क्या देश और सरकार के लिए सत्य भी राम नाम की तरह पवित्र है

वह देश और उसकी जनता कितने दुर्भाग्यशाली होते होंगे, जिनकी चुनी हुई सरकार ही उनसे सच छिपाती फिरे. जहां राम नाम सत्य है कहा जाता होगा, पर उसका अर्थ गहरा और पवित्र नहीं होता होगा.

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राम मंदिर भूमि पूजन समारोह में योगी आदित्यनाथ के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

वह देश और उसकी जनता कितने दुर्भाग्यशाली होते होंगे, जिनकी चुनी हुई सरकार ही उनसे सच छिपाती फिरे. जहां राम नाम सत्य है कहा जाता होगा, पर उसका अर्थ गहरा और पवित्र नहीं होता होगा.

राम मंदिर भूमि पूजन समारोह में योगी आदित्यनाथ के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)
राम मंदिर भूमि पूजन समारोह में योगी आदित्यनाथ के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. (फोटो साभार: पीआईबी)

जो सबटेक्स्ट है, उसे लेकर चैनलों का प्राइम टाइम उड़ जाएगा. जो इस वक्त की हेडलाइन होनी चाहिए थी, वह हाशिये पर अपनी प्रासंगिकता के लिए तड़पती और दम तोड़ती पाई जाएगी.

आप देख सकते हैं कि मुख्यधारा के मीडिया प्लेटफॉर्म किस तरह से सिया और जय श्री के बीच के बारीक अंतर का गुब्बारा फुला-फुलाकर बेदम हुए जा रहे थे.

अगर सच और समय की परवाह होती, तो इस वक्त कश्मीर पर पाबंदियों के एक साल की बात की जाती. वहां के लोगों, सेवाओं, पाबंदियों, गिरफ़्तारियों, कारोबार और राजनीति की बात की जाती.

बताया जाता कि कैसे कश्मीर के लोगों को मुख्यधारा में लाया गया, कैसे कश्मीर में पूंजी निवेश की बाढ़ लग गई, कैसे विकास, समृद्धि और सुविधाओं की बाढ़ वहां लग गई.

कैसे अमन, चैन, सुख, आनंद में डूबे हुए कश्मीरी लोग सरकार को जी भर कर दुआएं देते नहीं थक रहे. अगर परवाह होती तो लद्दाख की बात की जाती. वहां चीन की घुसपैठ की.

सच की अगर सच में परवाह होती, तो कोरोना के कायदे तोड़ रहे अयोध्या के लोगों के बारे में भी उतने ही ज़हर बुझे तरीके से बात की जाती, जितनी तब्लीग़ी जमात के लोगों के बारे में की गई थी.

भूमिपूजन के अगले ही दिन कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या भारत में 20 लाख पार कर गई और दुनिया में रोज जितने लोगों को संक्रमण हो रहा है, उसकी एक चौथाई से ज्यादा तादाद हिंदुस्तानियों की है.

भारत पर एक साथ तीन तरफ से चुनौतियां आई हैं, सामरिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के मोर्चे पर. परवाह होती तो, हमारा एजेंडा तय करने वाले अपनी प्राथमिकता, महत्व और वजन उन चीजों को देते, जिनसे भारत के लोगों की ज़िंदगी सीधे सीधे प्रभावित हो रही है.

मसलन, भूमि पूजन के अगले ही दिन रिज़र्व बैंक ने हाथ खड़े कर दिए और कह दिया अब इस साल जीडीपी की वृद्धि नकारात्मक रहने वाली है.

भूमि पूजन के अगले ही दिन भारत का रक्षा मंत्रालय सार्वजनिक तौर पर वह मान लेता है, जिसे देश के प्रधानमंत्री मानने को तैयार नहीं हैं. बाद में रक्षा मंत्रालय इस सूचना को हटा लेता है. या तो रक्षा मंत्रालय सच बोल रहा है या देश का प्रधानमंत्री.

सच या प्रधानमंत्री में से किसका लिहाज किया जा रहा है, अयोध्या में भूमि पूजन के अगले ही दिन साफ हो जाता है.

अभी शायद कोई न पूछे कि अयोध्या में दंडवत होता व्यक्ति देश से साफ-साफ क्यों नहीं बोल पा रहा? ज़बान लड़खड़ाना एक बात है, ख़ामोशी अख़्तियार करना दूसरी.

पर ये सवाल आप लोगों के ज़हन में आने और घूमने से कैसे रोक सकते हैं. जैसे ये सवाल मोबाइल फोन से टिकटॉक और दूसरी चीनी ऐप हटाने वाले नौजवान भारतीय के ज़हन में क्या नहीं आएगा कि वह रोक पीएम केयर्स  में चंदा देने वाली कंपनियों और क्रिकेट जैसे टाइमपास की स्पॉन्सरशिप के लिए कैसे ठीक है, और उसके लिए नहीं.

अगर हल्ला न होता तो चीनी कंपनी को मुख्य प्रायोजक के बतौर कहां हटाया जा रहा है. जो चैनल देशभक्ति का आल्हा- ऊदल करते हुए तमाशा खड़ा किए हुए हैं, उन्हें भी कहां गुरेज है चीनी कंपनियों के विज्ञापन लगाने से.

जिन घरों के फौजी बेटों को गलवान की जमीन पर हाथापाई के दौरान शहादत मिली, हम कैसे उनके ज़हन में इस सवाल के आने और घर करने से रोक सकते हैं कि उनकी शहादत को लेकर सरकार कितनी गंभीर हैं.

और खुद रक्षा मंत्रालय भी, जब वे एक सूचना भी तसल्लीबख़्श तरीके से जारी नहीं कर पा रहे हैं.

जिस देश के लिए अपनी जान हथेली पर लड़ने गए थे, उसी के दुश्मन की कंपनियों के पैसे से हम देश का ख़्याल भी रखने वाले हैं और उसका मनोरंजन भी करेंगे.

जिस देश के लिए उन्होंने जान की बाज़ी लगाई और जान दी, उनका मंत्रालय और उनकी सरकार ये मानने को तैयार नहीं हो पा रहा है कि घुसपैठ हुई है.

अगर कुछ हुआ ही नहीं, तो उन बहादुर जवानों और उनके अफसर की शहादत भी किसलिए थी. इस बीच ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि तनाव किसी भी तरह कम हो.

तो जब अगली बार हमारे सैनिक गलवान जैसी किसी हालात से दो-चार होते हैं तो उनका जोश और जुनून कैसा होगा. वे अपनी खाल बचाती सरकार को देखें और अपनी जान दांव पर लगा दें.

या फिर याद रखें कि खुद उनका प्रधानमंत्री और मंत्रालय ही वारदात के महीने भर बाद तक अपना वक्तव्य ठीक से बना नहीं सका है.

टिकटॉक और दूसरी ऐप हटाना एक तरह का सबटेक्स्ट है. पर त्याग और बलिदान की जब भी बारी आएगी, तो लोगों और जवानों की आएगी. सरकार और उसके प्रश्रय के लोगों की नहीं.

हेडलाइन यहां पर है, जिसे देश जानता है. और वह ये तमाशा देख रहा है.

एक तरफ लोकतंत्र है, संविधान हैं, अधिकार और कर्तव्य हैं और इन्हीं में से सवाल हैं जो निकलकर आते हैं. जो एक सेहतमंद समाज अपनी सरकार से पूछ सकता है.

पर एक लोकतंत्र में जब सरकार सच बोलने से बचने लगे, वस्तुस्थिति को ख़ारिज करने लगे, आंकड़ो को छिपाने लगे, आवाजों को दबाने लगे, अदालतों में टलने लगे, असहमति से बिदकने लगे तो ये समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं है कि लक्षण शुभ नहीं हैं.

और ये किसी नेता से ज्यादा उस व्यवस्था, प्रणाली, प्रक्रिया को संदिग्ध बनाती है, जहां इस तरह की ज़्यादतियों पर सवालों को जगह मिलनी कम होने लगती है.

यूरोपीय और विश्व मामलों की लेखक और पत्रकार एन एपलबॉम हाल ही के एक लेख में बताती हैं कि कई बार सरकारें इस लिए ही झूठ नहीं बोलतीं कि उन्हें सच से कोई दिक्कत है. बल्कि ये बताने के लिए भी बोलती हैं, कि वे जो चाहे कर सकती हैं. उन झूठों के ज़रिये वे अपनी जनता से ये बताने की कोशिश कर रही हैं कि उखाड़ लो, जो उखाड़ना है, तुम हमारा कुछ नहीं कर सकते.

एपलबॉम इसमें रूस, पूर्वी जर्मनी, स्लोवाकिया और फिर अमेरिकी राष्ट्रपति का ज़िक्र करती हैं. वह इतिहास से उन चरित्रों को भी रेखांकित करती हैं, जो इन ज़्यादतियों के खिलाफ खड़े हो तो सकते है, पर सुविधा या भय के कारण नहीं हुए.

जब असहमतियां मौन में बदल जाती हैं और मौन को सहमति की तरह पढ़ा जाने लगता है. नौकरशाही, कॉरपोरेट, मीडिया, और न्यायपालिका. लचर व्यवस्थाएं इस तरह से अपने गंतव्य तक पहुंचती हैं.

चतुराई और धूर्तता को विवेकवान बुद्धिमत्ता की तरह देखे जाना लगता है. ये प्रवृत्ति किसी भी सरकार में दिखने लगती है, जिसे किसी चुनौती का कोई खतरा नहीं होता.

तब वह लोकतांत्रिक जनादेश को बजाय एक औजार के एक हथियार में बदलने लगती है और निरंकुश हो जाती है. खामियाजा लोकतंत्र को ही भुगतना पड़ता है.

श्रीकांत वर्मा की मगध संग्रह की एक कविता ‘हस्तक्षेप’ की आखिरी पंक्तियां हैं-

कहीं नहीं रुकता हस्तक्षेप –
वैसे तो मगधनिवासियों
कितना भी कतराओ
तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से –
जब कोई नहीं करता
तब नगर के बीच से गुजरता हुआ
मुर्दा
यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है –
मनुष्य क्यों मरता है?

भारत बतौर सामाजिक सौहार्द, समुदाय, अर्थव्यवस्था, लेबर फोर्स, शिक्षा संस्थान, न्याय-व्यवस्था, कानून, संविधान जिस मोड़ पर ले जाकर खड़ा कर दिया गया है, उसका राम ही मालिक है.

वह देश और उनकी जनता कितने दुर्भाग्यशाली होते होंगे जिनकी चुनी हुई सरकार ही उनसे सच छिपाती फिरे. जहां राम नाम सत्य है कहा जाता होगा, पर उसका बहुत और गहरा और पवित्र मतलब नहीं होता होगा.

हालांकि इस भूमिपूजन के बाद हमारा नक़्शा कुछ बेहतर होगा, इसकी संभावना भी कम है. राम नाम सत्य तो है, पर क्या सत्य नाम भी राम है?

सीता. लक्ष्मण. हनुमान. परशुराम. शबरी. केवट. वशिष्ठ. सुग्रीव. देश. धीरे से सब फोटोशॉप होते फ्रेम से बाहर होते चले जाएंगे. एक ही बचेगा. अपनी कहानी से बाहर. अपने चरित्रों से दूर. अधूरा. हमारी उदासियों में जीवित.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)