बराबरी न केवल अनुच्छेद 14 के तहत मिला मौलिक अधिकार है, बल्कि संविधान की प्रस्तावना में लिखित एक उद्देश्य तथा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा भी है. समता का सिद्धांत यह है कि समान व्यक्तियों के साथ समान बर्ताव तथा अलग के साथ अलग बर्ताव किया जाए.
वर्ष 2020 में पहले की तरह उच्चतम न्यायालय ने दो बार ये विचार प्रस्तुत किया है कि आरक्षण संविधान के तहत एक मूल अधिकार नहीं है.
पहला मौका था सात फरवरी को निर्णित मुकेश कुमार बनाम उत्तराखंड राज्य का मामला, जिसमें पदोन्नति में आरक्षण का मुद्दा विचारणीय था.
दूसरा मामला जून 11 को सुना गया था जो कि मेडिकल कॉलेजों में छात्रों के लिए आरक्षण से संबंधित था. चूंकि इस मामले में याचिका को वापस लेना पड़ा था इसलिए इसका निर्णय उपलब्ध नहीं है.
मुकेश कुमार का मामला उत्तराखंड उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ एक अपील थी. दरअसल उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के पदोन्नति में आरक्षण निरस्त करने वाले आदेश को अवैध करार दिया था.
साथ ही न्यायालय ने सरकार को ये निर्देश भी दिया था कि पदोन्नति में आरक्षण देने या न देने का फैसला करने से पहले वह इस बारे में आंकड़े जुटाएं कि सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति (एससी) व अनुसूचित जनजाति (एसटी) का प्रतिनिधित्व पर्याप्त है या नहीं.
ऐसा निर्देश इसलिए देना पड़ा क्योंकि उच्च न्यायालय के समक्ष पेश किए गए सबूतों के अनुसार वो सरकारी आदेश प्रतिनिधित्व संबंधी आंकड़ों पर आधारित नहीं था.
अपीलीय कार्यवाही के दौरान सुप्रीम कोर्ट को ये बताया गया (जबकि हाईकोर्ट के सामने ये तथ्य छिपाया गया था) कि उत्तराखंड सरकार ने सरकारी सेवाओं में एससी व एसटी के प्रतिनिधित्व संबंधी आंकड़े इकट्ठा करने के लिए एक समिति बनाई थी.
समिति की रिपोर्ट के अनुसार राजकीय सेवाओं में एससी व एसटी का प्रतिनिधित्व अपर्याप्त था और इस रिपोर्ट को राज्य सरकार की कैबिनेट की मंजूरी भी मिल गई थी. ये सब जानते हुए भी राज्य ने पदोन्नति में आरक्षण को समाप्त करने का आदेश दिया.
यह बात गौर करने लायक है कि अगर राज्य सरकार पदोन्नति में आरक्षण देना नहीं चाहती थी तो वह सीधे ही मना कर सकती थी. इसके लिए कमेटी गठित करने और आंकड़े जुटाने की जरूरत नहीं थी.
असल में प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने की प्रक्रिया संविधान के अनुच्छेद 16 (4ए) में प्रदत्त शक्ति का इस्तेमाल करते हुए अपनाई गई थी, जैसा कि एम. नागराज के मामले में पदोन्नति में आरक्षण देने से पहले अनिवार्य बताया गया था.
समिति की रिपोर्ट में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व दर्शाने के बावजूद भी राज्य ने पदोन्नति में आरक्षण न देने का फैसला किया.
यह कदम कई ज्वलंत सवाल खड़े करता है: क्या अपर्याप्त प्रतिनिधित्व दर्शाने वाले आंकड़े भी पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए अनुच्छेद 16 (4ए) के अंतर्गत राज्य की ‘राय’ बनाने के लिए काफी नहीं थे?
क्या सरकारी आदेश पूरी तरह मनमाना (स्वेच्छाचारी) नहीं था? जबकि अधिक आरक्षण देने वाले सरकारी फैसले की वैधता परखने के लिए न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) संभव है, तो आरक्षण बहुत कम अथवा न देने के फैसले का न्यायिक समीक्षा क्यों संभव नहीं है?
इस लेकर एम. नागराज मामले में पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए दो मत महत्वपूर्ण हैं:
‘…किसी विषय में राज्य द्वारा शक्तियों का इस्तेमाल मनमाना कहा जा सकता है, खास तौर से जब राज्य पिछड़ेपन और अपर्याप्त प्रतिनिधित्व को पहचानने और आंकने में नाकाम होता है…’
‘जिन्हें शक्तियां सौंपी जाती हैं उनके द्वारा इनका मनमाना उपयोग समता का उल्लंघन करता है. यह ‘निर्देशित/नियमित शक्ति’ का सिद्धांत है. यह सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि शक्तियों का मनमाना उपयोग होने पर न्यायालय दखल देगा. अनुच्छेद 16 (4ए) और 16 (4बी) में दी गई शक्तियों के मूल में यही सिद्धांत है.’
उत्तराखंड सरकार का वो आदेश अनुच्छेद 13 (3) (ए) के अंतर्गत ‘कानून’ की परिभाषा में आता है. यह मनमाना आदेश अनुच्छेद 14 में प्रदत्त समता के अधिकार, जो मनमाने फैसले का विरोध करता है, का उल्लंघन करता है.
साथ ही यह आदेश एक जैसे और उनसे भिन्न लोगों को एक जैसा मानकर अनुच्छेद 16(1) में दी गई अवसर की समता को छीनता है. अनुच्छेद 13 (2) ऐसे आदेश को इन शब्दों में खारिज करता है:
‘राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी.’
इसलिए, यह आदेश असंवैधानिक है. हालांकि जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली इस पीठ ने इन तथ्यों पर गौर नहीं किया.
उत्तराखंड उच्च न्यायालय के जिस फैसले के विरुद्ध यह अपील थी, उस फैसले में साफ लिखा था कि राज्य की ओर से पैरवी करने वाले वकील ने प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने वाली किसी भी गतिविधि से इनकार किया था.
क्या राज्य सरकार द्वारा आंकड़े जुटाने वाली समिति के कार्य को हाईकोर्ट को न बताना दुर्भावनापूर्ण नहीं था? क्यों सुप्रीम कोर्ट ने भी राज्य सरकार द्वारा संविधान के साथ किए जा रहे धोखे को जानकर भी अनदेखा कर दिया?
उत्तराखंड सरकार का यह आदेश साफ तौर पर असंवैधानिक था और हाईकोर्ट ने इसे अवैध घोषित कर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने हाईकोर्ट के निर्णय को निरस्त कर दिया.
पीठ ने ये तर्क दिया कि सरकार ने एक सूझबूझ भरा निर्णय लिया था और सरकार पदोन्नति में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं. यह कहना गलत नहीं होगा कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 16 (4ए) के प्रति बहुत ही संकीर्ण नजरिया अपनाया.
वास्तव में अनुच्छेद 16 (4ए) संविधान में समता के प्रावधानों का हिस्सा है, इसलिए इसे अकेले नियम की तरह नहीं समझा जा सकता.
समता (बराबरी) न केवल मूल अधिकार है बल्कि संविधान की प्रस्तावना में लिखित एक उद्देश्य तथा संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा भी है. समता का सिद्धांत यह है कि समान व्यक्तियों के साथ समान बर्ताव तथा अलग के साथ अलग बर्ताव किया जाए.
एक कहावत है, ‘सबको एक लाठी से मत हांको.’ इस प्रकार समता का अधिकार वर्गीकरण की इजाजत देता है. समता के विभिन्न प्रकारों में से एक है अनुच्छेद 16 (1) के तहत राजकीय सेवाओं में बराबरी का अवसर.
इंद्रा साहनी मामले में नौ जजों की पीठ ने ये कहा था कि अनुच्छेद 16 (1) के अंतर्गत किसी वर्ग के हित में नियुक्तियां या पद आरक्षित किए जा सकते हैं.
इसलिए राज्य की सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था अनुच्छेद 16(1) के तहत भी की जा सकती है, क्यों कि यह समता की अवधारणा पर आधारित है.
अनुच्छेद 16 (4) तथा 16 (4ए) जिनके अंतर्गत क्रमशः आरक्षण तथा पदोन्नति में आरक्षण दिया जा सकता है, संविधान द्वारा उचित वर्गीकरण है और अनुच्छेद 16 (1) के उदाहरण भी.
एम. नागराज मामले में संविधान पीठ ने ये स्पष्ट रूप से कहा था: ‘हमारे विचार से समता की अवधारणा अनुच्छेद 16(4) में भी कायम है… इसलिए पदोन्नति में आरक्षण देने में मनमाना इनकार अनुच्छेद 14 के तहत समता के अधिकार का उल्लंघन हैं, जिसके अनुसार, ‘राज्य व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा.’
इसलिए यह कहना सर्वथा उचित है कि सरकारी सेवाओं में तथा पदोन्नति में आरक्षण अनुच्छेद 14 के साथ अनुच्छेद 16 (1), 16 (4) तथा 16 (4 ए), के तहत मूल अधिकार है.
इस प्रकार, (1) मनमाना ढंग से आरक्षण तथा पदोन्नति में आरक्षण देने से मना करने वाला सरकारी आदेश, या (2) अपर्याप्त प्रतिनिधित्व वाले पिछड़े वर्गों के हित में आरक्षण दिए बगैर रिक्त सरकारी पदों की घोषणा करने वाला विज्ञापन/अधिसूचना, इन मूल अधिकारों का उल्लंघन करते हैं.
इन्हें अनुच्छेद 32 अथवा 226 के तहत चुनौती दी जा सकती है. मुकेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट की एक और गौरतलब राय यह है कि सरकार राजकीय सेवाओं में आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं हैं.
एक तरफ अनुच्छेद 16 (4) तथा 16 (4ए) राज्य को पद आरक्षित करने की ताकत देता है, दूसरी तरफ अनुच्छेद 46, जो नीति निर्देशक तत्वों में से एक है, राज्य को साफ तोर पर अनुसूचित जाति-जनजाति के हितों के संरक्षण के लिए बाध्य करता है:
‘राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उसकी संरक्षा करेगा.’ (अनुच्छेद 46)
इस अनुच्छेद में इस्तेमाल हुए शब्दों से स्पष्ट है कि संविधान निर्माता राज्य पर एससी व एसटी के हित में पूर्ण और व्यापक कर्तव्य सौंपना चाहते थे.
नीति निर्देशक तत्वों के महत्व के बारे में अनुच्छेद 37 ये घोषणा करता है कि नीति निर्देशक तत्व किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होंगे, लेकिन फिर भी ये देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा.
इस प्रकार राज्य कानून बनाते वक्त इन सिद्धांतों को लागू करने के लिए बाध्य है. मिनर्वा मिल्स मामले में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि मूल अधिकारों तथा नीति निर्देशक तत्वों के बीच संतुलन संविधान के मूल ढांचे का अनिवार्य हिस्सा है.
इनमें विरोधाभास होने पर दोनों का ऐसा अर्थ निकालना चाहिए, ताकि इनमें तालमेल बैठ सके. अनुच्छेद 21 की सीमाओं का विस्तार भी नीति निर्देशक तत्वों की सहायता से ही किया गया है.
इसलिए संविधान की प्रस्तावना, अनुच्छेद 13, 14, 16, 38 (2) तथा 46 को एक साथ पढ़ने और समझने से स्पष्ट है कि राज्य लोक सेवाओं में सामाजिक प्रतिनिधित्व का संतुलन कायम करने के लिए बाध्य है.
इस प्रकार सरकारी सेवाओं में आरक्षण प्रदान करना राज्य के लिए पसंद/नापसंद का मुद्दा नहीं है. अनुच्छेद 46 के निर्देशानुसार अनुच्छेद 16 (4) तथा 16 (4ए) का अर्थ केवल विवेकाधीन शक्ति न होकर कर्तव्य युक्त शक्ति है.
इसलिए पिछड़ापन, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता एवं प्रशासन की कुशलता की शर्तों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकारी सेवाओं में आरक्षण देने को बाध्य है.
गौरतलब है कि इन दोनों अनुच्छेदों में राज्य को विकल्प देने वाले शब्द ‘कर सकेगा’ का इस्तेमाल नहीं हुआ है.
दूसरी ओर अनिवार्यता दर्शाने वाले शब्द ‘करेगा’ का उपयोग इसलिए नहीं किया जा सका क्योंकि ये प्रावधान दरअसल संविधान द्वारा उचित वर्गीकरण तथा अनुच्छेद 16 (1) के उदाहरण के रूप में हैं, जिन्हें अनुच्छेद 16 की भावना स्पष्ट करने के लिए जोड़ा गया था.
असल में इन शक्तियों में निहित अनिवार्य कर्तव्य को समझने के लिए मूल प्रावधान अनुच्छेद 14 का हवाला देना चाहिए, जो ये कहता है कि, ‘राज्य… वंचित नहीं करेगा.’
इन सब के अलावा उच्चतम न्यायालय की पीठ ने यह भी कहा कि यदि एससी और एसटी का सरकारी नौकरियों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व न्यायालय की जानकारी में लाया जाता है, फिर भी आरक्षण देने के लिए राज्य को परमादेश रिट (रिट ऑफ मडामस) जारी नहीं की जा सकती.
कोर्ट का यह कथन समता के प्रावधानों, नीति निर्देशक तत्वों तथा संविधान निर्माताओं की मंशा को पूर्ण रूप से अनदेखा और नाकाम करता है.
यह राज्य को समाज में विषमता मिटाने और सामाजिक न्याय लाने के दायित्व से मुक्त करता है तथा उसे मनमाना आचरण करने की अनुमति देता है.
समता तथा सामाजिक व आर्थिक न्याय के मूल्य सरकार के रहम पर कतई नहीं छोड़े जाने चाहिए, अन्यथा राजकीय सेवाओं में वंचित और शोषित वर्गों का प्रतिनिधित्व और भी कम हो जायेगा.
क्या तब भी कोर्ट ये कहेगा कि हम सरकार को प्रतिनिधित्व के आंकड़े जुटाने और आरक्षण लागू करने का निर्देश नहीं दे सकते? इसलिए संविधानवाद को कायम रखने के लिए न्यायपालिका का हस्तक्षेप महत्वपूर्ण, निर्णायक और अनिवार्य है.
जब अन्य सभी दरवाजे बंद हो जाते हैं, तब इंसाफ पाने के लिए अदालत ही आखिरी सहारा होती है. अनुच्छेद 142 के तहत उच्चतम न्यायालय के पास ताकत है कि वह ‘पूर्ण न्याय’ करने की खातिर ‘कोई भी आदेश’ जारी कर सकता है. इसलिए दो जजों की बेंच द्वारा दी गई उपरोक्त राय पूरी तरह से गलत और बेबुनियाद है.
सुप्रीम कोर्ट को राज्य सरकार को ये आदेश देना चाहिए कि वह अनुच्छेद 16 (4), 16 (4ए) और 335 के तहत शर्तों को पूरा करे और उनके अनुसार आरक्षण के इंतजामात करे.
इस मामले के अलावा दूसरी याचिका तमिलनाडु में मडिकल छात्रों के आरक्षण से जुड़ी हुई थी. केंद्र और भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद् (एमसीआई) ने मनमाने तरीके से पिछड़े वर्गों के छात्रों लिए आरक्षित सीटों को सामान्य वर्ग से भरने का फैसला ले लिया था.
जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली पीठ ने बगैर ज्यादा गौर किए ये कह दिया कि अनुच्छेद 32 के तहत ये याचिका नहीं सुनी जा सकती क्यों कि आरक्षण एक मौलिक अधिकार नहीं है.
यहां ये कहना फिर से जरूरी हो जाता है कि केंद्र सरकार और काउंसिल का ये फैसला मनमाना और समता के अधिकार के खिलाफ है, जिसे सुप्रीम कोर्ट को ऊपर बताए तर्कों के अधार पर खारिज कर देना चाहिए था.
पिछले कुछ सालों में आरक्षण विरोधी और दलित विरोधी सोच ने बहुत जोर पकड़ा है और साथ ही आरक्षण को कमजोर करने वाली सरकारी नीतियां भी बढ़ रही हैं.
आजादी के बाद के ऐसे दौर में पिछड़े वर्गों को ये डर सताता है कि वो अपने ही ‘चुने हुए हुक्मरानों’ के हाथों कहीं फिर से बेबसी और लाचारी की जिंदगी जीने को मजबूर न हो जाएं. ऐसे मुश्किल हालातों में सुप्रीम कोर्ट भी आरक्षण के बारे में बड़ी सोच रखने की बजाय तंग रुख अपनाए हुए है.
सुरेश चंद गौतम, चेब्रोलू लीला प्रसाद और मुकेश कुमार मामलों में इसके फैसलों से आरक्षण विरोधी ताकतों के हौसले और बुलंद हुए हैं, लेकिन पिछड़े तबके के लोग और भी बेबस.
इसलिए आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट को ऐसा रवैया अपनाना होगा जिससे कि संविधान निर्माताओं के आरक्षण के बुनियादी मकसद को पूरा किया जा सके, जो है: सभी सरकारी सेवाओं के हर एक स्तर पर पिछड़े तबकों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी की फैकल्टी ऑफ लॉ में पढ़ाते हैं.)
(मूल अंग्रेज़ी लेख से लेखक और सीमा द्वारा अनूदित. )