भारतीय अर्थव्यवस्था सुधारने के लिए फंड का का इंतज़ाम करना एक राष्ट्रीय समस्या है. ऐसे समय में, ख़ासकर जब देश की अर्थव्यवस्था बाकी कई देशों के मुक़ाबले अधिक ख़राब है, तब केंद्र और राज्यों का क़र्ज़ लेने को लेकर उलझना अनुचित है.

नरेंद्र मोदी सरकार अगर 85 सालों के भारत के इतिहास में आई सबसे भीषण मंदी को एक वित्तीय आपातकाल के तौर पर बरतना चाह रही है, तो उसे तुरंत ही अनेक राज्य सरकारों की इस मांग को मान लेना चाहिए कि राज्यों को तत्काल जरूरी संसाधन मुहैया कराने के लिए कम दर पर अतिरिक्त फंड बाजार से उधार लेने का काम केंद्र करे.
तार्किक लगने के बावजूद जीएसटी काउंसिल में केंद्र और राज्यों के बीच इस मुद्दे को लेकर सतत गतिरोध बना हुआ है. ऐसे अभूतपूर्व संकट के बीच मोदी सरकार इस समस्या के किसी भी भाग को केंद्र बनाम राज्य के मसले के तौर पर नहीं देख सकती है.
यह जरूर याद रखा जाना चाहिए कि 2008 के आर्थिक संकट के बाद अमेरिकी सरकार, फेडरल रिजर्व और वहां के राज्यों ने एक संयुक्त मोर्चे के तौर पर जरूरी कदम उठाने के लिए मिलकर काम किया था.
मौजूदा आर्थिक संकट 2008 के वित्तीय संकट से कहीं ज्यादा बड़ा है. भारत की अर्थव्यवस्था अन्य देशों की तुलना में ज्यादा प्रभावित हुई है क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था कोविड-19 की मार से पहले ही निजी निवेश और रोजगार जैसे अर्थव्यवस्था के वास्तविक पैमानों पर तीखी संरचनात्मक गिरावट का सामना कर रही थी.
ऐसे बिंदु पर अर्थव्यवस्था की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी पैसे का कितना हिस्सा कौन कर्ज लेगा, इसको लेकर हीला-हवाली करना केंद्र के लिए सही नहीं है.
यहां यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि इस वित्तीय वर्ष में राज्यों द्वारा अर्थव्यवस्था में 14 फीसदी सालाना बढ़ोतरी के आधार पर पूरे मुआवजे की मांग करना भी एक तरह से न्यायोचित नहीं है.
लेकिन राज्यों का कहना कि कोविड-19 से उपजी स्थिति में बुनियादी कल्याण कार्यक्रमों और अन्य खर्चों के लिए जरूरी पैसे की कमी को पूरा करने के लिए कर्ज केंद्र कर्ज ले, पूरी तरह से न्यायोचित है. यह जरूरी भी है.
यहां तक कि राजकोषीय जवाबदेही एवं बजट प्रबंधन (एफआरबीएम) अधिनियम में भी यह कहा गया है कि अगर कुल जीडीपी -3% से ज्यादा नीचे चली जाती है, तो केंद्र बजट जरूरतों को पूरा करने के लिए आरबीआई से कर्ज ले सकता है.
इसलिए कुछ राज्य ये सवाल उठा रहे हैं कि केंद्र एफआरबीएम एक्ट के उन प्रावधानों का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहा है. आखिर एफआरबीएम एक्ट संसद से पारित है और यह जनता की इच्छा का प्रदर्शन करता है.
केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास
इस पृष्ठभूमि में केंद्र द्वारा राज्यों को कर्ज लेने के लिए मजबूर करना और साथ ही राज्य की जीडीपी के 3% से ज्यादा कर्ज लेने पर तमाम तरह की शर्तें लगाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और हमारी राजव्यवस्था में परिसंघीय साझेपन की भावना के खिलाफ है.
केंद्र को यह अवश्य याद रखना चाहिए कि संवृद्धि, निवेश, रोजगार और राजस्व में संरचनात्मक गिरावट के कसूरवार नोटबंदी जैसे मोदी के नासमझी भरे अलोकतांत्रिक प्रयोग हैं, जिनके लिए राज्यों से कोई मशविरा नहीं किया गया था.
इसके बाद बेहद खराब तरह से लागू जीएसटी और अनौपचारिक क्षेत्र के विनाश ने इसमें योगदान दिया.
अब भी कृषि सुधार विधेयक हो या बिजली कानून में बदलाव, जो बराबर मात्रा में राज्यों के अधिकार क्षेत्र के भीतर आने वाले मसले हैं, राज्यों से कोई सलाह-मशविरा नहीं किया जा रहा है.
इसमें कोई शक नहीं है कि केंद्र सरकार ने पिछले पांच सालों में अर्थव्यवस्था का बुरी तरह कुप्रबंधन किया है.
ऐसे में अगर केंद्र सरकार कोविड-19 से उपजी स्थिति में राज्यों को अपने जरूरी खर्चों को पूरा करने के लिए आवश्यक अतिरिक्त उधारी को लेकर कठिन शर्तें लादती है, तो यह घमंडीपन और जानबूझकर संघवाद की भावना का अनादर करना होगा.
यह नहीं भूलना चाहिए कि यह एक स्वास्थ्य और वित्तीय आपातकाल है.
अप्रैल-जून तिमाही में भारत की अर्थव्यवस्था के 24% सिकुड़ने के कारण कर-राजस्व में भारी गिरावट आई है. कुल राजस्व बजट अनुमान से पहले ही 25-35 फीसदी कम है.
इसने स्वास्थ्य, शिक्षा, स्वच्छता, कानून एवं व्यवस्था- जिनका प्रबंधन राज्यों द्वारा किया जाता है- पर खर्चे के लिए जरूरी राशि का इंतजाम करना मुश्किल कर दिया है.
केंद्र ने राज्यों को मिलनेवाले जीएसटी मुआवजा में 2.35 लाख करोड़ की कमी की बात को स्वीकार किया है. और इसने उपकर मुआवजे को 2022 से आगे बढ़ाने पर भी सहमति जताई है.
लेकिन लघु अवधि के लिए फंडिंग की जरूरतों को पूरा करने के लिए केंद्र राज्यों से अपनी क्षमता के आधार पर बाजार से कर्ज लेने के लिए नहीं कह सकता है.
जैसा कि मैंने पहले ही कहा, यह बात वास्तव में महत्व नहीं रखती है कि कर्ज कौन ले रहा है क्योंकि यह एक राष्ट्रीय संकट है. उधार उसे ही लेना चाहिए जो ज्यादा सस्ते में और ज्यादा सक्षम तरीके से उधार ले सकता है.
राज्य सरकारों का तर्क है कि केंद्र सरकार बाजार से ज्यादा सस्ता कर्ज लेने की स्थिति में है. केंद्र ने आरबीआई की विशेष व्यवस्था के रास्ते से इसमें से थोड़े पैसे उधार लेने में राज्यों की मदद करने की पेशकश की है.
केंद्र ने ब्याज लागत पर सब्सिडी देने और यहां तक कि राज्यों के कर्जे को सेस के माध्यम से चुकाने का भी प्रस्ताव रखा है. ऐसी जटिल व्यवस्था करने की जगह अच्छा यह होता कि केंद्र सीधे कर्ज लेता और वह पैसा राज्यों को दे देता.
लेकिन मोदी ऐसा करने के लिए बिल्कुल भी तैयार नजर नहीं आ रहे हैं.
यह गतिरोध बना हुआ है और उस संघीय भावना पर चोट पहुंचा रहा है, जिसने केंद्र और 31 राज्यों को जीएसटी सुधार लागू करने के लिए एक साथ लाने का काम किया था.
इस वर्तमान आर्थिक संकट का सामना करने की रणनीति को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच अविश्वास बढ़ता जा रहा है.

मुद्दों का मैत्रीपूर्ण तरीके से समाधान की जरूरत
मुश्किलों को दूर करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. 2017 में जीएसटी लागू करते वक्त केंद्र ने राज्यों से यह वादा किया था.
कम से कम 10 विपक्षी राज्य पहली बार वर्तमान विवाद पर- कि राजस्व में आई भारी कमी की भरपाई करने के लिए फंड कौन उधार लेगा- जीएसटी काउंसिल में मतदान कराने की धमकी दे रहे हैं.
केंद्र, जिसके पास करीब 20 भाजपा शासित राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का समर्थन है, मतदान से बचना चाहता है, क्योंकि अब तक जीएसटी काउंसिल ने बातचीत और सर्वसम्मति कायम करके विवादों का निपटारा किया है.
अगर मतदान की नौबत आती है, तो केंद्र को अपनी बात मनवाने के लिए 75% वोटों की दरकार होगी. केंद्र और 20 राज्य मिलकर 75 फीसदी के आसपास वोट होंगे, लेकिन यह काफी करीबी मामला होगा.
संघवाद की भावना को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि केंद्र मतदान से बचे क्योंकि भारत में जीएसटी सिर्फ तीन साल पुराना है.
केंद्र को विरोध में खड़े 10 विपक्षी राज्यों के साथ सर्वसम्मति कायम करने और किसी समझौते पर पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए ताकि सभी मसलों का समाधान सबके लिए संतोषजनक ढंग से किया जा सके.
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