आयकर विभाग और सीबीआई भारत की राजनीति तय कर रहे हैं. भ्रष्टाचार तो मिटा नहीं, राजनीति तय कर देना भी कम बड़ा योगदान नहीं है.
नंवबर, 2014 से लेकर दिसंबर 2016 तक सीबीआई की प्रेस रिलीज़ का अध्ययन कर रहा था. सीबीआई की वेबसाइट पर सभी प्रेस रिलीज़ हिंदी और अंग्रेज़ी में मौजूद हैं. वर्ष 2015 में सीबीआई ने 285 प्रेस रिलीज़ जारी की है. इस साल सबसे अधिक अगस्त महीने में 45 प्रेस रिलीज़ जारी हुई है. वर्ष 2016 में सीबीआई ने 283 प्रेस रिलीज़ जारी किए हैं.
दिसंबर 2016 में सबसे अधिक 34 प्रेस रिलीज़ जारी की गई थी. इनके अध्ययन से बाहरी तौर पर सीबीआई को समझने का एक मौका मिलता है. भीतर से किसी संस्थान को न जानने के कारण समझ में चूक हो सकती है फिर भी प्रेस रिलीज़ के आधार पर सीबीआई की उपलब्धियों का विश्लेषण करने का जोख़िम उठाने में हर्ज़ नहीं है. चूक होगी तो सुधार की गुज़ाइश तो हमेशा ही है.
568 प्रेस रिलीज़ में छापे की सूचना में कभी किसी का नाम नहीं देती है. उसके छापे गुप्त ही रहते हैं मगर कुछ मामलों में जिससे सरकार की छवि बनती है, या फिर राजनीतिक विरोधियों को ख़त्म करना होता है तो उसकी सूचना सीबीआई से कई बार पत्रकारों तक पहुंच जाती है.
ऐसा छापों की रिलीज़ और मीडिया कवरेज़ की जानकारी में अंतर को देख प्रतीत होता है. क्या सीबीआई विरोधी दल के नेताओं के यहां छापे को लीक करती है या कोई और लीक करता है. क्या ऐसा भी हुआ है कि सीबीआई के पहुंचने से पहले कैमरे वाले पहुंच गए हों या उनके पहुंचने के दस बीस मिनट के अंदर में पहुंच गए हों?
जब दुनिया को पता चल ही गया, चैनलों पर चर्चा हो ही गई तो सीबीआई को प्रेस रिलीज़ में नाम लिख ही देना चाहिए. लेकिन वह ऐसा नहीं करती है. सिर्फ़ आरोप-पत्र दायर करने और सज़ा की प्रेस रिलीज़ में ही आरोपी या सज़ायाफ़्ता का नाम लेती है. गिरफ़्तारी की सार्वजनिक सूचना जारी करते वक़्त भी सीबीआई नाम ज़ाहिर नहीं करती है.
इसका मतलब है सीबीआई का राजनीतिक फिक्सिंग में इस्तेमाल जमकर हो रहा है. ये सूत्र सीबीआई के नहीं होते, सीबीआई में बैठे सत्ता के गेम प्लानरों के होते हैं. सीबीआई को जब अदालतों से फटकार मिलती है तो उसकी सूचना प्रेस रिलीज़ में नहीं होती है. सीबीआई एक सार्वजनिक संस्था है उसे यह भी बताना चाहिए कि आज अदालत ने फलां केस में ठीक से काम न करने पर हमें डांटा है.
मैंने सीबीआई की रिलीज़ में एक और दिलचस्प पैटर्न देखा है. जो मामला राजनीतिक रूप से उछलता है, उससे संबंधित प्रेस रिलीज़ के अंत में एक चेतावनी ज़रूर होती है. यह चेतावनी एकाध बार अधिकारी स्तर के छापों या आरोप-पत्र के मामले में भी दिखी है, मगर आमतौर पर सियासी मामलों में ही जारी की जाती है.
प्रेस रिलीज़ के अंत में लिखा होता है कि “जनमानस को याद रहे कि उपरोक्त सूचनाएं सीबीआई द्वारा की गई जांच व इसके द्वारा एकत्र किए गए प्रमाण पर आधारित है. भारतीय क़ानून के तहत आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाएगा जब तक अपराध सिद्ध न हो जाए.“
सीबीआई यह चेतावनी हर प्रेस रिलीज़ में क्यों नहीं जारी करती है, समझ नहीं आया. क्या राजनीतिक मामलों में सीबीआई की अंतरात्मा भी यह सावधानी बरतना चाहती होगी कि जनमानस को याद रहे कि दोष साबित होने तक यह बंदा निर्दोष है जिसे उसके यहां से ही लीक ख़बरों के आधार पर टीवी पर दोषी साबित किया जा चुका होता है.
सीबीआई के बारे में एक और ख़ास बात नोटिस किया. अगर सीबीआई के तेज़-तर्रार अफ़सरों और परिश्रमी जांचकर्ताओं को बुरा न लगे तो एक बात कहना चाहता हूं. मैं जोख़िम उठाकर काम करने वाले अफ़सरों को इस लांछन से बचाना भी चाहता हूं. पांच सौ से अधिक प्रेस रिलीज़ के अधिकतर गंभीर और कुछ हद तक सरसरी अध्ययन करने के बाद कह सकता हूं कि सीबीआई छोटी मछलियां पकड़ने में सिद्धहस्त है.
छोटी मछली पकड़ना भी मुश्किल काम है मगर इसमें आनंद आता है. मैं ख़ुद बारिश के दिनों में धान के खेत में यह काम कर चुका हूं. रोहू (बड़ी मछली) पकड़ने के नाम पर दिन भर गरई ( छोटी मछली) पकड़ता रह गया. बड़ी मछली पकड़ने में कौन रिस्क ले, ख़ासकर जब वो मछली सरकार के तालाब की हो तो.
गिरफ़्तारी से लेकर आरोप-पत्र दायर करने और सज़ा दिलाने में सीबीआई का रिकॉर्ड बताता है कि सरकारी तंत्र में काम करने वाली छोटी मछलियों को पकड़ने में इसका जवाब नहीं है. इनकम टैक्स अफ़सर, कस्टम इंस्पेक्टर, पुलिस इंस्पेक्टर, डीएसपी, भांति-भांति के बैंक मैनेजर, सीपीडब्ल्यूडी, एनडीएमसी, डीडीए, एमसीडी और रेलवे के इंजीनियर, रेलवे में भी ख़ास तौर से सेक्शन इंजीनियर को गिरफ़्तार करने और सज़ा तक पहुंचाने में सीबीआई की उपलब्धि को कोई चुनौती नहीं दे सकता है.
सीबीआई इनकम टैक्स इंस्पेक्टर और रेलवे के सेक्शन इंजीनियर काफ़ी पकड़ती है. ज़्यादातर मामलों में ये लोग औसतन 10 से 50 हज़ार के बीच रिश्वत लेते हुए पकड़े जाते हैं. आयकर विभाग भी सीबीआई के चंगुल में ख़ूब फंसता है. इनकम टैक्स अफ़सर से लेकर चीफ़ कमिश्नर के यहां छापा पड़ता है, रिश्वत लेते हुए धरे जाते हैं और इन्हें सज़ा भी होती है.
हर साल की रिलीज़ में इस विभाग का नाम आता रहता है. लगभग हर महीने सीबीआई आयकर विभाग के किसी न किसी अधिकारी को पकड़ती है और जेल भी भिजवाती है. आयकर विभाग के घोटाले को पकड़ने में दक्ष अफ़सरों की टीम को सलाम. वैसे श्रम विभाग के भांति-भांति के आयुक्त, सेल्स टैक्स एक्साइज़, डाक विभाग, एयरपोर्ट अथॉरिटी से लेकर कृषि मंत्रालय के अधिकारी भी रिश्वत लेते पकड़े गए हैं. रेलवे के कई भी स्तर के अधिकारी रिश्वत की चाह में धरे गए हैं.
बैंकों के मैनेजर किसी को कमवाने में काफ़ी काम के लगते हैं! सीबीआई की प्रेस रिलीज़ में एक करोड़ से लेकर 4000 करोड़ तक के मामले में भांति-भांति स्तर के मैनेजर पकड़े गए हैं. इंडियन ओवरसीज़ बैंक में 4138 करोड़ का मामला दर्ज है. एक मामला 3000 करोड़ का भी है. इसी तरह के 100, 300 से लेकर 800 करोड़ के घोटाले के कई मामले हैं.
क्या 4000 करोड़ का घोटाला बैंक में हो जाए, उस पर दिन रात चर्चा नहीं होनी चाहिए, उस पर लगातार प्रेस रिलीज़ नहीं आनी चाहिए? क्या इस खेल में कोई नेता होगा ही नहीं? मीडिया वाले 4000 करोड़ के बैंक घोटाले से संबंधित छापे, गिरफ़्तारी या आरोप-पत्र को उस तरह से कवर नहीं करते हैं जिस तरह से विरोधी दल के नेताओं के यहां छापं को कवर करते हैं.
आम तौर पर सीबीआई शिकायतों के आधार पर ही किसी को पकड़ने जाती होगी. सीबीआई के पास ऐसी कितनी शिकायतें आती हैं, किन किन विभागों के ख़िलाफ़ शिकायतें आती हैं, इसका कुछ विश्लेषण संस्था को ही पेश करना चाहिए. राजनीतिक दलों के नेताओं, मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार की कितनी गुप्त शिकायतें मिलती हैं उसका भी एक विश्लेषण सीबीआई को देना चाहिए.
यह भी बताना चाहिए कि विपक्षी दलों की सरकारों और उनके मंत्रियों के ख़िलाफ़ कितनी शिकायतें आती हैं और बीजेपी शासित सरकारों और मंत्रियों के ख़िलाफ़ कितनी शिकायतें आती हैं. उन शिकायतों का क्या होता है. विश्लेषण की उम्मीद इसलिए कर रहा हूं ताकि सीबीआई को नाम न ज़ाहिर करने की नैतिकता से औपचारिक रूप से समझौता न करना पड़े! क्या ये लीक सिर्फ़ विरोधी दल के नेताओं के मामले में ही होते हैं? इसका जवाब प्रक्रियात्मक सफ़ाई से टाला जा सकता है मगर सवाल तब भी है.
सीबीआई की प्रेस रिलीज़ से पचा चलता है कि 2015 से 2016 के बीच पांच-दस पूर्व मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और सांसद विधायकों को गिरफ़्तार किया गया है, आरोप पत्र दायर हुए हैं और कुछ मामलों में सज़ा भी हुई है. इन्हें आप बड़ी मछली मान सकते हैं मगर इनमें से भी ज़्यादातर ग़ैर-बीजेपी के हैं. क्या मध्य प्रदेश, यूपी, छत्तीसगढ़ या जहां कहीं बीजेपी की सरकार है, वहां से कोई बीजेपी के मंत्रियों या सांसदों के ख़िलाफ़ शिकायत नहीं भेजता होगा? सुशील मोदी जैसे नेता क्या बीजेपी शासित राज्यों में नहीं हैं?
मध्य प्रदेश के व्यापम घोटाले को छोड़ दें तो बीजेपी शासित राज्यों के मंत्रियों के ख़िलाफ़ न के बराबर प्रेस रिलीज़ मिली. चिट फंड मामले में सीबीआई ज़रूर भयंकर काम करते हुए लग रही है, बंगाल, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश में इससे संबंधित छापे पड़ते रहते हैं और आगे की कार्रवाई की भी प्रेस रिलीज़ खूब मिलती है. हमें इस बारे में आश्वश्त हो जाना चाहिए कि भारत के तमाम राज्य चिट फंड घोटाले से मुक्त हो चुके हैं!
दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव और अन्य अधिकारियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करने से लेकर गिरफ़्तारी तक की प्रेस रिलीज़ है. मौजूदा दिल्ली सरकार के पूर्व खाद्य व आपूर्ति मंत्री पर कथित रूप से छह लाख की रिश्वत लेने का मामला दर्ज है. एक सांसद और तीन अन्य के ख़िलाफ़ सरकारी ख़जाने को नुकसान पहुंचाने का मामला दर्ज है. इसमें जनमानस को चेतावनी दी गई है कि दोष सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाएगा.
मगर दिल्ली सरकार के पूर्व मंत्री के ख़िलाफ़ मामले की प्रेस रिलीज़ में जनमानस को दोषी मान लेने की जल्दबाज़ी न करने की चेतावनी नहीं दी गई है. हो सकता है कोई टाइप करना भूल गया हो! इस्पात, सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्योग मंत्रालय के पूर्व मंत्री व अन्य के ख़िलाफ़ आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज करने की रिलीज़ जारी हुई है. गुड़गांव के किसान मालिकों से भूमि ख़रीदने में कथित अनियमितताओं के संदर्भ में मामला दर्ज किया है. 1500 करोड़ का नुकसान हुआ है.
अगस्त 2015 में व्यापम को लेकर ख़ूब हंगामा हुआ था. एक पत्रकार की हत्या हो गई थी. तब सीबीआई ने व्यापम से संबंधित 16 प्रेस रिलीज़ जारी किए थे. यानी जब विवाद होता है तो सीबीआई सक्रिय हो जाती है. वैसे इस केस में सीबीआई की प्रेस रिलीज़ आने वाले महीनों में कम हो जाती है, उनकी जगह गिरफ़्तारी से लेकर आरोप-पत्र दायर करने की रिलीज़ आने लगती है.
बीजेपी शासित राज्यों में यही एक मामला है जिसे लेकर सीबीआई सक्रिय है. इस मामले में क़रीब 200 से अधिक एफआईआर हैं, प्रेस रिलीज़ से नहीं लगता कि 20-25 प्रतिशत से ज़्यादा मामलों में आरोप-पत्र दायर हुआ है. सारे बड़े अपराधी और नेता इस मामले में ज़मानत पर बाहर मौज कर रहे हैं. व्यापम भारत का एक ऐसा घोटाला है जिसके लिए राजनीतिक रूप से वहां की सरकार ज़िम्मेदार नहीं है. बाक़ी सारे घोटाले की नैतिक ज़िम्मेदारी किसी नेता या दल के प्रमुख पर है मगर व्यापम की ज़िम्मेदारी लगता है नीम के पेड़ ने ले ली है.
2015 से 16 के बीच कई प्रेस रिलीज़ के अध्ययन से पता चलता है कि कोयला घोटाले से संबंधित मामलों में सीबीआई की कामयाबी संतोषजनक है. कोयला घोटाला मामले में एक पूर्व मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री को दस साल की सज़ा होती है. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री को अन्य मामले में दस साल की सज़ा होती है.
दक्षिण भारत के पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री के ख़िलाफ़ भी आय से अधिक का मामला दर्ज होता है. एक पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री पीके थुंगन को सज़ा होती है. झारखंड में राज्य सभा चुनाव के दौरान 5 पूर्व विधायकों पर पैसे लेकर वोट देने के मामले में आरोप-पत्र दायर होता है. इसकी प्रेस रिलीज़ में जनमानस की चेतावनी है कि दोष साबित होने तक ये निर्दोष हैं.
709 करोड़ की हानि पहुंचाने के आरोप में पूर्व कपड़ा मंत्री और एनटीपीसी के पूर्व निदेशक के ख़िलाफ़ केस होता है. यूपी के बांदा के विधायक को 10 साल की सज़ा होती है, सांसद डीपी यादव को दस साल की सज़ा होती है. झारखंड के पूर्व मंत्री हरिनारायण रे और उनके परिवार के सदस्यों को सज़ा होती है. पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दायर होता है. इनमें से ज़्यादातर यूपीए दौर के मंत्री सांसद हैं.
यूपी चुनाव के समय नोएडा और ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी में भ्रष्टाचार के मामले काफ़ी उजागर किए गए थे. चीफ़ इंजीनियर की गिरफ़्तारी को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ, अब उसका अंजाम क्या है और कब दिखेगा किसी को पता नहीं. पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट के आदेश पर सीबीआई सिरसा के धर्म गुरु के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करती है.
इस धर्म गुरु के यहां हरियाणा बीजेपी के सारे उम्मीदवार दर्शन के लिए गए थे. इन पर कथित रूप से 400 भक्तों को नपुंसक बनाने का आरोप है. इस केस से संबंधित क्या आपने सीबीआई की हाल फ़िलहाल में सक्रियता वाली कोई ख़बर सुनी है जैसी आप बीजेपी के विरोधी दल की सरकारों वाले राज्यों से सुनाई पड़ती है. इसकी प्रेस रिलीज़ में लिखा है कि जांच जारी है.
क़ानून पास होने के बाद अभी तक लोकपाल नियुक्त नहीं हुआ है. जिसे जो मन कर रहा है, ख़ुद ही भ्रष्टाचार मुक्त होने का सर्टिफिकेट बांट रहा है. वो भी दूसरों को नहीं, अपने को. लोकपाल के दौरान सीबीआई की स्वायत्तता को लेकर बहस चली थी. कई बार लगता है कि क्या कभी कोई चीज़ बदलेगी ही नहीं.
क्या जांच एजेंसियों को हम कभी स्वायत्त और निष्पक्ष देख पाएंगे या इसी तरह के लेख लिखकर जीवन का बहुमूल्य समय बर्बाद करते रहेंगे. यही सोचते हुए इस लेख को विराम दे रहा हूं कि सीबीआई के भीतर ईमानदार और निष्पक्ष अफ़सरों को कितनी घुटन होती होगी. कितनी बार गीता और भागवत कथा पढ़कर ख़ुद को समझाते होंगे कि जो हो रहा है, उसे वह टाल नहीं सकते इसलिए जो हो रहा है उसी में टालते ठेलते रहें.
मैं उनकी भावना समझ सकता हूं. उन्हें रोज़ मन मार कर जीना होता होगा. सीबीआई का एक बड़ा योगदान भी है जिसे स्वीकार करने में हर्ज नहीं है. आयकर विभाग और सीबीआई भारत की राजनीति तय कर रहे हैं. भ्रष्टाचार तो मिटा नहीं, राजनीति तय कर देना भी कम बड़ा योगदान नहीं है.
(यह लेख मूलत: रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा पर प्रकाशित हुआ है.)