देश का इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर पैसे के लिए मोहताज है, लेकिन सरकार हवाई क़िले बनाकर देश को इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के एक्सप्रेस-वे पर दौड़ाने का स्वांग रच रही है. कृषि क्षेत्र के इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए एक लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान इसी स्वांग का हिस्सा है.
देश में इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर की फंडिंग के लिए आरबीआई की ओर से हाथ खड़े कर दिए जाने के चंद दिन बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि क्षेत्र में नई बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के लिए एक लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान कर दिया.
रिजर्व बैंक (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास ने कहा था कि बैंकों का एनपीए इतना बढ़ गया है कि अब इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर की परियोजनाओं को पैसा देना इनके बूते की बात नहीं है. देश में सड़क, रेल, बिजली और रिफाइनरी जैसी तमाम इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के लिए नए रास्ते खोजने होंगे. यानी पैसा सीधे बाजार से उठाना होगा.
यह कोई नई बात नहीं है. नई बात यह है कि सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये के पैकेज से इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर की हकीकत पर पर्दा डालने की कोशिश की है.
अर्थशास्त्र की बेसिक समझ रखने वाला शख्स भी यह जानता है कि जब अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) को सरपट दौड़ाना होता है तो इंफ्रास्ट्रक्चर में पैसा झोंका जाता है. एक लाख करोड़ रुपये का पैकेज देकर सरकार लोगों को यही बताने की कोशिश कर रही है कि बीमार इकोनॉमी की दवा के लिए उसके पास पर्याप्त पैसे हैं? लेकिन क्या यह सच है?
सच तो यह है कि बैंक पहले से ही एनपीए के बोझ से कराह रहे हैं. इसके बावजूद एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए एक लाख करोड़ के जिस पैकेज का ऐलान किया गया है, उसका भी भार सार्वजनिक बैंकों पर डाल दिया गया है. अब तक 12 में से 11 बैंक सरकार की ओर से घोषित इस पैकेज के तहत कर्ज देने की सहमति पत्र पर हस्ताक्षर कर चुके हैं.
एक आम आदमी को एक लाख करोड़ रुपये का पैकेज बहुत बड़ा लग सकता है. प्रधानमंत्री जिस तरह से किसी योजना के ऐलान को इवेंट बनाते हैं उससे तो यही लगेगा कि इतने ‘बड़े’ पैकेज से कृषि क्षेत्र में बस ‘क्रांति’ होने ही वाली है.
लेकिन हकीकत यह है कि 2025 तक के लिए बनाए गए नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) को ही 111 लाख करोड़ रुपये की जरूरत है. आप समझ सकते हैं कि उसके सामने एक लाख करोड़ रुपये की क्या औकात है?
एनआईपी की परियोजनाओं के लिए पैसा कहां है?
पिछले कुछ वर्षों से देश का इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर पैसे के लिए बुरी तरह तरस रहा है. दूसरी ओर, बैंकों के फंसे कर्ज की वजह से आरबीआई पनाह मांग रहा है.
अंतरराष्ट्रीय विकास एजेंसियों के पास देने के लिए पैसे नहीं हैं और देश में इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के लिए पैसे जुटाने का हमने अब तक कोई मजबूत ढांचा विकसित नहीं किया है.
देश में इस सेक्टर की फंडिंग के लिए जो दो-चार वित्तीय संस्थान हैं, उनके पास इतना पैसा नहीं है कि वे लंबे वक्त की परियोजनाओं की फंडिंग कर सकें.
एशियन डेवलपमेंट बैंक (एडीबी) की रिपोर्ट ‘मीटिंग एशियाज इंफ्रास्ट्रक्चर नीड्स’ (Meeting Asia’s infrastructure needs) के मुताबिक 2030 तक भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर को 4.36 ट्रिलियन डॉलर (43.6 खरब डॉलर) की जरूरत पड़ेगी, जो हमारी मौजूदा जीडीपी का लगभग डेढ़ गुना है.
देश 2025 तक पांच ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी बनने का सपना संजोए हुए है.
हाईवे, एक्सप्रेस-हाईवे, बिजली, रिफाइनरी, रेलवे, एयरपोर्ट, पब्लिक ट्रांसपोर्ट, डिजिटल और इन्फॉर्मेशन सुपर हाईवे औैर स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के बगैर इसका पूरा होना मुश्किल है.
इस सपने को पूरा करने के लिए सरकार पिछले साल दिसंबर में नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन नाम की एक बेहद महत्वाकांक्षी योजना ले आई.
2025 तक इसकी परियोजनाओं पर 111 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का इरादा है. एनआईपी की परियोजनाओें के लिए फंडिंग का जो फॉर्मूला तैयार किया गया उसके तहत 39-39 फीसदी पैसा केंद्र और राज्य सरकारें देंगीं. बाकी 22 फीसदी फंडिंग प्राइवेट सेक्टर करेगा.
एनआईपी की फंडिंग का जो फॉर्मूला बनाया गया है, उसे देख कर इस बात का बखूबी अंदाजा हो जाता है कि मौजूदा माहौल में इसके तहत फंड जुटाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा.
सरकार ने हकीकत से आंखें मूंद कर इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के लिए पैसा जुटाने का जो दम भरा है, उसे खुद उसके ही आर्थिक सर्वे ने आईना दिखा दिया है. साल 2019-20 के आर्थिक सर्वे में साफ कहा गया कि 111 लाख करोड़ रुपये का फंड जुटाना लगभग असंभव काम है.
इंफ्रास्ट्रक्चर फंडिंग की बदहाली और हवाई किले
केंद्र सरकार की कमाई लगातार कम होती जा रही है. कोरोना संक्रमण ने हालत और खराब कर दी है. अप्रैल-जून तिमाही में जीएसटी कलेक्शन 41 फीसदी घटकर 1.85 लाख करोड़ रुपये रह गया.
इस हिसाब से लगता नहीं है कि इस साल 7 लाख करोड़ रुपये का जीएसटी कलेक्शन का लक्ष्य पूरा हो पाएगा. राज्यों की हालत तो और खराब है.
एक तो वे भारी कर्ज से दबे हैं, ऊपर से केंद्र उन्हें जीएसटी का हिस्सा नहीं दे पा रहा है. राज्यों का कर्ज इस साल साढ़े आठ लाख करोड़ रुपये तक पहुंच जाने का अनुमान है.
कोरोना संक्रमण से अप्रैल में ही देश के 21 राज्यों की कमाई को 97 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हो चुका है. यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि राज्यों को अपने राजस्व का 43 फीसदी केंद्र से मिलता है. बाकी 57 फीसदी का इंतजाम वे खुद करते हैं.
साफ है कि जब केंद्र के पास पैसा नहीं है तो राज्यों को कहां से मिलेगा. केंद्र सरकार जीएसटी में कमी की भरपाई पेट्रोल-डीजल पर टैक्स बढ़ाकर करना चाहती है लेकिन जब आर्थिक गतिविधियां ही परवान नहीं चढ़ रही हैं तो फिर भला पेट्रोल-डीजल कितना खर्च होगा और सरकार इस पर टैक्स लगा कर कितना कमा लेगी?
इन हालातों में यह साफ है कि एनआईपी परियोजनाओं के लिए केंद्र और राज्य के 39-39 फीसदी निवेश का जो फॉर्मूला तय किया गया है वह किसी भी हालत में हकीकत में तब्दील नहीं होने वाला है.
भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के लिए प्राइवेट निवेश का क्या हाल है यह भी किसी से छिपा नहीं है. जमीन अधिग्रहण की दिक्कतें, पर्यावरण मंजूरी में देरी, कानूनी अड़चनें और परियोजनाओं के राजनीतिकरण ने इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में पीपीपी मॉडल का बुरा हाल कर दिया है.
देरी होने की वजह से परियोजनाओं की बढ़ी लागतों ने निजी निवेशकों को बिदका दिया है.
दूसरी ओर, भारत में बॉन्ड मार्केट अभी घुटनों को बल चल रहा है. ले-देकर परियोजनाओं के बड़े निवेशकों में एलआईसी नजर आती है, लेकिन उसे भी हाई रेटिंग बॉन्ड में ही निवेश की इजाजत है.
अभी के हालात ऐसे हैं कि सरकारी बॉन्ड के रिटर्न में भी कटौती की जा रही है. फिर इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के बॉन्ड पर कितना भरोसा होगा.
इसलिए इंफ्रास्ट्रक्चर फंडिंग के इस रास्ते से कोई उम्मीद नहीं दिखती. नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर इनवेस्ट फंड (एनआईआईएफ) नाम के जिस अर्ध संप्रभु हेल्थ फंड को खड़ा करने की कोशिश की जा रही है, उससे भी फिलहाल किसी बड़ी फंडिंग की उम्मीद नहीं है. यह वेल्थ फंड अभी मैदान में जमने की ही जद्दोजहद में लगा है.
इन हालातों से साफ है कि देश का इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर पैसे के लिए किस कदर मोहताज है. लेकिन सरकार हवाई किले बना कर देश को इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के एक्सप्रेस-वे पर दौड़ाने का स्वांग रच रही है.
कृषि क्षेत्र के इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए एक लाख करोड़ रुपये के पैकेज का ऐलान इसी स्वांग का हिस्सा है. इस सरकार को अभी ऐसे ही कुछ और स्वांग रचने होंगे, क्योंकि पहले नोटबंदी और फिर रातो-रात जीएसटी लागू करने की बेताबी जैसी भारी गलतियों को यह शायद ही कभी स्वीकार करेगी.
भारतीय अर्थव्यवस्था अब एक क्लासिक दुश्चक्र की शिकार बनकर रह गई है. घटते आर्थिक संसाधन बेरोजगारी बढ़ा रहे हैं. बढ़ी हुई बेरोजगारी से मांग और खपत घट रही है.
इस वजह से देश में विशाल कंपनियां खड़ी नहीं हो पा रही हैं जो सरकार को इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए टैक्स दे सकें.
न जनता के पास पैसा है और न कॉरपोरेट के पास. सरकार किस पर टैक्स लगाएगी और कहां से पैसा जुटाएगी. इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए बड़े-बड़े मंसूबे बांधने वाले हमारे नीति-निर्माता शायद इस सीधे-सादे गणित को भूल गए हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)