बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती हमेशा से अपने समर्थकों से ‘मनुवादी मीडिया’ से सावधान रहने की अपील करती रही हैं. वे अपनी रैलियों में लगातार मीडिया पर सवाल उठा रही हैं. क्या मीडिया उनकी पार्टी के प्रति भेदपूर्ण बर्ताव करता है?
उत्तर प्रदेश में प्रमुख विपक्षी दल बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का आरोप है कि चुनावों को प्रभावित करने के लिए ‘मीडिया को मैनेज किया गया है’. 11 फरवरी को सहारनपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘विरोधी पार्टियां ओपीनियन पोल और सर्वे के जरिये अपने पक्ष में हवा बना रही हैं. ओपिनियन पोल में बीएसपी को कमतर दिखाया जा रहा है. यही स्थिति आपको 2007 के विधानसभा चुनाव में भी दिखाई गई थी. मीडिया और ओपोनियन पोल ने बीएसपी को तीसरे और चौथे नंबर पर दिखाया था लेकिन नतीजे आने के बाद ओपीनियन पोल की पोल खुल गई.’
मायावती अपनी हर चुनावी सभा में जनता को यह बताने की कोशिश कर रही हैं कि मीडिया उनके साथ भेदभाव कर रहा है और उनकी पार्टी की स्थिति को कमतर दिखाया जा रहा है.
उत्तर प्रदेश में अधिसूचना जारी होने के पहले अक्टूबर, 2016 में विधानसभा चुनाव को लेकर मीडिया में एक कथित सर्वेक्षण छपा जिसमें भाजपा के सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की बात कही गई. इस सर्वे को लेकर बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती ने मीडिया पर जमकर हमला बोला. उन्होंने 13 अक्टूबर को आरोप लगाया कि ‘मीडिया के पूंजीपति मालिक अपने लिए काम करने वाली पार्टियों के पक्ष में सर्वे करके बसपा कार्यकर्ताओं का मनोबल गिराने की कोशिश कर रहे हैं.’
मायावती ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ पदाधिकारियों की एक बैठक में कहा, ‘देश में जितने भी छोटे-बड़े अखबार और टी.वी. चैनल आदि चल रहे हैं, उनके अधिकांश मालिक बड़े-बड़े पूंजीपति और धन्नासेठ ही हैं. इसके साथ ही, चुनाव में सर्वे कराने वाली एजेन्सियां भी ज्यादातर इन्हीं के हिसाब से ही कार्य करती हैं… चुनाव में ये पूंजीपति लोग मीडिया तथा सर्वे एजेंसियों का इस्तेमाल, खासकर कांग्रेस, भाजपा आदि विरोधी पार्टियों के पक्ष में हवा बनाने के लिए करते हैं जो सत्ता में आने पर उनके नफे-नुकसान के हिसाब से सरकारें चलाती हैं. पूंजीपति लोग आगामी चुनाव के मद्देनजर अपने सभी अख़बारों और टी.वी. चैनलों एवं सर्वे एजेन्सियों का इस्तेमाल बसपा के लोगों का मनोबल गिराने के लिए करेंगे. इनसे प्रदेश की जनता को वोट पड़ने तक ज़रूर सावधान रहना होगा.’
8 फरवरी को बदायूं और शाहजहांपुर में अपनी चुनावी रैलियों को संबोधित करते हुए मायावती ने इसी आरोप को लगभग दोहराया कि ‘मीडिया भले ही बसपा की ताकत को कम आंक रहा हो मगर यूपी में जीत बसपा की ही होगी. बसपा अपने दम पर यूपी में सरकार बनाएगी.’
मायावती लगातार अपनी रैलियों में यह आरोप दोहरा रही हैं कि उत्तर प्रदेश की प्रमुख पार्टी होने के बावजूद मीडिया उनकी पार्टी को नजरअंदाज करता है और पर्याप्त कवरेज नहीं देता. वे मीडिया पर मनुवादी, ब्राह्मणवादी आदि होने का आरोप लगाती हैं. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से संबंधित अपनी रैलियों में भी वे यह आरोप दोहरा रही हैं.
सिर्फ मायावती ही नहीं, उनके समर्थकों और तमाम दलित चिंतकों की ओर से भी यह कहा जाता है कि मायावती को मीडिया वैसी जगह नहीं देता, जैसी उसे मिलनी चाहिए. क्या वाकई भारतीय मीडिया निष्पक्ष नहीं है? क्या वाकई दलितों और बहुजनों की प्रतिनिधि पार्टी को मीडिया नजरअंदाज करता है?
समाजशास्त्री प्रो. बद्रीनारायण कहते हैं, ‘मायावती सही कह रही हैं. आपने देखा होगा कि अब तक उन्हें बिल्कुल हाशिए पर रखा गया. अब जब ज़मीन पर वे मज़बूती से लड़ रही हैं तब उनकी बात शुरू हुई है. अब किसी ने कह दिया कि बसपा को 24 से 50 सीट तक मिलेगी. दरअसल, मीडिया में जो लोग हैं वे बसपा को समझ ही नहीं सकते. एक तो मीडिया बसपा को नहीं समझ पाता, दूसरे न समझ पाने की वजह से वह अन्य पार्टियों के रणनीतिक प्लान में फंस जाता है. जब तक आप गांव में नहीं जाएंगे, तब तक आप असल तस्वीर कैसे पेश करेंगे. आप चाय की दुकान पर जाकर लौट आएंगे तो एक तरह का विचार बनेेगा, आप बस्तियों में जाएंगे तो दूसरी तरह का विचार बनेगा. जब तक आप तमाम स्तर पर राय नहीं लेंगे तब तक सही तस्वीर कैसे बन पाएगी?’
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटी यानी सीएसडीएस से जुड़े राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘मायावती की बात में सच्चाई है, लेकिन ऐसा जान बूझकर किया जाता है, ऐसा नहीं है. हम अन्य के बारे में नहीं कह सकते, लेकिन सीएसडीएस सर्वे कराता है तो ऐसा नहीं है कि हम जान बूझकर मायावती को कमतर दिखाते हैं.’
जेएनयू के प्रो. विवेक कुमार मायावती की बात की तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या. आप आप तथ्य उठाकर देख लीजिए, जितने भी ओपीनियन पोल आते हैं वे बसपा को कम दिखाते हैं. मायावती जो कह रही हैं वह तथ्य है. हर कोई जानता है कि मायावती को वोटर शहरी नहीं है. सर्वे वाले गांव में कितनी दूर तक जाते हैं, यह कभी नहीं बताते. शहरी क्षेत्र में भी सर्वे होता है तो क्या सर्वे करने वाले स्लम एरिया में जाते हैं? सर्वे का जो सैंपल है, वह प्रतिनिधित्वकारी नहीं होता, इसलिए सर्वे का नतीजा भी ग़लत होता है. दूसरे, जो परसेप्शन की डिबेट बनाई जाती है, वह ऐसे दिखाई जाती है कि भाजपा के चार नेताओं के वक्तव्य दिखाए जाएंगे, उनकी रैलियां दिखाई जाएंगी, लेेकिन बसपा की सिर्फ मायावती को दिखाया जाएगा. ऐसा लगता है कि ऐसा सोची समझी रणनीति के तहत मीडिया ऐसा करता है.’
दलित मसलों पर मुखरता से राय रखने वाले पत्रकार दिलीप मंडल कहते हैं, ‘यह सही है कि अब तक किसी भी चुनाव में ऐसा कोई भी ओपीनियन पोल नहीं हुआ है जिसमें मायावती या लालू यादव को आगे दिखाया गया हो. यह एक पैटर्न है कि जिसकी वजह से उन्हें पीछे दिखाया जाता है. आम तौर पर ओपीनियन पोल या चुनावी सर्वे प्रमुख राजनीतिक दलों की तरफ झुके हुए होते हैं. राजनीति में जो नई ताकते हैं या जो सबाल्टर्न आवाज़ें हैं, उनकी मौजूदगी उस तरह से नहीं होती. हो सकता है कि सर्वे ईमानदारी से हो रहे हों और इनका वोटर उतना मुखर न हो. लेकिन अगर लगातार ऐसा हो रहा है तो इसे एक पैटर्न की तरह देखा जाना चाहिए. इस पर सोचा जाना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है? सर्वे करने वालों को इस पर गंभीरता से सोचना चाहिए. विविधता से भरे भारतीय समाज में अगर सैंपलिंग ठीक से नहीं होगी तो सर्वे सही नहीं होगा. दूसरा, मीडिया पर जिस तरह का अविश्वास है, उसमें यह ज़रूरी नहीं है कि हर वोटर यह बोले ही कि हम किसे वोट दे रहे हैं. जो प्रभावी संरचना है, उसके हिसाब से बोलने का दबाव भी रहता है.’
बद्री नारायण कहते हैं, ‘मीडिया का एक मध्यवर्गीय अमीर चरित्र है. दूसरा यह है कि मीडिया के लोग मेहनत नहीं करना चाहते. जो आसानी से मिल जाए, वही राय लेकर विचार बना लेते हैं और खबरें चलाते हैं. इसके अलावा यह एक तरह के खेल का हिस्सा भी है कि बसपा और मायावती को हाशिए पर रखा जाए.’
अगर बसपा जैसी पार्टी को कम जगह दी जाती है तो इसके पीछे किसी तरह की रणनीति हो सकती है? यह रणनीति बनाने वाला कौन है? मीडिया को बसपा के खिलाफ नियंत्रित करने वाली ताक़त कौन सी है?
प्रो. विवेक कुमार कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी कहने को देश के प्रधानमंत्री हैं, लेकिन प्रदेश के चुनाव में भाजपा के लिए वोट मांग रहे हैं. वे रैली करते हैं तो दर्जनों चैनल प्रसारित करते हैं. ये तो तथ्य है कि मीडिया पक्षपात करता है. दूसरे, आप मीडिया का कंपोजीशन देखिए. इसमें कितने दलित, कितने पिछड़े, कितने मुस्लिम हैं? बाबा साहेब कहते थे कि अगर प्रशासन भ्रष्ट होगा तो वह ख़रीद-फ़रोख़्त दोनों के लिए खुला होगा. यह मीडिया तो जातिवादी भी है. मीडिया में जो प्रभावशाली लोग हैं वे अपने जाति के लोगों को ही तवज्जो देते हैं.’
हालांकि, स्पष्ट तौर पर यह नहीं कहा जाता कि मायावती या बसपा के साथ जातीय भेदभाव होता है. राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘मायावती जी का जो समर्थन आधार है वह खामोश रहता है. वह ज़्यादा कुछ कहता नहीं है. यह हमेशा संभावना रहती है कि जो चुनावी सर्वेक्षण होते हैं उसमें उसकी आवाज़ पूरी तरह नहीं आ पाती. इसलिए आम तौर पर मायावती की राजनीतिक शक्ति को उत्तर प्रदेश में कमतर आंका जाता है. लेकिन जब चुनाव नतीजे आते हैं तो वह आंकलन से आगे निकलती है. अब कितना आंका जाता है और कितना आगे निकलती है, यह परिस्थिति और संदर्भ के आधार पर तय होता है. जितना अच्छा, वैज्ञानिक तरीक़े से ईमानदार सर्वे होगा, उतना वास्तविकता के क़रीब होगा.’
पिछले हर चुनाव में ओपीनियन पोल सर्वे करने वालों को ज़बरदस्त तरीक़े से मात खानी पड़ी. पिछले तीन आम चुनावों और लगभग हर विधानसभा चुनाव में नतीजे आने के बाद सर्वे ध्वस्त हुए हैं. हालिया चुनावों में दिल्ली और बिहार इसके ताज़ा उदाहरण हैं.
विवेक कुमार कहते हैं, ‘मीडिया के लोगों का जातीय पूर्वाग्रह मीडिया का चरित्र है. पूरे विश्व में जब चुनावी सर्वे होता है तो वोट परसेंट दिखाया जाता है, सीट में नहीं परिवर्तित किया जाता. यह भारत ऐसा देश है जहां पर वोटों के प्रतिशत को सीट में परिवर्तित किया जाता है, यह प्रमाण है कि ज़्यादती की जाती है. यद्यपि वस्तुनिष्ठ और वैज्ञानिक आकलन के आधार पर कभी भी वोट परसेंट को सीट में नहीं परिवर्तित किया जा सकता. पिछले जितने चुनाव हुए हैं, वे सभी इसके प्रमाण हैं.’
मीडिया में बसपा जैसी पार्टी को जगह देने के सवाल पर दिलीप मंडल कहते हैं कि ‘मीडिया की जो संरचना है उस पर तो तमाम सर्वे हो चुके हैं, उस पर कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है. मीडिया का अपना एक चरित्र है जो हो सकता है कि बसपा जैसी पार्टी के ख़िलाफ़ काम करता हो. लेकिन उससे भी ज़्यादा मुझे लगता है कि जो डॉमिनेंट राजनीतिक सामाजिक ताक़तें हैं, उनमें मीडिया का ध्यान अपनी तरफ़ खींचने की क्षमता है. उसकी कोई काट इनके पास नहीं है. ज़रूरी नहीं है कि षडयंत्र हो ही रहा हो. मीडिया में ज़्यादा ख़बरें भाजपा की हैं तो ऐसा जानबूझ कर हो रहा हो यह ज़रूरी नहीं है और यह भी ज़रूरी नहीं है कि भाजपा उसी अनुपात में प्रदर्शन करेगी. यह सामान्य व्यवहार के तहत भी हो सकता है.’
हालांकि, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के पत्रकार आशीष मिश्र कहते हैं कि ‘मायावती की बात में दम है. दम इसलिए है क्योंकि उनकी पार्टी का मीडिया रिलेशन सबसे ख़राब है. वे मीडिया से दूरी बनाकर रखती हैं. पार्टी मीडिया से संपर्क करने की कोई कोशिश नहीं करती. पार्टी का कोई नेता या प्रवक्ता हमसे बात करने को उपलब्ध नहीं होता. कोई नेता आधिकारिक बयान नहीं दे सकता. ख़बर के लिए हमें कंटेंट चाहिए, वह कौन देगा? हमें स्टोरी करनी होती है लेकिन उनका पक्ष नहीं मिलता तो हम स्टोरी ही नहीं लिख पाती. उनकी रैली होती है, कौन आयोजक है, कौन मैनेजमेंट देख रहा है, क्या रणनीति है, कुछ पता नहीं चलता. इसके उलट अखिलेश यादव बुलाकर लगातार बात करते हैं.’
एक और वरिष्ठ पत्रकार नाम न छापने के आग्रह के साथ कहते हैं, ‘मायावती का आरोप ग़लत है. मैं ख़ुद बसपा कवर करता हूं. अब मेरे पास बसपा की ख़बरें चलाने के अलावा कोर्इ विकल्प नहीं होता. लेकिन बसपा बाक़ी पार्टियों जैसी नहीं है. उसके नेता हमारे साथ उठते-बैठते हैं, लेकिन वे अन्य पार्टी नेताओं की तरह बयान नहीं दे सकते. बसपा के बारे में हम वहीं छाप सकते हैं जो मायावती कहें. पत्रकार अगर किसी सूत्र से सूचना लेकर ख़बर छाप दे तो मायावती अगले दिन प्रेस कॉन्फ्रेंस करके रिपोर्ट का न सिर्फ़ खंडन करती हैं, बल्कि उस रिपोर्टर को ही ‘मनुवादी’ घोषित कर देती हैं. अगर बसपा को मीडिया में कम जगह मिल रही है तो यह मायावती की वह रणनीति है जिसके तहत वे मीडिया से दूर रहना चाहती हैं. अगर यह सच नहीं है तो कोई बताए कि यूपी चुनाव के दौरान हर पार्टी के नेताओं का इंटरव्यू सब अख़बारों में छपा, लेकिन कोई बसपा नेता बात करने को तैयार नहीं होता. यदि किसी मसले पर बात करना चाहें तो वह बस एक बात कहता है कि इस पर बहन जी बात करेंगी और बहन जी मीडिया में उपलब्ध नहीं होतीं.’
दरअसल यह ज्ञात तथ्य है कि बसपा के संस्थापक कांशीराम के समय से ही बसपा की यह रणनीति रही है कि वह मीडिया से दूर रहती है. मायावती की बायोग्राफ़ी लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार और अजय बोस ने बीबीसी से कहा, ‘कांशी राम जब ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड माइनरिटी कम्यूनिटी इंप्लाइज फ़ेडरेशन (बामसेफ) के जरिए लोगों को जोड़ रहे थे तब उनका मीडिया वालों के साथ उठना-बैठना था. लेकिन पार्टी बनाने के बाद मीडिया के लोगों से दूरी बना ली. दरअसल, कांशीराम की राजनीति को मुख्यधारा का मीडिया उचित जगह भी नहीं देता था, लिहाजा ये दूरी एक तरह दोनों तरफ से थी और इसको कांशीराम के बाद मायावती ने भी कायम रखा.’
हालांकि, अभय कुमार दुबे सर्वेक्षण तकनीक की सीमा पर सवाल उठाते हुए कहते हैं, ‘हर सर्वेक्षण की अपनी समस्याएं होती हैं कि उसमें शहरी, सुशिक्षित और उंची जाति के लोगों का दबदबा रहता है. फिर भी हम लोग कोशिश करते हैं कि जो हाशिए की आवाज़ें हैं वे ज़्यादा से ज़्यादा शामिल हो सकें. यह सही है कि मीडिया में उंची जाति के लोगों का दबदबा है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि इस वजह से वे मायावती को कमतर दिखाते हैं, क्योंकि ऐसे लोग सतर्क भी रहते हैं कि उन पर कोई इल्ज़ाम न लगने पाए. अब मायावती यह कह रही हैं कि सर्वे में उनको कमतर दिखाया जा रहा है, अब अगर चुनाव नतीजों में मायावती सर्वेक्षणों को गलत साबित कर देती हैं तो हम सभी को सर्वेक्षण तकनीक पर विचार करना होगा.’
उत्तर प्रदेश के ज़्यादातर पत्रकार इस बात से सहमत हैं कि मायावती को मीडिया की ज़रूरत भी नहीं है. उनका वोटर मीडिया पर ध्यान नहीं देता क्योंकि वह पढ़ा-लिखा नहीं है. वे व्यक्तिगत प्रचार में यक़ीन रखती हैं. रैलियों में मीडिया पर इसलिए सवाल उठाती हैं ताकि जो ख़बरें या अफ़वाहें उनके ख़िलाफ़ हों, उनके समर्थक उस पर भरोसा न करें. इसके बावजूद, यह सवाल उठता है कि क्या मीडिया की जातीय संरचना, पूर्वाग्रह, चुनाव कवरेज की रणनीति और दलगत पक्षधरता सवालों से परे है?
हालांकि, कभी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक भी सवाल न सुनने वाली मायावती अब पत्रकारों के सवाल पर भड़कने की जगह छिटपुट जवाब भी देने लगी हैं. जिस तरह तिलक, तराजू और तलवार से जूते का रिश्ता सोशल इंजीनियरिंग के सूत्र में बंध गया था, उसी तरह अब मायावती के लिए ‘मनुवादी’ रहा मीडिया उतना मनुवादी नहीं रहा. इस बार के चुनाव प्रचार के दौरान उनका मीडिया संपर्क ऐतिहासिक तौर पर बढ़ा है. यह अलग बात है कि तमाम पत्रकार अभी भी इस फ़िराक़ में हैं कि काश मायावती उन्हें एक इंटरव्यू दे दें.