कब और किसने यह बात कह दी है कि जो बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का विरोधी है वो अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता का गुप्त समर्थक है.
ये वही लोग हैं जो ख़ुद बहुसंख्यक सांप्रदायिकता पर चुप रहे हैं और अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता पर उग्र हो जाते हैं. दरअसल यह एक चाल है. जो सांप्रदायिकता का विरोधी होता है वो हर तरह की सांप्रदायिकता का विरोधी होता है.
नेता ज़रूर सेकुलर कम्युनल के नाम पर इसका अलग अलग लाभ उठाने की कोशिश करते हैं मगर नागरिकों का विरोध हर तरह की हिंसा से होता ही है और जब नागरिक सांप्रदायिकता का विरोध करते हैं, उन्हें अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता का समर्थक बताने के लिए इतनी मेहनत इसलिए होती है कि कोई नहीं चाहता कि सांप्रदायिकता की दुकान बंद हो.
ज़्यादा लाभ बहुसंख्यक सांप्रदायिकता को होता है इसलिए वह हमेशा अपने विरोधियों को अवसरवादी और ठग ठहराने में लगी रहती है.
बाशिरहाट की हिंसा बंगाल से आई पहली सांप्रदायिक घटना नहीं है. इतनी घटनाओं के बाद अब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से दो टूक पूछा जाना चाहिए कि सांप्रदायिकता से निपटने के लिए आपका बेंचमार्क क्या है? कब और कहां ऐसी कार्रवाई की है जिससे पूरे बंगाल में मैसेज गया हो कि सांप्रदायिकता के मामले में ममता किसी को नहीं छोड़ती हैं.
प्रशासन छोड़ दीजिए, उनका राजनीतिक संगठन तो गांव गांव में मौजूद है. क्या वो भी सौहार्द और संवाद के संदेशों को लोगों तक ले जाने में असफल हो रहा है? या वो भी इस खेल का लाभ उठा रहा है? तृणमूल के सांसद, विधायक और ख़ुद मुख्यमंत्री कोलकाता और उससे बाहर दोनों प्रकार की सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए क्या कर रहे हैं? निश्चित रूप से इस मामले में ममता बनर्जी का कोई बेंचमार्क नहीं हैं. वे भी समझौता करते दिखाई देती हैं जैसी बाकी सरकारें.
बाशिरहाट की तस्वीरों को देखकर नहीं लगता कि जो भीड़ थी वो पुलिस के बस की नहीं थी. ज़रूर ममता की पुलिस भी अलवर और दादरी की पुलिस की तरह सरकार के हिसाब से राजनीतिक हिसाब किताब लगाने में वक्त गंवा देती होगी और शहर का एक हिस्सा जल जाता होगा.
बंगाल की हिंसा का पैटर्न तय सा लगत है. कुछ दुकानें जला दी जाएंगी, घर पर पथराव होंगे, पुलिस थाना फूंक दिया जाएगा और पुलिस की गाड़ियां जलेंगी. हिन्दू मुस्लिम धार्मिक जुलूसों पर बारी बारी से हल्के बम फेंक कर हमला हुआ है. जान तो कम जाती है मगर माल का नुकसान हो जाता है. जले हुए मकान और दुकान लंबे समय के लिए इलाके में सांप्रदायिक सनक की गंदी किताब के रूप में सबको दिखते रहते हैं.
बंगाल में नई-नई धार्मिक जुलूसों का स्केल बता रहा है कि बंगाल की उत्सवधर्मिता में सांप्रदायिक जुनून पैदा करने का वही पुराना खेल खेला जा रहा है, जिसे कई साल पहले उत्तर भारत में खेला जा चुका है. बंगाल में रामनवमी मनाई जाती थी मगर इसकी आड़ में हथियारों और पताकों का जो आक्रामक रूप का प्रदर्शन हो रहा है उसे अनदेखा कैसे किया जा सकता है.
इस सवाल का भी हल खोजना होगा कि बंगाल में प्रतिक्रियावादी आक्रामकता जगह क्यों बना रही है, क्या इस वजह से कि बंगाल में अल्पसंख्यक आक्रामकता वास्तविक होती जा रही है या उसका भरम फैला कर बहुसंख्यक आक्रामकता की जड़ों में खाद-पानी दिया जा रहा है?
ममता न तो अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोपों या अफवाहों पर लगाम कस पा रही हैं और न ही बहुसंख्यक उग्रता पर अंकुश लगा पा रही हैं. आखिर सांप्रदायिकता को रोकने में बहुसंख्यक वोटों की सरकारों की तरह अल्पसंख्यक वोटों की सरकारें भी क्यों लाचार नज़र आती हैं? काली और दुर्गा का बंगाल रामनवमी में अपना पुरुषार्थ क्यों खोज रहा है?
त्योहारों की आड़ में सांप्रदायिक जुनून का प्रदर्शन करने की यह चाल बहुत बारीक है जिसे खारिज करने के लिए एक ही सवाल काफी है कि तो क्या हम अपने त्योहार भी न मनाएं और कैसे मनाएं ये आप तय करेंगे. जैसे भी मनाइए लेकिन आंखें खोल कर देख लीजिए कि मनाने वालों का इरादा क्या है.
बंगाल में मुस्लिम समाज के पास राजनीतिक नेतृत्व है. तृणमूल कांग्रेस ने मुसलमानों में अपनी जगह बनाई है और प्रतिनिधित्व दिया है. यह अच्छी बात है लेकिन बंगाल के मुस्लिम समाज को यह देखना चाहिए कि उसके भीतर से किस तरह का राजनीतिक नेतृत्व पैदा हो रहा है.
जहां हाल की घटना हुई है वहां के सांसद और पूर्व सांसद की छवि बहुत अच्छी नहीं है. दोनों के बीच तृणमूल के भीतर अपनी दावेदारी बढ़ाने की कोशिश की भूमिका की भी जांच होनी चाहिए. मुस्लिम समाज को धार्मिक पहचान का नेतृत्व करने वाले नेताओं से छुट्टी कर लेनी चाहिए.
अलग अलग दलों में राजनीतिक पहचान के सहारे कम और धार्मिक पहचान के दम पर अपनी हैसियत ऊंची करने का रास्ता खोज रहे, ये नेता पूरे समाज को असुरक्षा की आग में झोंक रहे हैं. इन सबको खदेड़ देने का वक्त आ गया है. जिस तरह हिन्दू धर्मगुरुओं की राजनीति में कोई ज़रूरत नहीं है, उसी तरह से मुस्लिम धर्म गुरुओं की भी कोई जगह नहीं होनी चाहिए. सेकुलर नेताओं को इनसे राजनीतिक मुलाकातें बंद कर देनी चाहिए.
इसी 6 जुलाई को दिल्ली में पूर्व आईएएस अफसर अफ़ज़ल अमानुल्लाह के नेतृत्व में 11 मुस्लिम विद्वानों पत्रकारों ने केंद्रीय अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी को शिक्षा को लेकर 148 पन्नों की एक रिपोर्ट सौंपी है. इसमें एक भी धर्म गुरु नहीं है.
मौलाना लोग सच्चर सच्चर करते रहे और इसी फ़िक्र में रहे कि प्रधानमंत्री या सोनिया गांधी किसी तरह एक बैठक में बुला लें और फोटों खींच जाए. इसी कारण भी मुस्लिम समाज के ज़रूरी मसले पीछे छूट गए और उनका नेतृत्व बदनाम हुआ. बेहतर है वे अपने भीतर पेशेवर सियासतदान पैदा करें.
धीमी गति से हो रहे इस बदलाव को तेज़ करना होगा. जो धर्म गुरु हैं, उन्हें बेशक धार्मिक हैसियत दें लेकिन उनके भीतर राजनेता न खोजें, वरना अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की बड़ी सहेली बहुसंख्यक सांप्रदायिकता दरवाज़े पर कान लगाकर सुन रही है कि भीतर क्या बातें हो रही हैं. वो ख़ुद दोयम दर्जे के बदज़ुबान बहुसंख्यक धार्मिक नेताओं को आगे करेगी लेकिन अल्पसंख्यकों के बीच से एक टोपी दिखाकर बहुसंख्यकों के लाखों वोट ले लेती है. रोज़गार और दूसरे मुद्दे राह देखते रह जाते हैं.
बंगाल इसे समझ भी रहा है मगर मुसलमानों के भीतर के सांप्रदायिक तत्वों को ठीक से चेतावनी नहीं पहुंच रही है. इसी मई महीने में कलकाता के टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम के बयानों को लेकर खूब हंगामा हुआ. मौलान बरकती अपनी गाड़ी से लाल बत्ती न उतारने की बात कह रहे थे और प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ उल्टा-सीधा बयान दे रहे थे. टीवी चैनल के लिए बरकती वरदान बन गए थे.
टीपू सुल्तान मस्जिद के ट्रस्टी और वहां के लोगों ने इसका रास्ता निकाल लिया. मौलाना बरकती ममता बनर्जी के समर्थन होने का हवाला देते हुए जब जुमे की नमाज़ पढ़ाने आए तब लोग खड़े हो गए कि आपसे हम नमाज़ नहीं पढ़ेंगे. यह कोई मामूली घटना नहीं है. मज़हबी संगठनों ने भी फ़तवा दिया कि इमाम का काम मस्जिम में नमाज़ पढ़ाना है न कि राजनीति करना.
ममता को भी बरकती से किनारा करना पड़ा और लोगों के साथ दिखने के लिए अपने मंत्री सिदिक़ुल्लाह चौधरी को मस्जिद के बाहर इमाम बरकती के ख़िलाफ़ नारे लगाने के लिए भेजना पड़ गया. समाज के भीतर से सांप्रदायिकता से लड़ने की ऐसी घटना आप भारत के किसी कोने से बता सकते हैं?
मुस्लिम समाज को दूसरे का घर देखे बग़ैर अपने भीतर से राजनीतिक बुराइयों को ठीक करना ही होगा. उन मौलानाओं पर नज़र रखिए जो टीवी में जाकर सांप्रदायिक बहसों का हिस्सा बनते हैं और अनाप-शनाप बोलते हैं. जब इनके ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर अभियान चला तो कहने लगे कि क़ौम के लिए बोलने जा रहे हैं. मुस्लिम युवाओं ने पूछा कि क़ौन का नेता आपको किसने चुना है.
क़ौम को राजनीतिक मसले पर बोलने के लिए राजनेता ही पैदा करने होंगे, धर्मनेताओं का दौर चला गया. वैसे भी ये राजनीति में आकर सिर्फ़ अपना स्वार्थ साधते हैं. हिन्दू मुस्लिम दोनों समुदायों को राजनेता और धर्मगुरु में फ़र्क समझ लेना चाहिए. वरना एक दूसरे के जवाब में राजनीति में दोनों तरफ से फ़र्ज़ी मौलाना और बाबा ही सांसद बनकर सबका नेतृत्व करने लगेंगे.
प्राइम टाइम में बंगाल की हिंसा पर बात करने के लिए कोलकाता से किसी उलेमा काउंसिल के राष्ट्रीय सचिव और झारखंड विकास मोर्चा के प्रवक्ता अज़ीज़ ए मुबारक़ी आए. उन्होंने साफ़ साफ़ कहा कि इन मौलानाओं की हरकत के कारण मुस्लिम समाज के सामने मुश्किलें पैदा हो रही हैं.
वे झारखंड के रामगढ़ गए थे, जहां गोमांस के आरोप में एक मुस्लिम युवक को भीड़ ने मार दिया था. उस नौजवान की बेवा और बच्चों की मदद के लिए कोई मौलाना या जुलूस नहीं निकला लेकिन फेसबुक पोस्ट को लेकर भावनाएं आहत हो गईं. एक बेवा की मदद कर हम अपने पैगंबर के प्रति फर्ज़ अदा करेंगे या फेसबुक पोस्ट को लेकर पड़ोसियों के घर जलाकर.
कमलेश तिवारी के बयान के संदर्भ में ऐसी मूर्खता हो चुकी है, जुलूस निकली, नारेबाज़ी हुई और कई जगहों पर हिंसा भी हुई. उसका परिणाम क्या हुआ, क्या किसी का भला हुआ? बेशक निंदा कीजिए, थाने जाइए और हो सके तो कभी कभी प्रदर्शन इस बात के लिए भी निकालिए कि आपने हमारे बड़ों का अनादर किया है, हम आपको माफ़ करते हैं. ये भी करके देख लीजिए, ज़्यादा असर होगा.
गोरक्षा के नाम पर उन्माद और फेसबुक पोस्ट पर उन्माद में कोई अंतर नहीं है. बंगाल भीतर भीतर सुलग रहा है. ममता बनर्जी जान लें, इसकी प्रतिक्रिया में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का दायरा बहुत बड़ा होता है, वो ऐसी लचर सेकुलर ताकतों को दो मिनट में निगल जाता है.
बंगाल का चालाक भद्रलोक अब नया ठिकाना खोज रहा है. वो कम्युनिस्ट बंगाल में भी भद्र लोक बना रहा, ममता के कथित रूप से अराजक बंगाल में भी बना हुआ है और अब सांप्रदायिक बंगाल का स्वागत करने की तैयारी में बैठा है. इन सांप्रदायिक घटनाओं के बहाने जिस तबके की राजनीतिक चर्चाओं में सांप्रदायिकता के आने का ज़िक्र हो रहा है, वो यही तबका है.
सही बात है कि यह ममता बनर्जी को उनके साधारणपन के कारण पसंद नहीं करता है. उसे ममता का कुछ भी अच्छा नहीं लगता और सांप्रदायिक कोशिशों में उसे कुछ भी बुरा नहीं लगता है. वो बस इसे जायज़ ठहराने का बहाना खोज रहा है जिसे बाशिरहाट की घटना ने फिर से उपलब्ध करा दिया है.
यह धारणा ग़लत है कि बंगाल की हिंसा के ख़िलाफ़ कोई नहीं बोल रहा है. कई लोग हैं जो बंगाल की हिंसा पर कथित चुप्पी का आनंद ले रहे हैं. उन्हें लगता है कि जुनैद की हत्या को सही या उसकी हत्या के विरोध को ग़लत ठहराने का अकाट्य तर्क मिल गया है.
ये लोग जहां कहीं भी अपनी प्रतिक्रिया दर्ज करते हैं, वहां जाकर देखिए कि क्या इन्होंने बंगाल के ही इस्लामपुर में गाय चोरी के आरोप में तीन मुस्लिम युवकों की हत्या पर कुछ लिखा है, जुनैद की हत्या पर कुछ लिखा था, पहलू ख़ान की हत्या पर कुछ लिखा था, इन्होंने झारखंड के उत्तम और गंगेश की हत्या पर भी नहीं लिखा जिसे भीड़ ने बच्चा चोरी की अफ़वाह में मार दिया था.
किसी को भी मूल बात यही समझना है, हिंसा और नफ़रत की आग जिस तरफ़ भी लगे, वो दूसरी तरफ़ भी जाती है. अपनी तरफ़ लगेगी तो उनकी तरफ़ भी जाएगी. इसलिए किसी तार्किक व्यक्ति के लिए चुप रहने का विकल्प ही नहीं है.