मुख्य आर्थिक सलाहकार आश्वस्त कर रहे हैं कि सरकार के पास भविष्य में सही समय पर जारी करने के लिए काफी संसाधन हैं. लेकिन सौ सालों में एक बार आने वाले आर्थिक संकट का सामना कर रही अर्थव्यवस्था के पास बस एक ही चीज़ की किल्लत होती है और वह है समय.
वित्त वर्ष 2021 की पहली तिमाही में 23.9 फीसदी की गिरावट के साथ जीडीपी वृद्धि दर जिस तरह से गर्त में गिर गई है, उसने यह जाहिर कर दिया है उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भारत सबसे खराब प्रदर्शन कर रहे देशों के साथ खड़ा है.
चीन ने इस अवधि में सकारात्मक वृद्धि (3.2 फीसदी) दर्ज की है. इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया, फिलिपींस, रूस, थाईलैंड जैसी अर्थव्यवस्थाओं में 3 से 12 फीसदी के बीच का नकारात्मक विकास दर्ज किया गया है.
वास्तव में ऐसी कोई समकक्ष अर्थव्यवस्था नहीं है, जहां गिरावट भारत जैसी तेज रही हो.
प्रधानमंत्री मोदी ने जुलाई के मध्य में यह दावा किया था कि वैश्विक महामारी से आर्थिक तौर पर उबरने में भारत की रफ्तार सबसे तेज रहेगी. शायद उनका अनुमान रबी की अच्छी फसल और खरीफ की बुआई के क्षेत्रफल में इजाफ़े पर आधारित था.
हालांकि पहली तिमाही में कृषि उत्पादन 3.4 प्रतिशत की दर से बढ़ा, लेकिन यह सेवा क्षेत्र (-27%) और विनिर्माण (-39.3%) क्षेत्र की तबाही की भरपाई करने के लिए कहीं से भी काफी नहीं था.
सेवा क्षेत्र के भीतर निर्माण एक बड़ा हिस्सा है, जो रोजगार-प्रधान क्षेत्र भी है, इसमें 50% की गिरावट देखने को मिली.
उभरते हुए बाजारों में विकास और रोजगार में निर्माण क्षेत्र का एक बड़ा योगदान है. एक बेहद कठोर लॉकडाउन में भारत ने जो बहुत बड़ी गलती की वह यह कि इसने निर्माण की पूरे तंत्र को, जिसमें दिहाड़ी मजदूरों की भलाई भी शामिल है, धराशायी होने दिया.
यह भारत को साथी देशों से अलग करता है, जिनमें सख्त लॉकडाउन लगाए गए थे, मगर जिन्होंने निर्माण की गतिविधि को चालू रहने दिया. खासतौर पर सड़कों, मेट्रो, पुलों और आवासीय परियोजनाओं को.
लोगों के हाथ में सीधे पैसे पहुंचाने के तौर पर बड़े पैमाने की प्रत्यक्ष राजकोषीय मदद ने भी जीडीपी के धड़ाम होने के झटके को कम करने में इन अर्थव्यवस्थाओं की मदद की.
कुल मिलाकर भारत एक ऐसे बिंदु पर है, जहां अर्थव्यवस्था वापसी के सबसे कमजोर संकेत दे रही है और इस बीच कोरोना के नए संक्रमणों की संख्या हमारे यहां दुनियाभर में सबसे ज्यादा है.
भारत की तुलना में चीन ने इस संकट का सामना काफी रणनीतिक तरीके से किया है और रॉयटर्स की एक हालिया रिपोर्ट का कहना है कि चीनी अधिकारियों ने अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र की सर्वोपरि भूमिका को समझ लिया और यह सुनिश्चित किया कि यह पूरी तरह से बंद न हो.
ऐसे में यह ज्यादा हैरानी की बात नहीं है कि चीन के लिए ताजा पीएमआइ आंकड़ों में विनिर्माण की तुलना में सेवाओं में कहीं ज्यादा गति से बढ़ोतरी हो रही है.
अगली दो तिमाहियों को लेकर चिंता
वित्त मंत्रालय में मुख्य आर्थिक सलाहकार ने यह तर्क दिया है कि अगस्त महीने में कुछ उच्च आवर्ती सूचकांक (हाई फ्रीक्वेंसी इंडीकेटर्स) संभावित वी आकार की उछाल का संकेत दे रहे हैं. लेकिन वे अब भी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि क्या अगली दो तिमाहियों में भारत की जीडीपी वृद्धि दर सकारात्मक यानी शून्य से ऊपर आयेगी या नहीं.
यह चिंताजनक है. कॉरपोरेट सेक्टर के मुखिया भी इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हैं कि उनका उत्पादन कोविड-19 से पहले के स्तर पर लौट आएगा.
भारत की सबसे बड़ी फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स (एफएमसीजी) कंपनी हिंदुस्तान यूनीलीवर के प्रमुख ने एक बिजनेस चैनल को कहा कि वे इस बात का इंतजार करेंगे कि त्योहारों के मौसम के बाद साल के अंत की तरफ वास्तविक अंतर्निहित मांग कैसी शक्ल लेती है?
वे इस बात पर भरोसा जताने के लिए तैयार नहीं थे कि निकट भविष्य में उत्पादन कोविड-19 पूर्व स्तर पर लौट आएगा. जमीनी हालात कैसे हैं, इसका अंदाजा उन कंपनियों से लगता है जो उपभोक्ताओं से सीधे संपर्क में हैं.
पूंजीगत वस्तुओं (कैपिटल गुड्स) के अग्रणी उत्पादक थरमैक्स के मैनेजिंग डायरेक्टर एमएस उन्नीकृष्णन ने हाल ही में एक भविष्य का काफी अनुमान देने वाली बात कही.
उन्होंने कहा कि अभी तक राज्य सरकारों द्वारा पूंजीगत वस्तुओं और मशीनरी का ऑर्डर देने का कोई संकेत नहीं है.
उनके इस बयान को कई मुख्यमंत्रियों के उस बयान के साथ पढ़ा जाना चाहिए कि वे समवेत स्वर में कह रहे हैं कि वेतन देने और स्वास्थ्य संबंधी खर्चों जैसे बुनियादी चालू खर्चे को पूरा करने के लिए वे अपने विकासात्मक या पूंजीगत खर्चे को कम कर रहे हैं.
मेरी नजर में यह दीर्घावधिक मंदी का सबब बन सकता है क्योंकि अब तक कोविड-पूर्व दौर में भारत की जीडीपी में जो भी बढ़ोतरी दर्ज की गई थी, वह मुख्य तौर पर सरकारी खर्चे की बदौलत थी.
और अब इसमें भी सिकुड़न आ गई है, क्योंकि अप्रैल-जून तिमाही के बजट अनुमान की तुलना में सरकार का राजस्व 50 फीसदी से ज्यादा कम हो गया है. जीएसटी परिषद का संकट की इस परिघटना का प्रदर्शन करता है.
हम हम शहरी और अर्ध शहरी उपभोग में भारी गिरावट का सामना कर रहे हैं और निजी निवेश के रफ्तार पकड़ने का कोई संकेत नहीं है.
पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में 47 फीसदी की गिरावट सबसे ज्यादा भयावह है.सिर्फ सरकार द्वारा बुनियादी ढांचे में युद्ध स्तर का खर्च पूंजीगत वस्तुओं के क्षेत्र को फिर से खड़ा कर सकता है.
मोदी द्वारा काफी बाजे-गाजे के साथ 15 अगस्त को बुनियादी ढांचे पर जो 100 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का ऐलान किया गया था, वह कहां है?
जमीन पर हालात यह है कि इस साल राजस्व में कमी आने की वजह से विकासात्मक खर्चों में कटौती हुई है और सरकार के पास बस वेतन देने और पुराने कर्जों के ब्याज चुकाने भर पैसे ही हैं.
अर्थव्यवस्था भावना और गति पर काम करती है
मुख्य आर्थिक सलाहकार ने हमें आश्वस्त किया है कि सरकार के पास भविष्य में सही समय पर जारी करने के लिए काफी संसाधन हैं.
लेकिन 100 सालों में एक बार आने वाले आर्थिक संकट का सामना कर रही अर्थव्यवस्था के पास बस एक ही चीज की किल्लत होती है और वह है समय.
इस तरह के संकट का सामना चरणों में नहीं किया जा सकता, क्योंकि अर्थव्यवस्था भावना और गति पर काम करती है.
अगर भावना और गति कमजोर पड़ती है तो समय बीत जाने के बाद चाहे कितने भी मौद्रिक उपाय कर लिए जाएं, वे मनोबल को उपर उठाने में कामयाब नहीं हो पाएंगे.
मोदी को यह भी दिमाग में रखना चाहिए कि उन्होंने पहले ही पिछले पांच सालों में बेहद गंभीर गलतियां की हैं. उनके पास उन गलतियों के दुष्परिणामों से निपटने का अतिरिक्त बोझ भी है, जिन्होंने भारत की लघु और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को नष्ट कर दिया है.
शेयर बाजार की निर्बाध छलांग बड़ी कंपनियों से जुड़ी हुई हैं- वे संभावित एकाधिकारवादी कंपनियां (ओलिगोपोली) हैं- जो बड़ी होती जाएंगी, लेकिन रोजगार सृजन में उनका कोई योगदान नहीं होगा, जो ज्यादातर लघु और अनौपचारिक क्षेत्र से आता है.
अगर मोदी अतीत की अपनी बड़ी गलतियों पर आंख मूंदने का फैसला करते हैं, तो वे इतिहास में भारत की लघु अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने वाले प्रधानमंत्री के तौर पर दर्ज होंगे.
जीडीपी वृद्धि, रोजगार, बचत/निवेश या किसी भी अन्य प्रमुख आर्थिक संकेतक को लें, मोदी के राज में भारत एक अपवाद रहित और तेज गिरावट को देख रहा है. अंत में शायद यही उनकी पहचान बन कर रह जाए.
जाहिर है, प्रधानमंत्री ‘सब चंगा सी’ रवैये के साथ इस संकट का सामना नहीं कर सकते हैं.
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