पुलिस के आपराधिक कृत्यों के समान तरीकों पर उठने वाले सवालों को चुप कराने के लिए बार-बार उनके हतोत्साहित होने का डर दिखाया जाता है, लेकिन विडंबना है कि किसी हिस्ट्रीशीटर के थाने में घुसकर पुलिसकर्मियों की हत्या कर देने के बाद आज़ाद घूमने पर पुलिस के मनोबल की बात नहीं की जाती.
पहले विकास दुबे की जिंदगी और उसके बाद उसकी मौत सुर्खियों में छाई रही. पुलिस द्वारा एनकाउंटर में उसकी मौत ने सुप्रीम कोर्ट का ध्यान अपनी ओर खींचा है, जो एक जांच बैठाने के साथ ही कुछ असहज सवाल पूछने पर विचार कर रहा है.
इस सवाल को पीछे कर दें कि कोई एनकाउंटर फर्जी है या जायज, इसके जिम्मेदारों की मंशा पर सवाल उठाने या एक आपराधिक कृत्य के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने की कोई भी कोशिश भावनाओं का ज्वार पैदा करती है.
पुलिस के बचाव में खड़े होने वाले लोग मानवाधिकारवादियों और कानून-व्यवस्था के पैरोकारों के बीच के झगड़े की आग से खेलने से कभी बाज नहीं आते हैं.
दुबे के एनकाउंटर के बचाव में उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह का कहना है कि एनकाउंटर की पुलिसिया कहानी ‘ठोस भौतिक सबूत’ पर आधारित है कि दुबे एक खतरनाक अपराधी था, जिसके खिलाफ कानपुर में कोई भी पुलिस में शिकायत करने की हिम्मत नहीं करता था (जबकि हैदराबाद एनकाउंटर में मारे गए लोग पके हुए अपराधी नहीं थे).
इसका अर्थ है कि सिंह को लगता है कि दुबे को जो मौत मिली, वह उसके योग्य था, भले परिस्थिति पुलिस के दावे के अनुरूप हो या न हो.
सबसे अहम ढंग से सिंह ने पुलिस को अनवरत और बिना किसी शर्तों और सवालों के समर्थन देने की जरूरत की पुरानी हो चुकी बात दोहराई है- क्योंकि ऐसा नहीं करने से पुलिस का मनोबल गिरेगा.
इसलिए यह बहाना बनाया जाता है: पुलिस पर आपराधिक व्यवहार का आरोप लगाने और साबित होने पर उन्हें सजा देने की मांग करने से उनका मनोबल गिरेगा. इसलिए इस कारण नहीं कि वे बेकसूर हैं या वास्तव में उनके कृत्य जायज है, बल्कि उन्हें हतोत्साहित होने से बचाने के लिए किसी भी प्रकार के एनकाउंटर को लेकर कोई भी सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए.
इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हरीश साल्वे जैसे प्रतिष्ठित वकील को भी सुप्रीम कोर्ट के सामने, जो दुबे की हत्या की जांच की मांग को लेकर दायर की गई एक याचिका पर विचार कर रहा है, यही दलील पेश करने में कोई हिचक नहीं हुई.
साल्वे इस मामले में यूपी पुलिस की तरफ से केस लड़ रहे हैं. उन्होंने जजों से कहा, ‘यह न्यायिक हस्तक्षेप या न्यायिक अधिकारियों की सदस्यता वाली कमेटी के लायक मामला नहीं है. ऐसी किसी जांच से पुलिस का मनोबल गिरेगा.’
पुलिस द्वारा ऐसे तरीकों को अपनाने को लेकर, जो आपराधिक कृत्य के बराबर हों, उठने वाले सभी सवालों और आलोचनाओं को शांत कराने के लिए बार-बार पुलिस बल के हतोत्साहित होने का डर दिखाया जाता है.
यह डर दिखाया जाता है कि ऐसा करने से उसके मनोबल पर असर पड़ेगा जिससे नतीजा यह होगा कि वे समाज को अपनी सेवा देने के लायक नहीं रहेंगे और नागरिकों को अपराधियों और हत्यारों से बचाने वाला कोई नहीं रहेगा.
इसलिए अगर आपराधिक व्यवहार में बेलगाम बढ़ोतरी होती है और पुलिस बल इससे निपटने में सक्षम नहीं होती है, तो इसके लिए सवाल पूछने वाले और आलोचना करने वाले ही खुद जिम्मेदार होंगे.
कौन है उनके मनोबल को तोड़ने का जिम्मेदार?
पुलिस बल (साथ ही साथ अपने जीवन को दांव पर लगाकर नागरिकों की जान की हिफाजत करने के लिए जिम्मेदार अन्य बल) के मनोबल को निश्चित तौर पर बनाए रखा जाना चाहिए.
सवाल यह है कि उनके अक्सर हतोत्साहित और हताश महसूस करने के लिए आखिर कौन सी चीज जिम्मेदार है?
विकास दुबे की जिंदगी की कहानी इसका जवाब दे सकती है. सिंह ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि ‘कोई भी पुलिस स्टेशन में उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने या उसके खिलाफ गवाही देने की हिम्मत नहीं करता था.’
सवाल है कि आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? निश्चित तौर पर इसके लिए फुटकर मानवाधिकार कार्यकर्ता या जनहित याचिकाकर्ता जिम्मेदार नहीं हैं.
इस सूरते-हाल के लिए जिम्मेदार वो हैं जो अपनी जिम्मेदारियों को निभाने और न्याय सुनिश्चित कराने के संविधान द्वारा सौंपे गए कर्तव्य को पूरा करने में नाकाम रहते हैं: पुलिस, प्रशासन, न्यायपालिका और सरकार की कमान संभालने वाले लोग.
इससे पहले अपने आपराधिक जीवन में दुबे उन लोगों की मिलीभगत के कारण कामयाब हो पाया और खौफ का राज कायम कर पाया, जिन पर उस पर लगाम कसने और उसे सजा देने की जिम्मेदारी थी.
आज से काफी साल 1998 में जब वह अपराध की दुनिया में नया-नया कदम रख रहा था, उसे एक हत्या की कोशिश के एक मामले में गिरफ्तार किया गया था.
तब उसे लेकर आ रही पुलिस पार्टी पर उसके परिवार के सदस्यों और समर्थकों द्वारा हमला किया गया था. पुलिसकर्मियों को पीटा गया, कुछ की वर्दियां फट गईं और दुबे फरार हो गया.
पुलिस का इस तरह से अपमान करने के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा देने के लिए कुछ भी नहीं गया. इस अपमान ने निश्चित ही कई पुलिसकर्मियों का मनोबल तोड़ने का काम किया होगा.
खुद को बब्बर शेर समझकर दुबे ने आगे चलकर तत्कालीन भाजपा सरकार में मंत्री का दर्जा हासिल एक भाजपा नेता की दो पुलिसकर्मियों समेत हत्या कर दी.
उसे अविश्वसनीय तरीके से भाग जाने दिया गया और लगभग एक साल बाद उसने ‘सरेंडर’ किया. जिसके बाद पर माटी (कानपुर जेल) में दरबार लगाया करता था और आरोप है कि वहीं से वह हत्या समेत हर तरह के अपराध की साजिश रचता था.
आश्चर्यजनक ढंग से कोर्ट की हर सुनवाई के दिन, उसके समर्थक जिला अदालत के सामने एक बड़ा पंडाल लगाया करते थे, जो सैकड़ों लोगों से भरा होता था.
इनमें कई पूरी तरह से हथियारों से लैस होते थे और दुबे के खिलाफ गवाही देने के लिए आने वालों को गालियां दिया करते, ताने मारा करते थे.
जाहिर तौर पर यह सब पुलिस और न्यायपालिका की आंखों के सामने हुआ करता था. आश्चर्य नहीं कि सभी गवाह पूरी तरह से ‘हतोत्साहित’ हो गए, पुलिसकर्मी अपने बयानों से पलट गये और कुछ सालों में दुबे बरी हो गया.
इसका इससे पहले मारे गए दो पुलिसकर्मियों के परिवारों पर और उस पूरे थाने, जहां ट्रिपल मर्डर की घटना हुई थी, पर क्या असर पड़ा होगा, इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है.
दुबे के बरी होने के वक्त तक भाजपा की ही सरकार थी, लेकिन हाईकोर्ट में दायर की गई याचिका धूल ही खाती रही.
इन शर्मनाक कृत्यों के लिए जिम्मेदार सभी लोग उसी व्यवस्था का हिस्सा हैं, जिसने उन्हें बेकसूर लोगों की रक्षा करने और कुसूरवारों को सजा देने की शक्ति और प्राधिकार दिया है.
दुबे की शक्ति बढ़ती गई: हत्या, अपने गांव के आसपास की जमीन ही नहीं, बैंकॉक और दुबई तक में संपत्ति खड़ी करने और उद्योगपतियों को अविश्वसनीय कॉरपोरेट सफलता हासिल करने में मदद करने तक, वह कई कामों में शामिल रहा.
एक दशक पहले उसे जेल हुई थी और कई हत्याओं में से एक के लिए वह दोषी करार दिया गया था, लेकिन उसे पैरोल पर छोड़ दिया गया, जो उसकी मृत्यु के साथ ही खत्म हुआ.
खुद सुप्रीम कोर्ट ने इस पर हैरानी जाहिर की है और यूपी सरकार को इसका स्पष्टीकरण देने के लिए कहा है.
पैरोल पर छूटने के बाद से 2 जुलाई को वारदात की रात तक दुबे गांव की अपनी कोठी में सबकी पहुंच से बाहर था, जब सर्किल ऑफिसर देवेंद्र मिश्रा को आखिरकार दुबे को गिरफ्तार करने की इजाजत मिली. (वे एक हफ्ते से इसकी इजाजत मांग रहे थे).
मिश्रा को यह इजाजत कानपुर के नए एसएसपी ने दी, जिन्होंने बस दो दिन पहले कार्यभार संभाला था. इससे पहले मिश्रा आगे बढ़ने में समर्थ नहीं हो पा रहे थे.
स्थानीय थाने का थानाधिकारी, जो मिश्रा के मातहत काम करता था, वास्तव में दुबे से आदेश लिया करता था और पहले वाले एसएसपी ने भी सहमति नहीं दी थी.
इसे हर स्तर पर दुबे के रसूख का सबूत ही कहा जा सकता है कि उसका नाम राज्य क्या जिले के भी मोस्ट वांटेड लोगों की सूची में कभी नहीं आया. यहां तक कि उसके स्थानीय थाने में भी नहीं!
अगर ऐसा नहीं होता तो, एसएसपी ने उसकी गिरफ्तारी के लिए ज्यादा जवानों को लगाया होता और शायद पुलिसकर्मियों ने बुलेट प्रूफ जैकेट पहने होते है.
साफ है कि दुबे को काफी पहले ही उसके गांव में ही उसे गिरफ्तार करने के फैसले की सूचना मिल गई थी, संभवतः उसके स्थानीय थाने के थानाधिकारी से और बल के कुछ अन्य लोगों से.
इसका नतीजा सीओ मिश्रा समेत आठ बहादुर जवानों की क्रूर हत्या के तौर पर सामने आया. राज्य पुलिस बल के किसी भी स्वाभिमानी सदस्य के लिए इससे ज्यादा हताशाजनक और कुछ नहीं हो सकता.
इस बर्बर हत्या के एक दिन बाद, सैकड़ों पुलिसकर्मी दुबे के गांव में तैनात कर दिए गए थे. उनकी कई तस्वीरों दैनिक अखबारों में भी आईं. उन्हें टीवी चैनलों पर भी अनगिनत बार दिखाया गया.
उनमें से कई गुस्से और क्षोभ के आंसू बहा रहे थे, तो कई अन्य उदास और बेशक हतोत्साहित थे. एक सप्ताह के बाद दुबे पुलिस के हाथों मार जा चुका था. उसके साथ सौदों और सौदोबाजों के कई राज भी दफ्न हो गए.
कइयों ने राहत की सांस ली- उन्होंने भी जिस पर उसने अत्याचार किया था और उन्होंने भी जिनके साथ वह काम करता था.
ऐसे कई लोगों द्वारा, जो नियमित तौर पर एक हतोत्साहित पुलिस बल के खतरे को लेकर आगाह करते रहते हैं, उसकी मौत को अपराध के ऊपर जीत और मनोबल बढ़ाने वाले के तौर पर पेश किया गया.
उनमें से किसी ने भी हालांकि कभी भी इस तथ्य पर टिप्पणी नहीं की है कि इंस्पेक्टर सुबोध सिंह की हत्या के सात आरोपियों को छह महीने जेल में बिताने के बाद फूलमाला पहनाकर दल-बल के साथ बाहर निकाला गया.
यह किया गया पुलिस की उपस्थिति मे, जिनमें से कुछ ने सुबोध सिंह को मरते हुए देखा होगा. कुछ दिन पहले हत्या के मुख्य आरोपी शिखर अग्रवाल को प्रधानमंत्री की कल्याण योजनाओं के जागरूकता अभियान का महासचिव नियुक्त किया गया और उनका अभिनंदन एक भाजपा नेता द्वारा किया गया.
अब दुबे की जिंदगी और उसकी मृत्यु को लेकर अनेक जांच की जा रही हैं और उसके साधारण गांव से उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्य की सत्ता के गलियारों को जोड़ने वाले अनेक और अनंत धागों को सुलझाने के लिए काफी मशक्कत की जा रही है.
लेकिन उसके जैसे दूसरे कई लोग उसकी मौत के बाद पैदा हुई खाली जगह को भरने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं. वे उसके नक्शेकदम पर चलने के लिए कृतसंकल्प हैं और उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि इस रास्ते पर उनकी मदद वे लोग करेंगे, जिन्होंने दुबे की की थी.
(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य हैं.)
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