इस बार बिहार सरकार द्वारा किसानों से सात लाख टन गेहूं खरीदने का लक्ष्य रखा गया था, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि इसकी तुलना में सरकार ने महज़ 0.71 फीसदी गेहूं खरीदा है.
नई दिल्ली: कोरोना महामारी के बीच जब किसान लाभकारी मूल्य पर अपने उपज को बेचने की मांग कर रहे थे, ऐसे में बिहार सरकार ने इस साल कुल उत्पादन की तुलना में महज एक फीसदी से भी कम गेहूं खरीदा है.
इतना ही नहीं, गेहूं खरीद के लिए राज्य द्वारा लगाए गए प्रति खरीद केंद्रों ने किसानों से औसतन करीब एक टन गेहूं खरीदा है.
बिहार सरकार के सहकारिता विभाग द्वारा द वायर के साथ साझा की गई जानकारी से इन तथ्यों का पता चलता है.
साल 2019-20 के दौरान राज्य में करीब 61 लाख टन गेहूं उत्पादन का अनुमान लगाया गया था, लेकिन सरकार ने कुल अनुमानित उत्पादन का केवल 4,920 टन यानी सिर्फ 0.081 फीसदी की खरीद की है.
यह इस बार बिहार सरकार द्वारा सात लाख टन गेहूं खरीदने के लक्ष्य के तुलना में भी एक फीसदी से कम या महज 0.71 फीसदी ही है.
खास बात ये है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने शुरू में निर्धारित 2 लाख टन गेहूं खरीदने के लक्ष्य को ये कहते हुए बढ़ाया था कि कोरोना महामारी के चलते किसानों को अपने उत्पाद बेचने में समस्या हो रही है, इसलिए सरकार को अधिक से अधिक खरीद करनी चाहिए.
राज्य सरकार ने ये भी बताया कि रबी खरीद वर्ष 2020-21 के दौरान गेहूं खरीद के लिए राज्य में कुल 4,393 खरीद केंद्र लगाए गए थे.
चूंकि इस दौरान सिर्फ 4,920 टन गेहूं की सरकारी खरीद हुई, इस तरह राज्य के एक खरीद केंद्र ने पूरे सीजन में औसतन महज 1.12 टन गेहूं खरीदा है.
सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत केंद्रीय उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार सरकार बिहार में केवल 1,002 किसानों से गेहूं की खरीद करने में कामयाब रही है.
बिहार में गेहूं के सरकारी खरीद की ये तस्वीर हाल ही में मोदी सरकार द्वारा संसद से पारित कराए गए विवादित कृषि विधेयकों के संदर्भ में काफी महत्वपूर्ण है. इन विधेयकों के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में किसान व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.
कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि तथाकथित सुधार के नाम पर सरकार द्वारा लाए गए इन कानूनों के चलते न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और बाजार मंडियों (एपीएमसी) की व्यवस्था खत्म होने की प्रबल आशंका है.
अपनी इन दलीलों के प्रमाण के रूप में जानकार बिहार का उदाहरण देते हैं, जिसने साल 2006 में एपीएमसी एक्ट को खत्म कर दिया था और ये दावा किया गया था कृषि बाजार खोलने के इस निर्णय के चलते ज्यादा से ज्यादा प्राइवेट खरीददार आएंगे तथा किसानों को अच्छे दाम मिलेंगे.
लेकिन आंकड़े दर्शाते हैं कि इस निर्णय के बाद से बिहार में गेहूं की सरकारी खरीद लगभग शून्य है. विपक्ष का कहना है कि सार्वजनिक खरीद खत्म होने से एमएसपी खत्म होने की शुरूआत होती है.
हालांकि बिहार सरकार की दलील है कि एमएसपी का उद्देश्य किसानों को उनकी उपज सरकारी केंद्र में ही बेचने के लिए मजबूर करना नहीं है, बल्कि इसका मकसद बाजार में विकृति रोकना और किसानों को उनकी उपज मनपसंद जगह पर बेचने का विकल्प देना है.
सहकारिता विभाग के जनसंपर्क अधिकारी (पीआरओ) संजय कुमार ने कहा, ‘चूंकि जमीनी स्तर पर खरीद केंद्र खोले गए थे और सहकारी समितियां एमएसपी पर गेहूं खरीदने के लिए तैयार थीं, इसलिए इस सीजन में बाजार मूल्य ऊपर चला गया था, जिसके कारण सरकारी खरीद नहीं हुई.’
पिछले वर्षों में भी गेहूं खरीद की स्थिति ऐसी ही रही
ये पहला मौका नहीं है जब बिहार में इतनी कम गेहूं की सरकारी खरीद हुई है. रबी खरीद वर्ष 2019-20 में बिहार सरकार ने इस साल से भी कम 2,852 टन गेहूं खरीदा था. यह कुल उत्पादन की तुलना में महज 0.05 फीसदी थी.
साल 2019 में गेहूं खरीद के लिए राज्य में 1628 सरकारी खरीद केंद्र लगाए गए थे. इस साल कुल खरीद की तुलना में एक खरीद केंद्र ने पूरे सीजन में महज 1.75 टन गेहूं खरीदा था.
इससे पिछले खरीद वर्ष 2018-19 के दौरान राज्य सरकार ने किसानों से करीब 20,000 टन गेहूं खरीदा था, जो इस बार कोरोना महामारी के बीच की गई खरीद से काफी ज्यादा है.
इस दौरान राज्य में 451 खरीद केंद्र लगाए गए थे, जिसके अनुसार एक खरीद केंद्र ने औसतन करीब 44 टन गेहूं खरीदा था.
इससे पहले वित्त वर्ष 2017-18 में बिहार में गेहूं की बिल्कुल भी खरीदी नहीं हुई था.
द वायर ने पूर्व में एक रिपोर्ट में बताया था कि कृषि उत्पादों की खरीद मामले में बिहार की स्थिति इतनी खराब रही है कि वे सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत बांटे जाने वाले अनाज तक के लिए भी गेहूं की खरीद नहीं कर पाते हैं.
बिहार में एफसीआई के महाप्रबंधक संदीप कुमार पांडेय ने अप्रैल महीने में बताया था, ‘पिछले पांच-छह सालों में बिहार में गेहूं की खरीद लगभग निल (शून्य) है. राज्य में 80 फीसदी खाद्यान्न जरूरत को हम बाहर से खरीदकर पूरा करते हैं.’
इस बार बाजार मूल्य बेहतर होने के बिहार सरकार के दावे के विपरीत राज्य किसानों का कहना है कि सरकारी खरीद न होने के कारण उन्हें एमएसपी से कम दाम पर अपनी उपज बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता है.
मधुबनी जिले में गेहूं का उत्पादन करने वाले राजेश यादव ने कहा, ‘हम बिहार में सरकारी खरीद पर निर्भर नहीं रह सकते हैं. यहां निजी आटा मिलें और बिस्किट निर्माता हैं जो आम तौर पर हमारी उपज खरीदते हैं. लेकिन इस साल यह भी लॉकडाउन के कारण संभव नहीं था, इसलिए हमें एमएसपी के आधे से भी कम दर पर इसे बेचना पड़ा.’
हालांकि राज्य सरकार का दावा है कि गेहूं का बाजार मूल्य गेहूं की एमएसपी से अधिक रहा. बिहार सरकार के पीआरओ संजय कुमार कहते हैं, ‘कुछ अपवाद मामले हो सकते हैं लेकिन हमने अपने फील्ड स्टाफ के जरिये मार्केट रिपोर्ट इकट्ठा की है, जो दर्शाता है कि इस बार गेहूं का बाजार मूल्य एमएसपी के बहुत करीब था, कुछ मामलों में यह एमएसपी से भी ज्यादा था.’
उन्होंने आगे बताया, ‘यदि मधुबनी जिले की बात करें, तो यहां पर 181 खरीद केंद्र लगाए गए थे और यहां बाजार मूल्य 1,900 से 2,000 के बीच था, जबकि एमएसपी 1925 रुपये थी.’
एपीएमसी एक्ट खत्म करने का प्रभाव
इस साल मई में द हिंदू बिजनेस लाइन में लिखे एक लेख में फूड पॉलिसी एक्सपर्ट देविंदर शर्मा बताते हैं कि किस तरह बिहार में एपीएमसी एक्ट खत्म करने से किसानों को लाभ नहीं मिला है.
उन्होंने कहा, ‘साल 2006 में बिहार में एपीएमसी एक्ट खत्म करने पीछे का विचार ये था कि इससे बाजार में निजी सेक्टर का निवेश बढ़ेगा, जिससे किसानों को बेहतर मूल्य मिलेगा. दुर्भाग्यवश ऐसा कुछ नहीं हो पाया.’
शर्मा ने आगे कहा, ‘इतना जरूर हुआ है कि बेईमान व्यापारी बिहार से भारी मात्रा में धान और गेहूं को गैरकानूनी तरीके से लाकर पंजाब तथा हरियाणा में बेच देते हैं, जहां कम से कम एमएसपी मिल जाती है.’
पूर्व कृषि सचिव सिराज हुसैन का कहना है कि राज्य सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त कदम नहीं उठाए हैं कि किसान अपनी उपज एमएसपी पर बेच सकें.
उन्होंने कहा, ‘राज्य सरकार को अपने किसानों के लिए एमएसपी का लाभ प्राप्त कराने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है, जो उसने अब तक किया है.’
उन्होंने ने कहा कि कई पूर्वी राज्यों ने अपनी खरीद मशीनरी तैयार की है, दुर्भाग्य से बिहार अपनी सहकारी समितियों को विकसित नहीं कर पाया है जो मुख्य रूप से राज्य में खरीद के लिए जिम्मेदार हैं.
हुसैन ने आगे कहा, ‘मध्य प्रदेश खरीद के साथ-साथ पीडीएस व्यवस्था को भी ठीक करने में बहुत सफल रहा है. इसी तरह ओडिशा और छत्तीसगढ़ भी अपने किसानों को एमएसपी का लाभ प्रदान करने में सक्षम रहे हैं. बिहार में केवल धान और गेहूं के किसानों को ही नुकसान नहीं हुआ है, बल्कि मक्का उत्पादकों को भी इस साल अधिक नुकसान झेलना पड़ा है.‘
हालांकि बिहार सरकार के सहकारिता विभाग ने दावा किया है कि राज्य में व्यापार मंडल और प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों (पैक्स) का उचित स्तर पर जाल बिछाया गया है, जो किसानों से खरीद करते हैं.
संजय कुमार कहते हैं, ‘बिहार ने 2013-14 के खरीफ सीजन से गेहूं और धान के लिए खरीद की विकेंद्रीकृत खरीद प्रणाली (डीसीपी) को अपनाया था और तब से सहकारी समितियां काफी अच्छा काम कर रही हैं, खासकर धान की खरीद. वर्ष 2019-20 के दौरान रिकॉर्ड 20.01 लाख टन धान की खरीद की गई और 2018-19 में कुल 14.16 लाख टन धान खरीद हुई थी.’
कुमार ने यह भी दावा किया कि बिहार में खरीदी के लिए एक मजबूत रजिस्ट्रेशन सिस्टम बनाया गया है. उन्होंने कहा कि उनका ऑनलाइन सिस्टम किसानों को रजिस्ट्रेशन, भुगतान समेत कई अन्य सूचनाओं से अवगत कराता है.
बता दें कि इस बार देश भर में कुल 382 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद हुई है. इसमें पहले नंबर पर मध्य प्रदेश है, जिसने अकेले 129 लाख टन गेहूं की खरीद की है.
दूसरे नंबर पर पंजाब है जिसने 127 लाख टन गेहूं खरीदा है. इसके बाद हरियाणा का नंबर है, जिसने 74 लाख टन और उत्तर प्रदेश ने करीब 35 लाख टन गेहूं की सरकारी खरीद की है.