देशभर की विभिन्न जेलों में ऐसे हज़ारों क़ैदी बंद हैं, जिन्हें मृत्युदंड मिला है. हाल ही में आई डेथ पेनल्टी इंडिया नाम की रिपोर्ट से पता चलता है कि सज़ा-ए-मौत पाए बंदियों में से अधिकतर समाज के हाशिये पर रहने वाले वर्गों से आते हैं.
नई दिल्लीः भारत उन देशों की सूची में शामिल है, जहां जघन्य अपराधों के लिए मृत्युदंड की सजा का प्रावधान है लेकिन मौत की सजा पाए कैदियों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को लेकर अभी तक कोई व्यापक समझ विकसित नहीं हो पाई है.
किसी मामले में आरोपी की गिरफ्तारी से लेकर, उसकी हिरासत अवधि, मामले के ट्रायल की प्रक्रिया, दोषी ठहराए जाने और फिर मृत्युदंड दिए जाने तक उसे और उसके परिवार को किन परिस्थितियों से जूझना पड़ता है, इसे बेहतर तरीके से समझाने के लिए नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के प्रोजेक्ट 39ए ने हिंदी में ‘डेथ पेनल्टी इंडिया‘ नामक रिपोर्ट जारी की है, जिसके तहत जून 2013 से जनवरी 2015 के बीच मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों और उनके परिवार वालों से बातचीत कर उनके अनुभवों को समेटा गया है.
इस रिपोर्ट का मुख्य उद्देश्य मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति का दस्तावेजीकरण करना और न्याय प्रणाली के विभिन्न पहलुओं को सामने रखना है ताकि देश में मृत्युदंड के तरीकों की व्यापक और गहन समझ विकसित हो.
इस रिपोर्ट को कैदियों और उनके परिवार के साथ बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है. देश में मृत्युदंड की सजा पाए 385 कैदियों में से 373 कैदियों को इस रिपोर्ट का हिस्सा बनाया गया है.
ये कैदी 20 राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश से हैं, जिनमें 361 पुरुष और 12 महिलाएं हैं.
देश में मृत्युदंड की सजा
देश के 18 केंद्रीय कानूनों में से 59 धाराओं में सजा के रूप में मृत्युदंड का प्रावधान है. देश में जिन 373 कैदियों को इस रिपोर्ट का हिस्सा बनाया गया है, उनमें से उत्तर प्रदेश और बिहार में हत्या के लिए मौत की सजा सबसे अधिक संख्या में सुनाई गई.
यौन अपराधों के लिए मृत्युदंड पाए 84 कैदियों में से 17.9 फीसदी महाराष्ट्र से और 16.7 फीसदी मध्य प्रदेश से हैं.
रिपोर्ट बताती है कि मृत्युदंड की सजा वर्ग, जेंडर, जाति, धर्म और शैक्षिक स्तर से जुड़ी हुई है और समाज में हाशिये पर रहने वाला एक विशेष वर्ग ही इसे झेलता है.
हालांकि, कई देशों में मृत्युदंड की सजा पर प्रतिबंध लगाया गया है जबकि भारत में यह बहस का विषय है. कानून आयोग ने दो बार मृत्युदंड की व्यापक समीक्षा की. अगस्त 2015 में अपनी 262वीं रिपोर्ट में कानून आयोग ने चरणबद्ध तरीके से मृत्युदंड को समाप्त करने की सिफारिश की थी.
मृत्युदंड पाने वालों में आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि सर्वाधिक क़ैदी
रिपोर्ट बताती है कि देश में मृत्युदंड की सजा पाने वालों में आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर लोग अधिक हैं. आमतौर पर यह सजा ज्यादातर उन लोगों को मिली है जो गरीब हैं और समाज के पिछड़े वर्गों से आते हैं.
इसके साथ ही कैदी की सजा निर्धारित करने में उसकी उम्र और उसका पूर्व आपराधिक रिकॉर्ड भी अहम है.
रिपोर्ट बताती है कि मृत्युदंड की सजा पाए 74 फीसदी कैदी आर्थिक तौर पर कमजोर पृष्ठभूमि से थे, इनमें से 63.2 फीसदी कैदी परिवार में एकमात्र कमाने वाले शख्स थे.
राज्यों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में आर्थिक रूप से कमजोर कैदियों की संख्या सर्वाधिक 48 है, जिसके बाद बिहार (39) और कर्नाटक (33) हैं.
कैदियों की शैक्षणिक स्थिति
रिपोर्ट से यह भी पता चला है कि देश में मृत्युदंड की सजा पाए अधिकतर कैदियों की शैक्षणिक स्थिति अच्छी नहीं है. शिक्षित न होने की वजह से उन्हें कानूनी प्रक्रिया और कार्यवाही समझने में अधिक दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
रिपोर्ट बताती है कि मृत्युदंड की सजा पाए 23 फीसदी कैदी कभी स्कूल नहीं गए. वहीं, 9.6 फीसदी कैदी स्कूल तो गए लेकिन उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा पूरी नहीं की, जबकि 61.6 फीसदी कैदियों ने माध्यमिक स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ दी.
कभी स्कूल न गए कैदियों में सबसे ज्यादा संख्या बिहार में 35.3 फीसदी और उसके बाद कर्नाटक में 34.1 फीसदी है.
वहीं, 364 कैदियों में से 200 यानी 54.9 फीसदी कैदी ऐसे थे, जो दोनों स्थितियों से वंचित थे यानी उन्होंने माध्यमिक शिक्षा भी पूरी नहीं की थी और वे आर्थिक रूप से भी कमजोर थे.
साल 2009 में महाराष्ट्र में मुसहर जाति के दस लोगों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के 16 लोगों के नरसंहार के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी. दोषियों में से नौ निरक्षर थे और कभी स्कूल नहीं गए थे.
सभी दस कैदी अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले शख्स थे. इनमें से एक रामरंग के परिवार का कहना है कि रामरंग की गिरफ्तारी के बाद उसके दस साल के बेटे को मजबूरन मजदूरी करनी पड़ी.
कैदियों की जाति और धर्म
मृत्युदंड पाए 76 फीसदी कैदी पिछड़ी जाति और अल्पसंख्यक समुदाय से हैं. इनमें मृत्युदंड पाए गए अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कैदियों का अनुपात 24.5 फीसदी है.
ऐसे कैदियों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की भागीदारी, जिन राज्यों में सबसे अधिक है, वे गुजरात (79 फीसदी), केरल (60 फीसदी) और कर्नाटक (31.8 फीसदी) हैं.
इस अध्ययन में 373 कैदियों में से 31 कैदियों को आतंकी गतिविधियों के लिए मौत की सजा सुनाई गई थी, जिनमें 29 कैदी अनुसूचित जाति एवं धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से थे, जिनमें से 61.3 फीसदी मुसलमान थे.
मृत्युदंड की सजा पाने वाली महिला कैदी
अध्ययन के दौरान मृत्युदंड की सजा प्राप्त 12 महिला कैदियों से बातचीत की गई. घटना के समय इनमें से सात महिलाएं 26 से 40 वर्ष आयु के बीच की थीं, जबकि दो 21 से कम और एक 60 साल से ऊपर की थीं.
दिल्ली-महाराष्ट्र में मृत्युदंड की सजा पाई तीन-तीन महिलाएं, उत्तर प्रदेश में दो और छत्तीसगढ़, हरियाणा, कर्नाटक और मध्य प्रदेश में एक-एक महिला कैदी हैं.
सामाजिक स्थिति के संदर्भ में देखें तो मृत्युदंड पाने वाली सभी महिला कैदी पिछडे वर्ग या मुस्लिम समुदाय से जुड़ी हुई हैं. इनमें से सात पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की जबकि तीन अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति से जुड़ी हुई हैं. वहीं, बाकी की दो मुसलमान हैं.
महिला कैदियों की शैक्षणिक स्थिति के विश्लेषण से पता चला कि इनमें से छह कभी स्कूल नहीं गईं जबकि सात ने माध्यमिक शिक्षा पूरी नहीं की. इन महिला कैदियों की आर्थिक स्थिति की बात करें तो इनमें से नौ बेरोजगार थीं, एक मजदूर और अल्प आय वाली महिला थीं.
महिला कैदियों में से एक अमनप्रीत ने बताया कि वह गिरफ्तारी के समय गर्भवती थी और कैद के दौरान उनके शरीर को रोलर्स से दबाया गया, जिसके कारण उसका गर्भपात हो गया.
वहीं, एक अन्य महिला कैदी अकीरा ने बताया कि उन्हें बिजली के झटके दिए गए और उसके बाद घावों पर मिर्च पाउडर मला गया. ऐसा करते समय पुलिस टीवी की आवाज बढ़ा देती थी ताकि कोई उनकी चीख न सुन सके.
जेल में कैदियों के साथ हिंसा
रिपोर्ट में कैदियों की गिरफ्तारी के समय के अनुभव और ट्रायल से पहले उनके साथ पुलिस और जांच एजेंसियों द्वारा किए गए बर्ताव का विवरण भी है.
कैदियों के इन अनुभवों से जेल में साथी कैदियों द्वारा की जा रही हिंसा, जेल कर्मचारियों की मिलीभगत या सबसे बदतर जेल के अधिकारियों द्वारा हिंसा का पता चलता है.
यौन अपराधों और आतंकी अपराधों के लिए मौत की सजा पाने वाले कैदियों को विशेष तौर पर ऐसी हिंसा का सामना करना पड़ता है. शारीरिक हिंसा के अलावा कैदियों को अपने साथी कैदियों के हाथों अपमान और बहिष्कार का भी सामना करना पड़ता है.
अध्ययन में 204 कैदियों में से 120 ने स्वीकार किया है कि पुलिस ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया है और धमकी भी दी है.
इस अध्ययन में शामिल 80 फीसदी कैदियों ने स्वीकार किया कि पुलिस हिरासत में उन्हें यातनाएं सहनी पड़ी हैं.
पुलिस द्वारा यातना देने के तरीके अमानवीय, अपमानजनक और शारीरिक एवं मानसिक पीड़ादायक रहे हैं, जिनका कैदियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा है.
कलाम को नारकोटिक्स ड्रग्स और साइकोट्रोपिक सब्सटेंसेस एक्ट (एनडीपीएस) की धारा 31ए के तहत अक्टूबर 2000 में उसे अपने इकबालिया बयान और सह-अभियुक्त के बयान के आधार पर मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी.
हालांकि, इन बयानों को इस आधार पर वापस ले लिया गया था कि ये यातना देकर लिए गए थे. उनका कहना था कि उन्हें गंभीर रूप से पीटा गया था और जलती सिगरेट से उसके शरीर को जलाया गया था.
हालांकि हाईकोर्ट ने फैसले को बरकरार रखा लेकिन इस फैसले के खिलाफ एक अपील 2009 में सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.
कैदियों के मुताबिक, इन यातनाओं से स्थाई रूप से उनकी आंख और कान को नुकसान पहुंचा है, उनके शारीरिक अंगों को क्षति पहुंची है. रीढ़ की हड्डी आदि पर गंभीर चोटें आई हैं. बिजली के झटकों के कारण कैदियों को गंभीर सिर दर्द से गुजरना पड़ा है.
रिपोर्ट में कैदियों को दी जाने वाली जो अन्य प्रकार की यातनाएं बताई गई हैं, उनमें नाखूनों को खींचकर निकलाना, शौचालय में मुंह डालना, हीटर पर पेशाब करने के लिए मजबूर करना, सिर को दीवार या कांच पर दे मारना, बहुत देर तक बैठने नहीं देना आदि हैं.
हिरासत में कैदियों के साथ सबसे अधिक हिंसा हरियाणा और गुजरात में किए जाने की पुष्टि हुई है.
परिवार को गिरफ्तारी की सूचना के अधिकार से वंचित रखना
सीआरपीसी की धारा 50 ए के तहत किसी शख्स की गिरफ्तारी पर पुलिस अधिकारी को तुरंत उसके परिवार, दोस्त या किसी जानकार को सूचित करने का प्रावधान है लेकिन अध्ययन के दौरान 195 ऐसे परिवार मिले, जिनमें से सिर्फ 20 परिवारों ने कहा कि उन्हें पुलिस ने गिरफ्तारी के बारे में जानकारी दी थी.
एक अन्य महत्वपूर्ण कारक जिस पर ध्यान देना चाहिए, वह कैदी की गिरफ्तारी के बारे में न बताए जाने के कारण परिवार पर पड़ने वाला मनोवैज्ञानिक प्रभाव है. इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि उपेक्षित समाज पर मृत्युदंड का असामान्य असर होता है.
कैदियों के मानवाधिकारों का उल्लंघन
संविधान का अनुच्छेद 22 (2) स्पष्ट करता है कि हर व्यक्ति जिसे गिरफ्तार कर हिरासत में रखा गया है, उसे 24 घंटे की अवधि के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाए.
मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना किसी को हिरासत में नहीं रखा जा सकता लेकिन रिपोर्ट कहती है कि 166 कैदियों का कहना है कि उन्हें 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया गया.
ट्रायल के दौरान अदालत में अभियुक्त की मौजूदगी आपराधिक न्याय प्रणाली के लिए जरूरी है, निष्पक्ष सुनवाई की दिशा में यह पहला कदम है क्योंकि इससे आरोपी को अपने खिलाफ मामले को समझने का अवसर मिलता है.
सीआरपीसी की धारा 273 में यह प्रावधान है कि ट्रायल की कार्यवाही के दौरान सभी सबूत आरोपी की मौजूदगी में लिए जाने चाहिए और अगर आरोपी मौजूद नहीं है तो उसके वकील की उपस्थिति में ऐसा किया जाए.
अध्ययन के दौरान 225 कैदियों में से सिर्फ 57 कैदियों ने कहा कि वे सुनवाई के दौरान मौजूद थे.
मुहाफिज नामक कैदी ने बताया कि वह बचाव पक्ष के दो गवाहों के बयान के दौरान तो अदालत में मौजूद थे लेकिन बाकी की अदालती कार्यवाही में उन्हें कोर्ट के लॉकअप में ही रखा जाता था.
मुकदमे की कार्यवाही की समझ
मुकदमे के लिए अगर आरोपी को अदालत में पेश भी किया जाता है तो उन्हें कार्यवाही की विषयवस्तु या उसका अर्थ समझने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है.
मुकदमे के दौरान अपने अनुभव साझा करने वाले 286 कैदियों में से 156 ने कहा कि उन्हें कार्यवाही बिल्कुल समझ नहीं आई थी.
इतना ही नहीं अदालत में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा कैदियों के लिए एक और बाधा है क्योंकि वे अंग्रेजी बहुत कम समझ पाते हैं.
मामले की सुनवाई से पहले पुलिस हिरासत में किसी आरोपी को वकील मुहैया कराना सुप्रीम कोर्ट द्वारा महत्वपूर्ण माना गया है लेकिन 191 कैदियों में से 185 कैदियों का कहना है कि उनके पास वकील नहीं थे.
खास बात यह है कि इन 185 कैदियों में से 144 आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से जुड़े हुए थे.
बिनेश उस समय 21 साल का था, जब उसे एक नाबालिग के बलात्कार और हत्या का दोषी ठहराया गया था. बिनेश कभी स्कूल नहीं गए.
उनका कहना है कि हालांकि मुकदमा उनकी मातृभाषा में ही आगे बढ़ा था लेकिन इसके बावजूद वह अदालत की जटिल कार्यवाही को समझने में असमर्थ रहे.
सरकारी वकील बनाम निजी वकील का द्वंद
कैदियों और परिवार वालों से बातचीत से पता चला कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट में एक विशाल बहुमत उन कैदियों का था, जिनका प्रतिनिधित्व निजी वकीलों ने किया था.
बता दें कि 70.6% कैदी जिनका ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट में निजी वकीलों ने किया, वे आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के हैं लेकिन वे सरकारी वकीलों के डर से निजी वकीलों को लेने के लिए मजबूर हुए.
उनका मानना था कि निजी वकील उन्हें बेहतर कानूनी प्रतिनिधित्व प्रदान करेंगे लेकिन वास्तविकता में ऐसा हुआ हो यह जरूरी नहीं था.
आर्थिक रूप से कमजोर परिवार जिन्होंने ट्रायल कोर्ट या हाईकोर्ट में निजी वकीलों को नियुक्त किया और खर्च के बारे में बात की उनसे पता चला कि निजी कानूनी प्रतिनिधित्व के लिए कई लोगों ने पैसे उधार लिए या उन्हें घर, भूमि, आभूषण, मवेशियों या अन्य सामानों को बेचना पड़ा.
बता दें कि 258 में से 181 कैदियों का कहना है कि उनके वकील उनके साथ मामलों पर विस्तृत चर्चा नहीं करते. हाईकोर्ट में 68.4% कैदियों ने अपने वकीलों से बात नहीं की, यहां तक कि उनसे उनकी मुलाकात भी नहीं हुई.
सुप्रीम कोर्ट में तय या लंबित मामलों में से 44.1% कैदियों को उनका प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों के नाम तक नहीं पता थे और न ही उनसे उनकी कभी मुलाकात हुई.
मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों के जेल में आखिरी पल
किसी मामले में मृत्युदंड की सजा पाए कैदियों के फांसी होने तक जेल में रहने के आखिरी पल मानसिक तौर पर बहुत पीड़ादायक होते हैं. जेल की कठोर शर्तें उन्हें और मुश्किल बना देती हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि यह मनोवैज्ञानिक तौर पर इतना भयावह होता है कि कई कैदियों ने उन्हें मौत का इंतजार करने के बजाय तुरंत फांसी पर चढ़ाए जाने की इच्छा जताई.
बाबूराव मोरे 11 सालों से जेल में हैं और अपनी मौत की सजा पर दया याचिका का इंतजार कर रहे हैं.
उनका कहना है कि वह चाहते हैं कि उन्हें तुरंत फांसी हो जाए क्योंकि उन्हें लगता है कि वह पहले से ही अधमरे हैं और खौफ के साथ अपनी मौत का इंतजार नहीं कर सकते.