अमरनाथ बनाम जुनैद: ‘थ्री मिस्टेक्स’ आॅफ चेतन भगत

किसी एक त्रासदी के पीड़ितों को दूसरी त्रासदी के पीड़ितों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना हद दर्जे का ओछापन है, जहां पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की बजाय राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने लगती हैं.

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किसी एक त्रासदी के पीड़ितों को दूसरी त्रासदी के पीड़ितों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करना हद दर्जे का ओछापन है, जहां पीड़ितों को इंसाफ दिलाने की बजाय राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने लगती हैं.

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11 जुलाई को आतंकवादी हमले के बाद घायल अमरनाथ यात्री (फोटो: पीटीआई), चेतन भगत (फोटो: विकीमीडिया), जून में ट्रेन में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर मार दिया गया युवक जुनैद (फोटो: इंडियन एक्सप्रेस)

चेतन भगत भारत के सबसे ज़्यादा बिकनेवाले लेखकों में से एक हैं. कह सकते हैं कि मध्यवर्ग के चरित्र पर उनकी अच्छी पकड़ है. गुजरात के हिंदू तीर्थयात्रियों पर आतंकवादियों के हमले के बाद उन्होंने एक बेहद हल्का ट्वीट किया, जो ऊपरी तौर पर इतना भला और तर्कसंगत दिख रहा था कि कुछ घंटों के भीतर ही इसे हज़ारों बार रीट्वीट किया गया और हज़ारों लोगों ने इसे लाइक किया:

जब जुनैद मारा जाता है, मीडिया कहता है कि वह मुस्लिम होने के कारण मारा गया. फिर ये क्यों न कहें कि #अमरनाथटेररअटैक  ( #AmarnathTerrorAttack ) में जो मारे गए वे हिंदू होने के कारण मारे गए.

लेकिन उनके तर्क ने कुछ लोगों को हैरत में भी डाल दिया. जब @अनिरबानब्लाह (@anirbanblah) ने पूछा कि क्या उनका ट्वीट ‘देश की मदद करता है और दुनिया को एक बेहतर जगह बनाता है’, जिस पर भगत ने जवाब दिया,

बहस करके खुश हूं. मैं किसी पर आरोप नहीं लगा रहा हूं, बस बर्ताव में बराबरी की मांग कर रहा हूं और तथ्यों की बात कर रहा हूं.’  

इसलिए चलिए, बस तथ्यों की बात करते हैं. क्या मीडिया ने यह ख़बर चलाई कि मुस्लिम होने के कारण जुनैद को निशाना बनाया गया और उसकी हत्या की गई? मीडिया के एक तबके ने ऐसा किया. अपनी जगह पर वे सही भी थे. लेकिन दूसरे तबका इस लाइन पर टिका रहा कि ट्रेन पर हुई लड़ाई जिसने अंततः जुनैद की जान ले ली, सीटों को लेकर हुई थी और इसका उसके मजहब से कोई लेना-देना नहीं था. हकीकत ये है कि पुलिस और सोशल मीडिया पर हिंदुत्ववादी विचारों वाले लोग अब भी इस बात पर कायम हैं.

उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं कि इस घटना को झेलनेवालों और गिरफ्तार किए गए लोगों के बयानों से यह बिल्कुल साफ है कि जुनैद और उसके साथी यात्रियों को ट्रेन के दूसरे साधारण मुसाफिरों ने ठीक इसी कारण निशाना बनाया और उनकी निर्ममता से पिटाई की, क्योंकि वे देखने से मुसलमान नज़र आ रहे थे. इस घटना के बाद ‘हुलिए’ से मुस्लिम नज़र आनेवाले एक और परिवार पर ट्रेन में हमला किए जाने की एक और ख़बर आ चुकी है.

चलिए अब अमरनाथ यात्रियों की बस पर आतंकवादियों के हमले में मारे जाने वाले सात लोगों की बात करते हैं. घटना के तुरंत बाद की मीडिया रिपोर्ट ने इनकी बिल्कुल सही पहचान तीर्थयात्रियों  (यानी हिंदू) के तौर पर की और बाद में यह भी दर्ज किया कि बचे हुए यात्रियों को सुरक्षित निकाल कर लानेवाला बस ड्राइवर एक मुस्लिम था. (इस तरह इस बात पर ज़ोर दिया गया कि उसके यात्री मुस्लिम नहीं थे). अगर इस बात को लेकर कोई भ्रम था कि मुसाफिरों पर उनके तीर्थयात्री होने के कारण निशाना बनाया गया, तो यह यह जम्मू-कश्मीर पुलिस की ग़लती है (जो राज्य की भाजपा-पीडीपी सरकार को रिपोर्ट करती है), जिन्होंने रिपोर्टरों को यह बताया कि आतंकवादियों ने पहले पुलिस जीप पर गोलियां चलाईं और बाद में वहां से भागते हुए उन्होंने यात्रियों पर भी गोलियां बरसाईं.

लेकिन, इसके बावजूद मैंने मीडिया में ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं देखी, जिसमें यह कहा गया हो कि ये सात लोग दुर्घटनावश मारे गए, क्योंकि वे एक तरह की दोतरफा गोलीबारी में फंस गए. ट्विटर पर इनकार की मुद्रा में ऐसा कहनेवाले मुट्ठीभर कश्मीरी थे, जिन्हें उमर अब्दुला ने बिल्कुल सही फटकार लगाई. लेकिन हकीकत में वे दरअसल हिंदुत्व के उन समर्थकों के कश्मीरी भाई हैं, जो ये कहते हैं कि जुनैद की हत्या तो ‘महज’ ट्रेन की एक सीट के लिए हो गई. वे उस छोटे सी अल्पसंख्यक जमात के सदस्य हैं, जो नैतिक रूप से इतने भ्रष्ट हो चुके हैं कि उन्हें सुधारा नहीं जा सकता.

इसी तरह से मैंने ऐसी भी कोई मीडिया रिपोर्ट नहीं देखी जिसमें यह कहा गया हो कि ये बदकिस्मत लोग इसलिए मारे गए, क्योंकि वे ‘गुजराती’ थे या वे गुजराती लाइसेंस प्लेट वाली बस में यात्रा कर रहे थे. नहीं जनाब, मीडिया रिपोर्टों ने मारे गए लोगों की पहचान यात्रियों के तौर पर की, और इस बात को माना कि उन पर उसी रूप में गोलियां चलाई गईं और यह भी दर्ज किया कि साल 2000 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि आतंकवादियों ने हिंदू तीर्थयात्रियों पर इस तरह हमला किया.

वास्तव में ज़्यादातर मीडिया रिपोर्टों में इस बात को लेकर अटकलें भी लगाई गईं कि क्या ये हत्या कश्मीर में आतंकवादियों की नई पौध की करतूत है जो इस्लामिक स्टेट की विचारधारा से प्रभावित है. जो ग़ैर-मुस्लिमों को यहां तक कि सलाफी शिक्षाओं से विचलित होनेवाले मुस्लिमों को भी हत्या किए जाने लायक मानता है.

अमरनाथ तीर्थयात्रियों की हत्या की रिपोर्टिंग जिस तरह से की गई, उसे देखते हुए यह साफ नहीं है कि चेतन भगत, ‘किस तरह की ‘बराबरी’  देखना चाह रहे हैं? क्या वे इस बात से परेशान हैं कि मृतकों के लिए ‘हिंदू’ शब्द की जगह ‘यात्री’ शब्द प्रयोग किया गया, जबकि जुनैद की पहचान एक मुसलमान के तौर पर की गई न कि ‘ईद मनाने के लिए निकले’ एक नौजवान के तौर पर?  क्या अमरनाथ जा रहा कोई यात्री, हिंदू के अलावा और भी कोई हो सकता है?

उस रात जब किसी पाठक या दर्शक को यह बताया गया होगा कि कश्मीर में आतंकवादियों ने अमरनाथ यात्रियों की हत्या कर दी है, तो क्या उन्हें कोई संदेह हुआ होगा? क्या उन्हें इस बात को लेकर कोई शुबहा हुआ होगा कि मारे गए लोग हिंदू थे और उनकी हत्या सिर्फ हिंदू होने के कारण की गई?

तथ्य ये है कि भगत के ट्वीट से दिक्कत सिर्फ शब्द-प्रयोग को लेकर नहीं है. संभव है कि उन्होंने इसके बारे में सही तरीके से न सोचा हो या बचकाने ढंग से टाइम्स नाऊ  जैसे भड़काऊ चैनलों, जिसका संपादक खुद को ऑन एयर ‘हम हिंदू’ के तौर पर पेश करता है, के तर्कों को गटक लिया हो. लेकिन, ‘बर्ताव में बराबरी’ की अपनी ‘तथ्यपरक’ मांग से वे दरअसल एक ऐसे विचार को समर्थन दे रहे हैं, जिसके मुताबिक भारत में कोई भी हिंदुओं की परवाह नहीं करता है.

जिस विचार के मुताबिक, भीषण बहुमत में होने के बावजूद हिंदुओ के साथ भेदभाव होता है और उन पर अत्याचार किया जाता है. जो विचार यह कहता है कि भारत में हिंदू असुरक्षित हैं और उनकी हत्याएं की जा रही हैं, लेकिन उनके लिए आंसू बहानेवाला कोई नहीं है. मीडिया, पुलिस या सरकार उनको बचाने के लिए कुछ नहीं कर रहे, क्योंकि वे मुस्लिमों का ‘तुष्टीकरण’ करने में ही पूरी तरह से मसरूफ हैं.

वे मुस्लिम, जो अपने साथ ज्यादती होने का स्वांग रचते हैं, और हिंदुओं के सिर पर चढ़ कर बैठ गए हैं और वास्तव में हिंदुओं की तकलीफों की असली जड़ हैं. यह भी कि अल्पसंख्यको को सारे अधिकार मिले हुए हैं, बहुसंख्यकों के पास कोई अधिकार नहीं है.

निश्चित तौर पर दूसरे की मंशा पर गोल-मटोल बात करने की जगह हमें खरी-खरी बात करनी चाहिए. क्योंकि एक बार जब इस विचार में छिपी बड़ी साजिश का पर्दाफाश कर दिया जाएगा, तो कोई भी अपने अनुभव के आधार पर यह देख सकता है कि यह कितना मूखर्तापूर्ण है. यहां तक कि चेतन भगत की कहानियों के प्लॉट के हिसाब से भी!

मैं यहां सच्चर कमेटी द्वारा बेहतरीन तरीके से दिए गए आंकड़ों का कोई इस्तेमाल नहीं करने जा रहा हूं, जो हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर दिलाते हैं कि मुसलमान इतने ख़ुश नहीं हैं. आंकड़ों में गए बग़ैर बस चेतन भगत की ख्याली कहानी, जिसे वे हमें मनवाना चाहते हैं, के इन तीन विरोधाभासों पर गौर कीजिए.

प्रधानमंत्री मोदी ने मुस्लिम आतंकवादियों का शिकार हुए अमरनाथ यात्रा के हिंदू मृतकों पर एक के बाद एक तीन ट्वीट करने में पूरी तत्परता दिखाई. मैं इसके लिए उनकी प्रशंसा करता हूं, लेकिन मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं है कि आखिर उन्होंने आज तक हिंदू अपराधियों के मुस्लिम शिकारों के लिए एक भी ट्वीट क्यों नहीं किया है? जैसा कि शायद भगत कहते, ‘मैं किसी पर आरोप नहीं लगा रहा हूं. बस बराबरी के बर्ताव की मांग कर रहा हूं और तथ्यों की बात कर रहा हूं.’

अमरनाथ हमले में सही-सलामत बच गए यात्रियों को इस आश्वासन के साथ उनके घर भेज दिया गया कि इसके दोषियों की पहचान की जाएगी और उन्हें क़ानून के हवाले किया जाएगा. उन्हें इन सवालों से परेशान नहीं किया गया कि क्या वे उचित तरीके से अमरनाथ यात्रा श्राइन बोर्ड द्वारा रजिस्टर्ड थे और उनके पास सारे ज़रूरी परमिट आदि थे या नहीं!

एक बार फिर मैं पुलिस का शुक्रगुज़ार हूं कि उन्होंने उस तरह से व्यवहार किया जिस तरह से किसी भी सभ्य समाज में अधिकारियों को अपराध के पीड़ितों के साथ करना चाहिए. लेकिन, इसके उलट दादरी और अलवर में भीड़ द्वारा किए गए आतंकी हमले के मामले में बच गए मुस्लिमों पर ही मामला दर्ज किया गया जबकि हमला करनेवालों को जल्दी छुड़ाने के लिए भाजपा के सांसद और मंत्री तक जोर लगाते पाए गए.

इन हमलों में शामिल एक अपराधी, जिसकी डेंगू से मृत्यु हो गई, की अंत्येष्टि में एक मंत्री शामिल हुआ और उसे सम्मानित किया. उसके शव को राष्ट्रीय झंडे में लपेटा गया.

आखिर में, सबसे बड़े अंतर पर आते हैं. वही मीडिया (और ठीक वे ही एक्टिविस्ट) जो जुनैद की हत्या के बाद मुस्लिमों के लिए जीवन के अधिकार के पक्ष में दृढ़ता से खड़ा रहा और जिसने #नॉटइनमायनेम (#NotInMyName) के नारे तले रैलियां की, और जिसके बारे में चेतन भगत नुक्ताचीनी कर रहे हैं, वही अमरनाथ हत्याओं की निंदा करने और हिंदुओं के पूजा करने और जीवन के अधिकार पर जोर देने के लिए सड़कों पर उतरा.

मैं अब भी इस बात का इंतज़ार कर रहा हूं कि हिंदुत्व के कार्यकर्ता और साथी यात्री उन भारतीयों के जीवन के लिए भी थोड़ी-सी हमदर्दी दिखाएं जो उनके धर्म के नहीं हैं. वे मुसलमानों पर होनेवाले हमलों से जरा भी विचलित नहीं होते और हर बार जब उन्हें निशाना बनाया जाता है, तो वे किसी न किस्म का बहाना बनाते रहते हैं.

सच्चाई ये है कि जो लोग ईमानदारी से इंसानी ज़िंदगी की फ़िक्र करते हैं वे मुसलमानों और हिंदुओं में अंतर नहीं करते हैं. सिर्फ मुस्लिम चरमपंथी और उनके हिंदू भाई ही ऐसा अंतर करते हैं. और वे राजनेता जो हर हादसे को वोट बढ़ाने की संभावना के तौर पर देखते हैं.

एक हादसे के पीड़ितों को दूसरे हादसे के पीड़ितों के मुकाबले खड़ा करने और एक जैसे दो अपराधों में न्याय के साझे धागे को देखने की जगह, उसमें राजनीतिक रोटी सेंकने का मौका देखने के लिए एक ख़ास किस्म की बेशर्मी की दरकार होती है.

अख़लाक़, पहलू खान और जुनैद की हत्याओं को दर्ज करना, उनकी स्मृतियों को सम्मान देना और यह मांग करना कि उनके हत्यारों को सज़ा दी जाए, किसी भी तरह से 11 जुलाई को आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हुए अमरनाथ यात्रियों की मौत को कमतर नहीं बनाता.

तो मिस्टर भगत, सिर्फ इतना ही क्यों न कहा जाए?

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