रामनाथ कोविंद और देश की दलित राजनीति का सच

जिस समय रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया जा रहा है उस समय देश में दलित राजनीति ढलान की तरफ है.

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जिस समय रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया जा रहा है उस समय देश में दलित राजनीति ढलान की तरफ है.

The Prime Minister, Shri Narendra Modi congratulates the President-elect, Shri Ram Nath Kovind, in New Delhi on July 20, 2017. (DPA-PTI7_20_2017_000003)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ रामनाथ कोविंद. (फोटो: पीटीआई)

संप्रग की दलित उम्मीदवार मीरा कुमार को हराकर एनडीए के दलित उम्मीदवार रामनाथ कोविंद की जबरदस्त विजय को मीडिया के एक हिस्से ने राष्ट्रपति भवन में रामराज कहा है.

यह शीर्षक और डिजाइन के माध्यम से चमत्कार (इलस्ट्रेशन) पैदा करने की एक कोशिश है जिसमें विचारों का ध्यान नहीं रखा जाता और न ही शब्दों और उनके अर्थों का अनुपात रखा जाता है.

रामराज एक गहरी दार्शनिक अवधारणा है जिसका जिक्र महात्मा गांधी किया करते थे लेकिन वह महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभभाई पटेल, डॉ लोहिया, जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेंद्र देव को ग्राह्य नहीं थी.

दलित राजनीति के पितामह डॉ भीमराव आंबेडकर को तो वह राज एकदम पसंद नहीं था. इसीलिए उन्होंने ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ जैसी किताब लिखी जिसमें साबित किया कि हिंदू धर्म में दोगलापन, पाखंड और असमानता भरी पड़ी है.

इसलिए आज जो मीडिया समूह रामनाथ कोविंद की जीत को रामराज कह रहे हैं वे या तो उस शब्द का अर्थ समझ नहीं रहे हैं या वे गांधी और आंबेडकर दोनों के साथ मजाक करते हुए सामाजिक न्याय का नया आख्यान रच रहे हैं.

दरअसल यह वोट बैंक की राजनीति का विरोध करने वाली भाजपा द्वारा वोटबैंक की राजनीति के तहत खेला गया एक मास्टर स्ट्रोक है और जिसने राष्ट्रपति पद का राजनीतिकरण तो किया ही है और आगे भी करने का संकेत दे दिया है.

डॉ आंबेडकर के जीवनी लेखक कीर धनंजय ने आखिरी अध्याय में उन्हें माडर्न मनु लिखा है. यह एक उपमा है जो उन्हें संविधान निर्माण के कारण दी गई थी. पर इसमें भी एक तरह का विरोधाभास है.

एक बार बाबा साहेब ने कहा भी था कि जब उन्हें रामायण की रचना करनी हुई तो उन्होंने वाल्मीकि को बुलाया. जब उन्हें महाभारत की रचना करनी हुई तो उन्होंने वेदव्यास को बुलाया और जब उन्हें संविधान की रचना करनी हुई तो उन्होंने मुझे बुलाया. संयोग से वे सभी शूद्र हैं.

संयोगों का यह विरोधाभास एक योजना के तहत होता है या अनायास यह तो आपकी दृष्टि पर निर्भर करेगा लेकिन रामनाथ कोविंद के मामले में वह योजना के तहत ही होता हुआ लगता है. अगर ऐसा न होता भाजपा का शीर्ष नेतृत्व यह न कहता कि उसे 2019 में राजनीतिक समीकरण बनाने में बहुत मदद मिलेगी.

यानी यह जो कुछ हुआ है वह चुनाव जीतने के समीकरण को ध्यान में रखकर किया गया है समाज की संरचना को बदलने या राजनीति की संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन करने के लिए नहीं हुआ है.

यही वजह है कि कोविंद को राष्ट्रपति बनाने वालों की खुशी इस बात से है कि एक तरफ उन्होंने बिहार चुनाव में बनी विपक्षी एकता को तोड़ दिया, दलितों को साथ ले लिया और 2019 का चुनाव सुरक्षित कर लिया.

एक तरह से भारतीय जनता पार्टी ने वही समीकरण बना लिया जो कांग्रेस पार्टी ने लंबे समय तक बनाकर देश पर राज किया था. भाजपा के इस समीकरण में अल्पसंख्यक नदारद है तो अन्य पिछड़ा वर्ग का बड़ा तबका आ गया है. सवर्ण तो जीजान से उसके साथ हैं ही.

सोशल इंजीनियरिंग का यह फॉर्मूला कायम करने की कोशिश पहले जनसंघ करता रहता था और उसके बाद भाजपा करने लगी. लेकिन उसका मुकम्मल नतीजा सत्तर साल बाद मिला.

जब बाबा साहेब आंबेडकर संविधान सभा में जाने और मंत्रिमंडल में शामिल होने की जद्दोजहद कर रहे थे तो उन्हें आंदोलन और सत्याग्रह के लिए उकसाने वालों में गोलवलकर, सावरकर और बीएस मुंजे जैसे हिंदूवादी नेता आगे थे. तब उनके पास देने को कुछ नहीं था इसलिए बाबा साहेब को जाना कांग्रेस के ही साथ था. लेकिन वे नेता उन्हें कांग्रेस के विरुद्ध भड़काने में पूरी कोशिश कर रहे थे.

उसके बाद 1979 में जब जनता पार्टी की सरकार का पतन हुआ तो कांग्रेस पार्टी छोड़कर इस गठबंधन में आए दलित नेता (उस समय हरिजन कहा जाता था) जगजीवन राम को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर जनता पार्टी के जनसंघ वाले घटक ने पेश किया. पर कांग्रेस चुनाव जीत गई और जगजीवन राम बाद में कांग्रेस में ही शामिल हो गए.

मायावती को पहली बार मुख्यमंत्री बनाने का श्रेय भी भारतीय जनता पार्टी को ही जाता है. यहां तक कि मायावती को दो बार मुख्यमंत्री बनने में भाजपा से ही समर्थन हासिल हुआ. लेकिन ध्यान रहे कि अस्सी और नब्बे का दशक दलित राजनीति के उभार का था जो इस सदी के पहले दशक तक कायम रहा. तब भाजपा का समर्थन पाकर भी बसपा का दलित वोट बैंक मजबूत रहता था.

यह वही दौर था जब बसपा के उभार ने कांग्रेस का दलित जनाधार हिलाकर भारत का राजनीतिक समीकरण बदल दिया था. बसपा के संस्थापक कांशीराम का कहना था कि हमें केंद्र में मजबूत नहीं मजबूर सरकार चाहिए.

ध्यान रहे कि कांशीराम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘चमचा युग’(एज आफ स्टूज) में जगजीवन राम से लेकर रामविलास पासवान तक के नेतृत्व को चमचों का नेतृत्व कहा था. उनका मानना था कि कांग्रेस ने स्वतंत्र चेत्ता और पाएदार दलित नेतृत्व खड़ा करने की बजाय सवर्णों की चमचागीरी करने वाले दलित नेता पैदा किए. अगर जगजीवन राम ब्राह्मणों की चमचागीरी करते थे तो रामविलास पासवान ठाकुरों की. यही वजह है कि संसद और विधानसभाओं में दलितों को आरक्षण मिलने के बावजूद समाज में समता कायम नहीं हुई. उन्होंने इस बारे में बाबा साहेब की ही तरह 1932 के पूना समझौते को दोषी ठहराया.

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(फोटो: पीटीआई)

उस समझौते के पचास साल होने पर जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पूना समझौते की स्वर्ण जयंती मनाकर सवर्ण और दलित एकता को मजबूती देना चाह रही थीं तो कांशीराम ने पूना से जालंधर तक सैकड़ों रैलियां करके पूना समझौते की धज्जियां उड़ा दीं.

उन्होंने याद दिलाया कि भंडारा और पश्चिमी बंबई से बाबा साहेब चुनाव इसीलिए हारे थे कि कांग्रेस ने उनके खिलाफ दूसरी जातियों के दलित नेता खड़े कर दिए थे. इसके लिए पूना समझौता ही जिम्मेदार था.

इसलिए सवाल यही उठता है कि रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति बनना क्या समता युग की शुरुआत है या चमचा युग की? यह संयोग नहीं है कि जिस समय रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया जा रहा है उस समय देश में दलित राजनीति ध्वस्त हो चुकी है.

2017 के विधानसभा चुनावों में बसपा को महज 19 सीटें मिलीं और जिस दिन राष्ट्रपति चुनाव के परिणाम आ रहे थे उसी दिन मायावती का राज्यसभा से इस्तीफा मंजूर हो रहा था.

यह भी विडंबना है कि आज बसपा के पास लोकसभा में एक भी सीट नहीं है. पिछले तीन वर्षों से दलित आंदोलन भी तरह-तरह से घाव खाता रहा है. हैदराबाद के केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित बेमुला की आत्महत्या, गुजरात के ऊना में मरी गायों का चमड़ा निकाल रहे दलितों की पिटाई और सहारनपुर में रैदास की मूर्ति स्थापित करने जा रहे दलितों पर हमला और आगजनी इसके उदाहरण हैं.

इस तरह के उदाहरण दर्जनों हैं और हकीकत यह है कि गांवों में दलितों के साथ बरती जा रही अस्पृश्यता और दमन की कार्रवाइयां आज भी जारी हैं. अभी हाल में मध्य प्रदेश के पाटीदार समाज ने अछूत बिरादरी के शौचालयों को तोड़कर प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान का जबरदस्त मखौल उड़ाया है. उनकी औरतों फिर खुले में जाने को मजबूर हैं.

छुआछूत के बारे में तमाम सर्वेक्षणों से यह निकल कर आ रहा है कि भारतीय समाज में अभी भी उसकी उपस्थिति नब्बे प्रतिशत से ज्यादा है. इसी तरह देश के भूमिहीनों में दलितों की संख्या 57.3 प्रतिशत है. भारतीय जेलों में बंद कुल कैदियों में दलितों की संख्या 21.6 प्रतिशत है.

मध्य प्रदेश में यह संख्या 15.6 प्रतिशत तो गुजरात में 6.7 प्रतिशत है. इन स्थितियों के साथ 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में चुनकर आने वाले जनप्रतिनिधियों में 44 प्रतिशत सवर्ण हैं. उनकी संख्या में पिछली विधानसभा के मुकाबले 12 प्रतिशत इजाफा हुआ है.

भाजपा के शासन में मनुवाद नए रूप में लौट रहा है. आंबेडकर की पूजा जरूर हो रही है लेकिन उनके मशहूर ग्रंथ ‘इनीहिलेशन आफ कास्ट’ को भुला दिया गया है. हिंदू समाज को एक करने की बात करने वाला राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ चाहे तो दलितों की बराबरी के लिए भारी सामाजिक सुधार कर सकता है. लेकिन अब वह सांस्कृतिक और सामाजिक संगठन न होकर राजनीतिक संगठन हो गया है.

उसे भाजपा को अगले बीस साल तक केंद्रीय सत्ता पर कायम रखना है. इसलिए वह प्रतीकों की राजनीति करता है बुनियादी बदलाव की इच्छा उसमें नहीं है. दलित आंदोलन के तमाम समर्पित कार्यकर्ता इस देश में हैं और उनका कहना है कि कोविंद के बनने या न बनने से या बहनजी के सत्ता में रहने या न रहने से आंदोलन नहीं मरने वाला है. उसके लिए बाबा साहेब के विचारों की आग काफी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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