वित्त वर्ष 2019 की कई कैग ऑडिट रिपोर्ट के सार्वजनिक पटल पर न आने की वजह क्या है

बीते कुछ सालों में विधानसभाओं में ऑडिट रिपोर्ट्स पेश करने में ख़ासी देर हुई है. विशेषज्ञों का मानना है कि रिपोर्ट पेश होने में हुई देर इसके प्रभाव को तो कम करती ही है, साथ ही सरकार में ग़ैर-जवाबदेही के चलन को बढ़ावा भी मिलता है.

(फोटो: पीटीआई)

बीते कुछ सालों में विधानसभाओं में ऑडिट रिपोर्ट्स पेश करने में ख़ासी देर हुई है. विशेषज्ञों का मानना है कि रिपोर्ट पेश होने में हुई देर इसके प्रभाव को तो कम करती ही है, साथ ही सरकार में ग़ैर-जवाबदेही के चलन को बढ़ावा भी मिलता है.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

वैश्विक महामारी के बीच लोकतांत्रिक व्यवस्था और इससे जुड़े संस्थानों पर भी बुरा प्रभाव पड़ा है, जहां भारत के कई राज्यों में सदन की कार्यवाही घटाई गई या विलंब से शुरू हुई.

इस साल के पहले नौ महीनों में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा राज्य विधानसभाओं में पेश किए गए 47 ऑडिट रिपोर्टों को सार्वजनिक किया गया है.

जैसे-जैसे देशव्यापी अनलॉक की प्रक्रिया आगे बढ़ी, वैसे-वैसे विधानसभाओं के मानसून सत्र शुरू करने की बहस और तेज हुई. मध्य-अगस्त से विधानसभाओं की कार्यवाही शुरू होने के बाद से विभिन्न राज्यों के सदनों में 24 ऑडिट रिपोर्ट पेश की गई हैं.

साल 2020 में विधानसभाओं में पेश की गई अधिकतर रिपोर्ट 31 मार्च 2018 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष की हैं. वहीं 31 मार्च 2019 को खत्म हुए वित्तीय वर्ष की भी कुछ रिपोर्ट्स पेश की गई हैं.

वित्तीय वर्ष 2017-18 से संबंधित कम से कम नौ राज्यों के लिए कैग की ऑडिट रिपोर्ट अभी भी विधायकों और नागरिकों के लिए अनुपलब्ध है, जबकि वित्तीय वर्ष को खत्म हुए 30 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है.

ये राज्य आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पश्चिम बंगाल हैं.

आम तौर पर वित्तीय वर्ष की समाप्ति के बाद पहली तिमाही में ऑडिट प्रक्रिया शुरू होती है और विधायिका को 12-18 महीनों बाद या कई बार पहले भी ऑडिट रिपोर्ट देखने को मिलती है.

इसका मतलब ये है कि आदर्श तौर पर तो कैलेंडर वर्ष 2020 में विधानसभाओं में 31 मार्च 2019 को समाप्त हुए वित्तीय वर्ष से संबंधित ऑडिट रिपोर्ट पेश की जानी चाहिए थी, जहां वित्त वर्ष 2017-18 की ऑडिट रिपोर्ट पहले से ही सार्वजनिक पटल पर उपलब्ध हो.

हालांकि जैसा ऊपर बताया गया है, ऐसा नहीं है. नीचे दी गई तालिका में डेटा इसे स्पष्ट करता है.

CAG reports
(स्रोत: भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तथा राज्य महालेखा परीक्षक)

अब इससे यह सवाल उठता है कि ऑडिट रिपोर्ट को पेश करने में हुई देरी के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या चुनी हुई सरकारों को दोषी ठहराया जाना चाहिए? या फिर कुछ हद तक या कुछ मामलो में कमियां राष्ट्रीय लेखा परीक्षक संस्थान में भी है?

इस लेख में हाल के वित्तीय वर्षों के लिए विधानसभाओं में लंबित ऑडिट रिपोर्ट्स की स्थिति और इसके संभावित प्रभावों को लेकर चर्चा कर रहे हैं.

वैसे 126 ऑडिट रिपोर्ट्स को सार्वजनिक किए गए हैं, इसमें से जम्मू कश्मीर से जुड़े तीन ऑडिट रिपोर्ट को 23 सितंबर, 2020 को सार्वजनिक किया गया है.

इन्हें वित्तीय वर्ष पूरा होने के 42 महीने बाद और छह अप्रैल 2018 को जम्मू कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर के साथ साझा किए जाने के 29 महीने बाद इसे सार्वजनिक किया गया है.

वित्त वर्ष 2016-17 तथा 2017-18 के लिए जम्मू और कश्मीर पर ये तीन-तीन रिपोर्ट्स अंततः 23 सितंबर, 2020 को संसद में पेश की गईं, क्योंकि 5 अगस्त, 2019 को राज्य का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद इसे राज्य विधानमंडल के सामने पेश करने का मौका ही नहीं मिला.

लेकिन यह आश्चर्य है कि केंद्र सरकार ने इन दस्तावेजों को सार्वजनिक करने में इतना लंबा इंतजार क्यों किया, क्योंकि ये रिपोर्ट अगस्त 2019 के सत्र या उसके बाद किसी भी सत्र में प्रस्तुत की जा सकती थीं.

इस वर्ष मानसून सत्र के दौरान कुछ राज्य विधानसभाओं में वित्तीय वर्ष 2018-19 से संबंधित ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है, वहीं वित्तीय वर्ष 2017-18 से संबंधित तीन ऑडिट रिपोर्ट अब तक तमिलनाडु राज्य विधानसभा में पेश नहीं की जा सकी है.

कैलेंडर वर्ष 2019 के दौरान भी साल 2017-18 के लिए राज्य वित्त पर केवल एक ऑडिट रिपोर्ट तमिलनाडु विधानसभा में पेश की गई थी.

CAG reports
(स्रोत: कैग)

बीते 16 सितंबर को समाप्त हुए तीन दिवसीय विधानसभा सत्र के दौरान वित्त वर्ष 2017-18 से जुड़े राजस्व पर एक ऑडिट रिपोर्ट, जिसे 11 जुलाई 2019 को ही सरकार के भेज दिया गया था, पेश किया गया.

वहीं इसी वित्तीय वर्ष से जुड़ी तीन ऑडिट रिपोर्ट के साथ मार्च 2019 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष के लिए ‘राज्य वित्त’ की रिपोर्ट को भी सदन में पेश किया जाना अभी बाकी है.

आंध्र प्रदेश विधानसभा में पिछली बार 19 सितंबर 2018 को कोई ऑडिट रिपोर्ट पेश की गई थी. पिछले 24 महीने में, जिसमें 14वीं विधानसभा का आखिरी सत्र (फरवरी 2019) भी शामिल है, छह बार राज्य विधानसभा की बैठक हुई है लेकिन इस दौरान एक भी ऑडिट रिपोर्ट पेश नहीं की गई.

त्रिपुरा की 12वीं विधानसभा के दौरान मार्च 2018 और नवंबर 2018 में इसके पहले और तीसरे सत्र में एक-एक ऑडिट रिपोर्ट पेश की गई. पिछले 21 महीनों में विधानसभा की चार बैठकें हुई हैं, लेकिन इस दौरान एक भी ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की गई.

करीब 20 महीने के खालीपन के बाद 21 सितंबर 2020 को झारखंड विधानसभा में चार ऑडिट रिपोर्ट पेश की गईं.

दिसंबर 2018 से विधानसभा के कुल पांच सत्र (चौथी विधानसभा के तीन सत्र और पांचवी विधानसभा के दो सत्र) चले थे, लेकिन इस दौरान कोई भी रिपोर्ट पेश नहीं हुई.

इससे यह भी पता चलता है कि दिसंबर 2019 में झारखंड में विधानसभा चुनाव शुरू होने से करीब 12 महीने पहले तक राज्य विधानसभा में कोई भी ऑडिट रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं हुई थी.

यही हाल ओडिशा का भी है जहां वित्त वर्ष 2017-18 से जुड़े एक भी ऑडिट रिपोर्ट को पेश किए बिना अप्रैल 2019 में राज्य में चुनाव हुए थे. वित्त वर्ष 2017-18 के संबंध में ओडिशा विधानसभा में सिर्फ एक रिपोर्ट राज्य के वित्त पर 28 नवंबर 2019 को पेश की गई थी.

ओडिशा को लेकर वित्त वर्ष 2017-18 और 2018-19 से जुड़े अन्य कोई भी रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं.

हरियाणा के मामले में वित्त वर्ष 2017-18 से जुड़ी एक रिपोर्ट को 13वीं विधानसभा के आखिरी सत्र (यानी छह अगस्त 2018) में पेश किया गया. हालांकि अक्टूबर 2019 में राज्य में विधानसभा के चुनाव हुए, लेकिन वित्त वर्ष 2017-18 से जुड़े तीन ऑडिट रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया था.

पश्चिम बंगाल विधानसभा में 11 जुलाई 2019 के बाद से कोई भी ऑडिट रिपोर्ट पेश नहीं की गई है. ध्यान देने वाली बात ये है कि उस दिन पेश की गईं सभी छह ऑडिट रिपोर्ट वित्तीय वर्ष 2016-17 की थीं.

पश्चिम बंगाल सरकार हमेशा से ही काफी देरी से कैग ऑडिट रिपोर्ट पेश करती आई है, कई बार 12 महीनों से अधिक की देरी होती है.

आने वाले साल में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं, लेकिन ऐसी कोई भी जानकारी सार्वजनिक पटल पर मौजूद नहीं है कि वित्त वर्ष 2017-18 और 2018-19 से जुड़ी रिपोर्टों को कैग ने राज्य सरकार के साथ साझा किया है या नहीं.

इसी तरह बिहार राज्य विधानसभा में 16 मार्च 2020 को दो ऑडिट रिपोर्ट्स पेश की गईं थी, लेकिन वो भी वित्त वर्ष 2017-18 की थी.

इस वर्ष की दो और ऑडिट रिपोर्ट तथा वित्त वर्ष 2018-19 की चार ऑडिट रिपोर्ट 21 सितंबर 2020 तक विधानसभा में पेश नहीं की गई थीं, जबकि एक महीने में राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं.

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं में पिछले कैलेंडर वर्ष (यानी 2019) में मार्च 2018 को समाप्त होने वाले वित्तीय वर्ष के लिए केवल एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी.

ओडिशा, केरल और तेलंगाना की विधानसभाओं ने कैलेंडर वर्ष 2019 में केवल एक-एक ऑडिट रिपोर्ट पेश की गई थी. इसी साल में गोवा, पुडुचेरी, पंजाब और नगालैंड विधानसभाओं में कोई ऑडिट रिपोर्ट नहीं प्रस्तुत की गई.

इस तरह की देरी के चलते रिपोर्ट पेश होने के बाद वाले कामों जैसे लोक लेखा समिति (पीएसी) और सार्वजनिक उपक्रम समिति (सीओपीयू) द्वारा निगरानी प्रक्रियाओं पर गहरा प्रभावित पड़ता है.

इसके चलते संबंधित मामले पर विभागों द्वारा एक्शन टेकन रिपोर्ट (एटीआर) जमा करने में भी देरी होती है. यह ऑडिट रिपोर्ट के असर को प्रभावित करता है और सरकार में गैर-जवाबदेही के चलन को बढ़ावा देता है.

चेन्नई बाढ़ जैसे मामलों पर ऑडिट रिपोर्ट में देरी करना ये दर्शाता है कि सरकार जनता की नजर से इन दस्तावेजों को दूर रखने के लिए किस हद तक जा सकती है.

अपनी किताब रिवर रिमेम्बर्स में लेखक कृपा गे ने विस्तार से बताया है कि किस तरह तमिलनाडु सरकार ने ऑडिट रिपोर्ट को दबाने के लिए इसे सार्वजनिक करने में देरी की.

एक साल की देरी के बाद विधानसभा सत्र के आखिरी दिन ऑडिट रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखने को लेकर कृपा ने लिखा, ‘इसका उद्देश्य था कि रिपोर्ट को लेकर कोई बहस न हो. जब तक यह रिपोर्ट सामने आई, उसकी प्रासंगिकता खत्म हो चुकी थी और यह अखबार के किसी भीतरी पन्ने में दफन होकर रह गई.’

इन मुद्दों और प्रवृत्तियों को लेकर चेतावनी देते हुए 1966 में भारत के तत्कालीन कैग (1960-66) एके रॉय ने पश्चिम बंगाल में पीएसी सदस्यों की एक बैठक को संबोधित करते हुए (जैसा कि आईपीएआई जर्नल में एक लेख में एमके जैन द्वारा उद्धृत किया गया है) कहा:

‘ऑडिट पर प्रतिबंध लगाकर उन्होंने विधानसभा को चुप कराया और ऑडिटर जनरल के रूप में मुझे लगता है कि बड़े उत्साह के साथ ऑडिट पर प्रतिबंध लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं.

लेकिन ऑडिट पर प्रतिबंध लगाने का प्रभाव अंतत: आपको चुप कराना है क्योंकि ऑडिट के अलावा कोई भी ऐसी स्वतंत्र संस्था नहीं है जो कि सरकार के वित्तीय लेने-देने में की गईं गड़बड़ियों को आपको बता सके.

चूंकि सरकार तेजी से आलोचना का केंद्र बन रही है, इसलिए किसी न किसी तरह, चाहे दलीलों से, चाहे देरी करके, जो भी संभव हो सके, ऑडिट पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की जारी रही है ताकि इसके काम को ज्यादा से ज्यादा मुश्किल किया जा सके. इसे लेकर आप सतर्क रहें.’

(हिमांशु उपाध्याय अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी, बंगलुरु में पढ़ाते हैं. अभिषेक पुनेठा स्वतंत्र शोधकर्ता व पूर्व गिरीश संत मेमोरियल फेलो हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)