बिहार: फ्लोराइड से बर्बाद होती पीढ़ियां चुनावी मुद्दा क्यों नहीं है

ग्राउंड रिपोर्ट: गया शहर से 8 किलोमीटर दूर चूड़ी पंचायत के चुड़ामननगर में कमोबेश हर परिवार में कम से कम एक व्यक्ति पानी से मिले फ्लोराइड के चलते शरीर में आई अक्षमता से प्रभावित है. बड़े-बड़े चुनावी वादों के बीच इस क्षेत्र के लोगों को साफ़ पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधा भी मयस्सर नहीं है.

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सुनीता देवी के पैर टखने के पास बेतरतीब तरीके से मुड़ गए हैं.

ग्राउंड रिपोर्ट: गया शहर से 8 किलोमीटर दूर चूड़ी पंचायत के चुड़ामननगर में कमोबेश हर परिवार में कम से कम एक व्यक्ति पानी से मिले फ्लोराइड के चलते शरीर में आई अक्षमता से प्रभावित है. बड़े-बड़े चुनावी वादों के बीच इस क्षेत्र के लोगों को साफ़ पीने के पानी जैसी बुनियादी सुविधा भी मयस्सर नहीं है.

कृष्णा मांझी के हमउम्र नरेश मंडल ने कहा कि कुछ साल पहले तक वह पूरी तरह स्वस्थ थे और साथ में फुटबॉल खेलते थे. (सभी फोटो: उमेश कुमार राय)
कृष्णा मांझी के हमउम्र नरेश मंडल ने कहा कि कुछ साल पहले तक वह पूरी तरह स्वस्थ थे और साथ में फुटबॉल खेलते थे. (सभी फोटो: उमेश कुमार राय)

गया/पटना: कृष्णा मांझी की उम्र सिर्फ 35 साल है. लेकिन देखने से वह कुछ ज्यादा उम्र के लगते हैं. उनकी गर्दन इतनी झुकी हुई रहती है कि वह नजर मिलाकर किसी से बात नहीं कर पाते हैं. कमर सीधी कर वह चल नहीं पाते हैं और पैर की हड्डियां अस्वाभाविक तौर पर पतली और टेढ़ी हैं.

चलने-फिरने के लिए उन्हें लाठी का सहारा लेना पड़ता है. कृष्णा के मां-बाप नहीं हैं. अलबत्ता दो भाई हैं, जो अलग रहते हैं. विशेष रूप से सक्षम होने के चलते कृष्णा की शादी नहीं हो पाई है.

कृष्णा के हमउम्र नरेश मंडल कहते हैं, ‘7-8 साल पहले तक कृष्णा बिल्कुल स्वस्थ थे और हमारे साथ फुटबॉल खेला करते थे फिर धीरे-धीरे उनकी कमर, गर्दन और घुटनों में दर्द शुरू हो गया और फिर लाठी पकड़ ली.’

कृष्णा मांझी बिहार की राजधानी पटना से 100 किलोमीटर दूर और गया शहर से सिर्फ 8 किलोमीटर दूर चूड़ी पंचायत के चुड़ामननगर में रहते हैं.

इस गांव के कमोबेश हर परिवार में कम से कम एक कृष्णा मांझी है, जो इस तरह की तकलीफ झेल रहा है. कृष्णा मांझी और उन जैसे दर्जनों लोगों को ये विकलांगता पानी से मिली है.

दरअसल गांव के भूगर्भ जल में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य कई गुना ज्यादा है.

फ्लोराइड एक खनिज है, जो भूगर्भ में पाया जाता है. भूगर्भ से पानी निकालने पर पानी के साथ फ्लोराइड आ जाता है. जब फ्लोराइड का सेवन अत्यधिक मात्रा में किया जाता है, तो ये हड्डियों पर गहरा असर डालता है. इससे हड्डियां कमजोर और टेढ़ी हो जाती हैं.

ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड (बीआईएस) ने पानी में फ्लोराइड की स्वीकार्य मात्रा 1 मिलीग्राम प्रति लीटर तय की है, लेकिन साल 2016 में लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग ने जांच में चुड़ामननगर के भूगर्भ जल में 3.44 मिलीग्राम/लीटर फ्लोराइड पाया था.

लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग के मुताबिक, बिहार के 11 जिलों के 98 ब्लॉक की 4,157 बसाहटों में भूगर्भ जल में फ्लोराइड की मात्रा सामान्य से काफी ज्यादा है.

इसका मतलब है कि बिहार की इन 4,157 बसाहटों में हजारों की संख्या में कृष्णा मांझी मौजूद हैं, जिन्हें बुनियादी जरूरत यानी साफ पानी भी मयस्सर नहीं है.

फ्लोराइड से होने वाली विकलांगता इनके लिए सामाजिक शर्म का कारण भी बनती है. सरकारी लापरवाही के चलते अच्छी-खासी जिंदगी इनके लिए बोझ बन रही है.

लेकिन दुर्भाग्य ये है कि जात और जमात पर वोट इकट्ठा करने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए फ्लोराइड कभी चुनावी मुद्दा नहीं बन पाता है. पानी पीकर विकलांग हो रहे लोग इस बार होने जा रहा विधानसभा चुनाव में भी मुद्दा नहीं हैं.

जाने-माने पर्यावरणविद व फिलहाल राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के चेयरमैन अशोक घोष ने अपने शोधपत्र ‘फ्लोराइड कंटेमिनेशन इन ग्राउंड वाटर-द प्रॉब्लम एंड इंटीग्रेटेड मैनेजमेंट’ में बताया है कि अत्यधिक फ्लोराइडयुक्त पानी के सेवन से दांत का फ्लोरोसिस, हड्डियों का फ्लोरोसिस हो जाता है.’

पटना महिला कॉलेज में जूलॉजी विभाग की प्रोफेसर शहला यासमीन ने बताया, ‘एक्विफर के कारण एक गांव में एक हैंडपंप में फ्लोराइड कम और दूसरे हैंडपंप में ज्यादा हो सकती है.’

दिलचस्प ये भी है जिन बसाहटों में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है और तब भी लोग फ्लोराइडयुक्त पानी पीने को विवश हैं, उनका जातीय प्रोफाइल देखें, तो ज्यादातर लोग पिछड़ी व दलित जातियों से आते हैं.

सुनीता देवी के पैर टखने के पास बेतरतीब तरीके से मुड़ गए हैं.
सुनीता देवी के पैर टखने के पास बेतरतीब तरीके से मुड़ गए हैं.

चुड़ामननगर की ही बात करें, तो यहां के 150 परिवारों में से 80 से 90 परिवार मांझी (मुसहर) बिरादरी से आते हैं. बाकी आबादी पासी और साव की है.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 के मुताबिक, गया जिले के 6 महीने से 23 महीने के 6.4 प्रतिशत बच्चों को ही संतुलित आहार मिल पाता है. वहीं, 5 साल से कम उम्र के 52.9 फीसदी बच्चे बौनेपन के शिकार हैं और 53.1 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है.

शहला यासमीन ने बताया, ‘अलग-अलग बच्चों में फ्लोरोसिस का अलग-अलग असर देखने को मिलता है. ये पौष्टिक आहार पर निर्भर करता है. अगर कोई बच्चा पौष्टिक आहार लेता है, तो उसमें कम फ्लोरोसिस का असर कम दिखेगा. जो बच्चा कुपोषित होगा, उसमें फ्लोरोसिस का प्रभाव अधिक नजर आएगा.’

सरस्वती कुमारी की उम्र महज 5 साल है. उसका पैर भी धनुष की तरह हल्का मुड़ा हुआ है. हाथ भी टेढ़ा हो गया है. वह सामान्य व्यक्ति की तरह चल नहीं पाती है.

सरस्वती की मां सरिता देवी कहती हैं, ‘जब पैदा हुई थी, तो बिल्कुल स्वस्थ थी. वे कहती हैं, ‘दो साल बाद वह लंगड़ाकर चलने लगी. डॉक्टर से दिखाया, तो बताया गया कि दवा से ठीक हो जाएगी, लेकिन दवा ने कोई असर नहीं दिखाया.’

सरिता के पति पास की पहाड़ी में ही पत्थर तोड़ते हैं, जहां 200 रुपये दिहाड़ी मिलती है. ‘हम लोग गरीब आदमी हैं, कितना दिन तक इलाज कराते रहते, इसलिए बाद में इलाज कराना छोड़ दिया.’

सरिता देवी का परिवार अकेला परिवार नहीं है, जो पत्थर तोड़कर व खेतों में काम कर गुजारा कर रहा है. गांव की 90 प्रतिशत आबादी इन्हीं कामों पर निर्भर है क्योंकि यहां के लोग भूमिहीन हैं.

इस टोले के लोगों को साफ पानी देने के लिए बिहार के लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग की तरफ से एक दशक पहले विशालकाय मशीन लगाई गई थी, लेकिन लंबे समय से मशीन खामोश है.

मशीन की देखरेख करने वाले राम प्रवेश मांझी ने बताया, ‘2,000-2,500 रुपये माहवार पर मुझे मशीन के संचालन के लिए रखा गया था. तीन-चार महीने मुझे तनख्वाह मिली, लेकिन इसके बाद मशीन भी बंद हो गई और मेरी तनख्वाह भी. तबसे अब तक कोई भी सरकारी अधिकारी मशीन का हाल जानने नहीं आया.’

फिलवक्त, एक एनजीओ की तरफ से लगाए गए फिल्टर से कुछ परिवारों को साफ पानी मिल रही है, लेकिन ज्यादातर परिवार अब भी फ्लोराइडयुक्त पानी ही पी रहे हैं.

उल्लेखनीय है कि बिहार में एनडीए सरकार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने वर्ष 2016 में अपनी महात्वाकांक्षी सात निश्चय योजना के तहत हर घर में नल के जरिये साफ पानी पहुंचाने का निर्णय लिया था.

3 मार्च 2016 को लोक स्वास्थ्य अभियंत्रण विभाग की तरफ से जारी एक पत्र में कहा गया था कि बिहार के फ्लोराइड व आर्सेनिक प्रभावित इलाकों में पांच साल में शुद्ध पेयजल की आपूर्ति के लिए 7439.25 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे, लेकिन सड़क से सीधे तौर पर जुड़े होने के बावजूद चुड़ामननगर तक ये योजना नहीं पहुंच पाई है.

गांव के अधेड़ जीतेंद्र मांझी अब कोई काम करने लायक नहीं हैं. इसी उम्र में वह लाठी लेकर चलते-फिरते हैं. उनकी तीन बेटी और दो बेटे हैं. अभी परिवार का जिम्मा उनका 17 साल का बेटा संभालता है.

जमीन पर बैठे जीतेंद्र मांझी ने कहा, ‘मैं 7 साल से कोई काम नहीं कर पा रहा हूं. पत्नी ईंट-बालू ढोती थी, उसी कमाई से परिवार चलता था. एक साल पहले उसकी मौत के बाद बड़ा बेटा मजदूरी कर परिवार चला रहा है.’

‘खुले में शौच मुक्त भारत’, ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘मनरेगा’, ‘रोजगार’ और ‘हर घर नल का जल योजना’ को चुड़ामननगर मुंह चिढ़ाता नजर आता है.

यहां के लोगों के पास रोजगार के नाम पर पत्थर तोड़ने, ईंट-बालू ढोने के अलावा और कोई काम नहीं है. लेकिन ये काम भी नियमित नहीं मिलता. मोहल्ले के ज्यादातर पुरुष या तो नशे में दिखे या थक कर सोते हुए.

जीतेंद्र मांझी सात साल से कोई भी काम कर पाने की हालत में नहीं हैं.
जीतेंद्र मांझी सात साल से कोई भी काम कर पाने की हालत में नहीं हैं.

बिहार विधानसभा चुनाव की सरगर्मियों में भी ये टोला सुस्त और शांत है, मानो टोले की हर चीज फ्लोरोसिस की जद में आ गई हो.
अलबत्ता, महिलाएं ज्यादा मुखर नजर आती हैं.

दुबली-पतली और छोटी कदकाठी की रंजू देवी शौचालय, साफ पानी और रोजगार का इंतजाम नहीं होने के कारण मौजूदा सरकार से बेहद खफा हैं.

वह कहती हैं, ‘सरकार से हमलोगों को कोई सुविधा नहीं मिल रही है. न साफ पानी मिल रहा और न ही सरकार हमारे लिये रोजगार का इंतजाम कर रही है.’

रंजू देवी के साथ और पांच-छह महिलाएं हैं, जो अपनी गोद में नंगे दुधमुंहे बच्चों को संभाले हुए हैं. वे रंजू देवी की बातों से सहमति जताती हैं. फिर सभी एक साथ सरकार से शिकायतें करने लगती हैं.

एक महिला कहती हैं, ‘हम लोगों को सड़क पर मरने देने से अच्छा है कि सरकार बम से ही उड़ा दे.’ एक अन्य कहती हैं, ‘हमारी समस्याओं को कई बार सरकारी अधिकारी लिखकर ले गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ.’

तीसरी ने कहा, ‘आपकी तरह पहले भी बहुत लोग आए, फोटो खींचकर ले गए, पर हमारी हालत जस-की-तस है.’

सरकार की अनदेखी और मीडिया तथा एनजीओ के बार-बार यहां आने से स्थानीय लोगों में नाराजगी भी है. उन्हें लगता है कि लोग उनकी दयनीय तस्वीर को भुनाते हैं, जिससे उन्हें बदनामी के सिवा कुछ नहीं मिलता.

लोगों में ये डर भी है कि यहां के बच्चों की विकलांगता की तस्वीरें अखबारों में छप जाएंगी, तो उनकी बहुत बदनामी होगी और कोई यहां शादी का रिश्ता लेकर नहीं आएगा. कई लोगों ने यही हवाला देकर तस्वीर देने से मना कर दिया.

टोले से निकलते वक्त एक महिला मिली, जिसकी लंबाई सामान्य से काफी कम थी. उसके पैर टखने के पास अजीब तरीके से मुड़े हुए थे, जैसे कोई मशीन लगाकर हड्डी मोड़ दी गई हो.

20 साल की इस महिला ने अपना नाम सुनीता देवी बताया. उन्होंने पहले तस्वीर लेने से मना कर दिया, लेकिन बाद में वे तैयार हो गईं.

उन्होंने बताया कि 7-8 साल की उम्र तक वह बिल्कुल ठीक थीं, लेकिन धीरे-धीरे उनके पैर में टेढ़ापन आने लगा. वह खुद को खुशनसीब समझती हैं कि उनकी शादी हो गई है.

शरीर में फ्लोरोसिस का जहर लेकर जवान हो रही इस टोले की नई पीढ़ी में काम और शादी कर सामान्य जिंदगी जीने की दोहरी चिंता है, लेकिन विधानसभा चुनाव में इसकी चर्चा तक नहीं है.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)