मिड-डे मील: मिज़ोरम में सिर्फ़ चावल मिला, बच्चों को अब भी खाना पकाने की राशि का इंतज़ार

द वायर द्वारा ​सूचना के अधिकार क़ानून के तहत प्राप्त दस्तावेज़ों से पता चला है कि मिज़ोरम में लॉकडाउन के दौरान मार्च-अप्रैल में बंद हुए स्कूलों के हर तीन में से लगभग एक बच्चे को मिड-डे मील के तहत पका हुआ भोजन या इसके एवज में राशन और खाना पकाने की राशि नहीं मिली है.

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(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

द वायर द्वारा सूचना के अधिकार क़ानून के तहत प्राप्त दस्तावेज़ों से पता चला है कि मिज़ोरम में लॉकडाउन के दौरान मार्च-अप्रैल में बंद हुए स्कूलों के हर तीन में से लगभग एक बच्चे को मिड-डे मील के तहत पका हुआ भोजन या इसके एवज में राशन और खाना पकाने की राशि नहीं मिली है.

School children eat their free mid-day meal, distributed by a government-run primary school, at Brahimpur village in Chapra district of the eastern Indian state of Bihar July 19, 2013. Police suspect that India's worst outbreak of mass food poisoning in years was caused by cooking oil that had been kept in a container previously used to store pesticide, the magistrate overseeing the investigation said on Friday. REUTERS/Adnan Abidi
(प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स)

नई दिल्ली: कोरोना महामारी के बीच उत्तर-पूर्व के राज्य मिजोरम के बच्चों को मिड-डे मील के तहत अप्रैल से लेकर जून तक खाना पकाने की राशि अभी नहीं मिली है.

इसके अलावा मार्च-अप्रैल में लॉकडाउन के दौरान बंद हुए स्कूलों के हर तीन में से लगभग एक बच्चे को मिड-डे मील के तहत पका हुआ भोजन या इसके एवज में राशन और खाना पकाने की राशि नहीं मिली है.

द वायर  द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून, 2005 के तहत प्राप्त किए गए दस्तावेजों से ये जानकारी सामने आई है.

कोरोना वायरस के चलते लागू किए गए लॉकडाउन के कारण देश की एक बहुत बड़ी आबादी को खाद्यान्न संकट का सामना करना पड़ रहा है. बच्चे भी इन तकलीफों से अछूते नहीं हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बताती है कि बिहार में मिड-डे मील बंद किए जाने के कारण बच्चों को पेट भरने के लिए अपने परिवार के साथ कबाड़ बीनने और भीख मांगने का काम करना पड़ रहा है.

कोरोना महामारी के दौरान बच्चों को उचित पोषण देने और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बरकरार रखने के लिए केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि लॉकडाउन के समय स्कूल बंद होने के दौरान भी बच्चों को मिड-डे मील योजना का लाभ दिया जाना चाहिए.

इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी संज्ञान लिया था और सभी राज्यों से कहा कि इस योजना पर रोक नहीं लगाई जा सकती है और इसके तहत बच्चों को खाना मुहैया कराई जानी चाहिए.

हालांकि इसके बावजूद देश भर के कई राज्यों में महामारी के दौरान योजना का उचित कार्यान्वयन होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है.

मिजोरम के शिक्षा निदेशालय द्वारा 29 जून, 2020 को भेजे जवाब के मुताबिक, कोविड-19 के कारण बंद हुए स्कूलों के दौरान (मार्च-अप्रैल महीना) 40,367 बच्चों को मिड-डे मील योजना का लाभ नहीं मिला है. यह संख्या राज्य के कुल बच्चों का करीब 31 फीसदी है.

प्राप्त दस्तावेजों से यह भी पता चलता है कि इस दौरान राज्य के 2,511 स्कूलों में से 685 स्कूलों को मिड-डे मील योजना के तहत कवर नहीं किया गया. राज्य सरकार ने 1,826 स्कूलों में ही योजना के तहत राशन मुहैया कराया है.

हालांकि राज्य सरकार का कहना है कि जब ये जानकारी एमएचआरडी को भेजी गई थी, उस समय सभी स्कूल जानकारी नहीं भेज पाए थे.

मिजोरम के स्कूल शिक्षा निदेशक और राज्य में मिड-डे मील योजना के नोडल ऑफिसर जेम्स लालरिंछाना ने द वायर  से कहा, ‘इस आंकड़े में कमी इसलिए है क्योंकि उस समय तक कई सारे स्कूल फीडबैक नहीं दे पाए थे. उस समय जितनी जानकारी हमारे पास थी, वो हमने एमएचआरडी को भेज दी थी.

लालरिंछाना ने कहा कि 11 जून 2020 को एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी गई है, जिसमें सभी बच्चों तक लाभ पहुंचा दिया गया है. हालांकि 29 जून को आरटीआई के तहत भेजे जवाब में विभाग द्वारा ये पत्र मुहैया नहीं कराया गया है.

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने 20 मार्च 2020 को सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों को पत्र लिखकर कहा था कि कोविड-19 के कारण स्कूल बंद होने के बावजूद सभी बच्चों को मिड-डे मील मुहैया कराया जाए.

मंत्रालय ने कहा था कि यदि पका हुआ भोजन नहीं दिया जा रहा है तो इसके बदले में खाद्य सुरक्षा भत्ता (एफएसए) दिया जाए, जिसमें ‘खाद्यान्न’ और ‘खाना पकाने की राशि’ शामिल होती है.

हालांकि मिजोरम सरकार ने फिलहाल बच्चों को सिर्फ खाद्यान्न (चावल) ही मुहैया कराया है. अप्रैल से जून महीने तक के लिए खाना पकाने की राशि अभी तक नहीं दी गई है.

जेम्स लालरिंछाना ने कहा, ‘हम अभी अप्रैल से जून तक के लिए खाना पकाने की राशि नहीं दे पाए है क्योंकि फंड जारी होने में देरी हो रही थी. हालांकि कुछ दिन पहले ही हमें पैसे जारी किए गए हैं. अगले एक से दो हफ्ते में बच्चों को खाना पकाने का मूल्य भी दे दिया जाएगा.’

हालांकि मिजोरम सरकार ने केंद्र को जो जवाब भेजा है उसमें उसने कहा है कि मिड-डे मील के तहत खाद्यान्न एवं खाना पकाने की राशि दोनों दे दी गई है.

प्राप्त दस्तावेज के मुताबिक, लॉकडाउन के दौरान स्कूल बंद होने के समय (मार्च-अप्रैल) मिजोरम सरकार ने राज्य के कुल 2,511 स्कूलों के 131,849 बच्चों में से 91,482 बच्चों को मिड-डे मील योजना का लाभ दिया है.

इसमें से 87,670 बच्चों को खाद्य सुरक्षा भत्ता के तहत खाद्यान्न और खाना पकाने की राशि तथा 3,812 बच्चों को खाद्यान्न एवं खाना पकाने की राशि के एवज में दालें, तेल, मसाले, सब्जी इत्यादि दिए गए हैं.

हालांकि अब स्कूल शिक्षा निदेशक और राज्य में मिड-डे मील योजना के नोडल ऑफिसर का कहना है खाना पकाने की राशि अभी तक नहीं दी गई है और इसे जल्द ही दे दिया जाएगा.

इसके अलावा शिक्षा निदेशालय की डिप्टी डायरेक्टर जुलियानी नामते द्वारा भेजे गए जवाब के मुताबिक एक मई से शुरू हुई गर्मी की छुट्टियों के दौरान सभी बच्चों को मिड-डे मील योजना के तहत खाद्य सुरक्षा भत्ता देने के लिए राज्य सरकार द्वारा केंद्र को भेजा गया प्रस्ताव भी अपर्याप्त है.

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भारत सरकार के मानक के अनुसार, मिड-डे मील योजना के तहत प्राथमिक स्तर पर 100 ग्राम एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर 150 ग्राम खाद्यान्न प्रति छात्र प्रतिदिन के हिसाब से उपलब्ध कराया जाना चाहिए. यानी कि 30 दिन के हिसाब से प्राथमिक स्तर के छात्र को तीन किलो और उच्च प्राथमिक स्तर के छात्र को 4.5 किलो खाद्यान्न दिया जाना चाहिए.

इसके अलावा एक अप्रैल 2020 से लागू किए गए नए नियमों के मुताबिक सिर्फ खाना पकाने के लिए प्राथमिक स्तर पर 4.97 रुपये और उच्च स्तर पर 7.45 रुपये की धनराशि प्रति छात्र प्रतिदिन उपलब्ध कराई जानी चाहिए, जिसमें दाल, सब्जी, तेल, नमक, ईंधन आदि का मूल्य शामिल होता है.

हालांकि प्राप्त दस्तावेजों से पता चलता है कि राज्य सरकार ने खाना पकाने की राशि की पुरानी दर के हिसाब से बच्चों को लाभ देने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा है. एक अप्रैल, 2020 से पहले भोजन पकाने की राशि प्राथमिक स्तर पर 4.48 रुपये और उच्च स्तर पर 6.71 रुपये निर्धारित थी.

राज्य सरकार ने गर्मी की छुट्टियों के दौरान 29 दिन के लिए प्राइमरी स्तर के 90,602 छात्रों के लिए 1.17 करोड़ रुपये और उच्च प्राइमरी के 41,247 छात्रों के लिए 80.14 लाख रुपये खाना पकाने की राशि के रूप में देने का प्रस्ताव रखा था, जो कि प्रति छात्र 4.47 रुपये और 6.71 रुपये ही बनता है.

हाल ही में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने मिड-डे मील के संबंध में एक नोटिस जारी कर कहा है कि सरकारी स्कूल के बच्चों को खाना देना उनके शिक्षा और भोजन के अधिकार से जुड़ा मामला है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 21(ए) के तहत शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार है.

पूर्वोत्तर राज्य होने के कारण खाना पकाने की राशि का 90 फीसदी हिस्सा केंद्र को देना होता है और राज्य सरकार को 10 फीसदी ही खर्चा उठाना होता है. बीते 27 अप्रैल 2020 को केंद्र ने मिड-डे मील योजना के तहत मिजोरम को कुल 4.72 करोड़ रुपये जारी किया है, जिसमें से 3.02 करोड़ रुपये खाना पकाने की राशि है.

लॉकडाउन में राशन लेने के लिए बच्चों को स्कूल आना पड़ा

अन्य राज्यों के विपरीत मिजोरम में खाना पकाने की राशि को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) के माध्यम से खाते में नहीं भेजा जाता है. बच्चों को स्कूल आकर कैश लेना पड़ता है. डीबीटी का उद्देश्य बिचौलियों की व्यवस्था को खत्म करना था.

शिक्षा निदेशक ने बताया कि यहां पर खाना पकाने की राशि बच्चों या बच्चों के परिजनों के खाते में ट्रांसफर नहीं की जाती है. इसकी बड़ी वजह ये है कि ग्रामीण या सूदूर क्षेत्रों के लोगों के पास बैंक की अच्छी सुविधा नहीं है.

उन्होंने कहा, ‘पहले हम स्कूल मैनेजिंग कमेटी (एसएमसी) के खाते में पैसे ट्रांसफर करते हैं. एसएमसी में स्कूल, बच्चों के परिजन और स्थानीय एनजीओ का प्रतिनिधित्व होता है. एसएमसी पैसे निकालकर संबंधित स्कूलों को देता है. जिसके बाद बच्चे स्कूल से पैसे प्राप्त करते हैं. आमतौर पर उन्हें स्कूल आकर ही पैसे लेने पड़ते हैं. बहुत कम मामलों में टीचर या एसएमसी बच्चों के यहां जाकर राशन या पैसे देते हैं.’

लालरिंछाना ने बताया कि कोरोना वायरस के चलते लागू किए गए लॉकडाउन के समय में भी राशन लेने के लिए बच्चों को स्कूल आना पड़ा था. 

उन्होंने कहा, ‘बहुत मुश्किल था कि ऐसे समय में बच्चों को पोषण प्रदान किया जा सके. हमारे पास नए बच्चे इस साल नहीं आए हैं. हम सभी पुराने बच्चों को ही मिड-डे मील मुहैया करा रहे हैं. यहां गांवों में लोगों को कुछ अंडे खरीदने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा था.’

अधिकारी का कहना है कि स्कूलों में पैसे के वितरण को लेकर पारदर्शिता रहती है और सभी बच्चों को पैसे मिल जाते हैं.

फंड जारी होने में पहले से ही होती रही है देरी

सार्वजनिक दस्तावेजों से पता चलता है कि फंड जारी होने में देरी की स्थिति काफी लंबे समय से बनी हुई है.

मिड-डे मील योजना के प्रोजेक्ट अप्रूवल बोर्ड (पीएबी) की मीटिंग के दौरान 29 मई 2020 को एमएचआरडी द्वारा पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक, राज्य से स्कूलों तक फंड जारी होने में औसतन तीन महीने से ज्यादा की देरी हो रही है.

इसके अलावा साल 2019-20 में खाना पकाने की राशि के लिए जितने बजट का आवंटन हुआ था, उसमें से सिर्फ 48 फीसदी का ही इस्तेमाल किया गया. इसके अलावा राज्य सरकार ने एमएचआरडी के नियमों के तहत सोशल ऑडिटिंग नहीं कराई है.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 2019-20 के दौरान सिर्फ 57 फीसदी बच्चों का हेल्थ चेक-अप किया गया. इसके अलावा खाने की गुणवत्ता भी उतनी अच्छी नहीं रही है, क्योंकि 46 फूड सैंपल में आठ सैंपल जांच में खाद्य पैमाने पर खरे नहीं उतर पाए हैं.

हालांकि राज्य ने इस योजना के तहत कुछ कुछ अच्छी पहल भी की है. मिजोरम सरकार खाने पकाने की राशि में राज्य की ओर से प्राइमरी के बच्चों को प्रतिदिन 0.70 रुपये और उच्च प्राइमरी के प्रति बच्चे को प्रतिदिन 0.25 रुपये अतिरिक्त राशि देती है.

इसके अलावा खाना पकाने वाले रसोइये को भी राज्य की ओर से प्रति महीने अतिरिक्त 500 रुपये दिए जाते हैं. इसके अलावा सबसे खास बात ये है कि राज्य में समुदाय के लोग बच्चों को भोजन के लिए मौसमी फलों, सब्जियों का योगदान देते हैं.

द वायर  ने अपनी पिछली तीन रिपोर्टों में बताया था कि किस तरह मिजोरम के अलावा पश्चिम बंगाल, दिल्ली, उत्तराखंड और त्रिपुरा में भी लॉकडाउन के दौरान मिड-डे मील योजना का सभी बच्चों को लाभ नहीं मिल पाया है.

उत्तराखंड राज्य ने अप्रैल और मई महीने में लगभग 1.38 लाख बच्चों को मिड-डे मील मुहैया नहीं कराया है, जबकि त्रिपुरा की भाजपा सरकार ने मिड-डे मील के एवज में छात्रों के खाते में कुछ राशि ट्रांसफर करने का आदेश दिया था, जो कि सिर्फ खाना पकाने के लिए निर्धारित राशि से भी कम है.

वहीं राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के बच्चों को अप्रैल से लेकर जून तक मिड-डे मील योजना के तहत खाद्यान्न या खाद्य सुरक्षा भत्ता (एफएसए) नहीं दिया गया है. पश्चिम बंगाल लॉकडाउन के दौरान बच्चों को सिर्फ आलू और चावल दिया है.