इस्मत चुग़ताई: परंपराओं से सवाल करने वाली ‘बोल्ड’ लेखक

इस्मत कहा करती थीं, 'मैं रशीद जहां के किसी भी बात को बेझिझक, खुले अंदाज़ में बोलने की नकल करना चाहती थी. वो कहती थीं कि तुम जैसा भी अनुभव करो, उसके लिए शर्मिंदगी महसूस करने की ज़रूरत नहीं है, और उस अनुभव को ज़ाहिर करने में तो और भी नहीं है क्योंकि हमारे दिल हमारे होंठों से ज़्यादा पाक़ हैं...'

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इस्मत चुग़ताई. [जन्म- 21 अगस्त 1915-अवसान 24 अक्टूबर 1991] (फोटो साभार: पेंगुइन इंडिया)

इस्मत कहा करती थीं, ‘मैं रशीद जहां के किसी भी बात को बेझिझक, खुले अंदाज़ में बोलने की नकल करना चाहती थी. वो कहती थीं कि तुम जैसा भी अनुभव करो, उसके लिए शर्मिंदगी महसूस करने की ज़रूरत नहीं है, और उस अनुभव को ज़ाहिर करने में तो और भी नहीं है क्योंकि हमारे दिल हमारे होंठों से ज़्यादा पाक़ हैं…’

इस्मत चुग़ताई. [जन्म- 21 अगस्त 1915-अवसान 24 अक्टूबर 1991] (फोटो साभार: पेंगुइन इंडिया)
इस्मत चुग़ताई. [जन्म- 21 अगस्त 1915-अवसान 24 अक्टूबर 1991] (फोटो साभार: पेंगुइन इंडिया)
उर्दू साहित्य की अविस्मरणीय लेखिका इस्मत चुगताई की पुण्यतिथि पर आज बात करने का उद्देश्य सिर्फ उनकी ज़िंदगी का जश्न मनाना नहीं है, क्योंकि जिस व्यक्ति को स्वयं पुण्यतिथियां मनाने की रवायत से कोफ़्त हो, उनकी पुण्यतिथि को याद करना तो किसी हिमाकत से कम नहीं है.

इस्मत चुगताई के उनके अज़ीज़ दोस्त सआदत हसन मंटो के गुजरने के बाद उन्हें मिलने वाली इज़्ज़तअफ़ज़ाई से बड़ी हैरत में रहती थीं.

हैरत की वजह भी थी कि जिस व्यक्ति, उसकी लेखनी को जीते जी सम्मान और प्रशंसा के क़ाबिल नहीं समझा गया, विकृत और अश्लील साहित्य कहकर साहित्य की कोटियों में नीचे रखा गया, निंदा और गाली-गलौज की हद तक जा पहुंचे पत्रों से जिसकी अलमारियां भर दी गईं हों, उस मंटो के लिए उसके निधन के बाद साहित्य सभाएं करना, पत्रिकाओं के समर्पित ‘मंटो’ विशेषांक निकालना अगर समाज का दोगलापन नहीं तो और क्या था?

और इसी विरोधाभास को लक्ष्य करते हुए इस्मत ने अपने एक साक्षात्कार में भी कहा था,

‘जब मंटो का इंतकाल हुआ, तो ‘नक़्श’(पत्रिका) में उसे समर्पित करता हुआ मंटो अंक निकला था. अभी 18 जनवरी को पाकिस्तान में उसकी पुण्यतिथि मनाई जाने वाली थी, तो उसी सिलसिले में आयोजकों ने मुझसे भी मंटो पर कुछ लिखने को कहा. मैंने एक चिट्ठी लिखकर पूछा कि वह ‘मंटो’ की पुण्यतिथि पर जश्न क्यों मना रहे हैं. मैंने आलेख नहीं लिखा, पर उस आयोजन के अध्यक्ष से यह पूछा कि आप अब क्यों उसकी पुण्यतिथि मना रहे हैं?… अब अचानक से आपको ये लगने लगा है कि वह एक महान आदमी था? जैसे ही वह मरा, आप लोग उसकी पूजा करने लगे? क्या बकवास है ये? मरे हुए लोगों को पूजना.’

जब अपने व्यक्तित्व को एक बंधे-बंधाए फार्मूला पर ही ढालने की जरूरत न महसूस हो तो अक्सर वह व्यक्तित्व उभरकर सामने आता है जो किसी भी तरह के दिखावे से रहित, बेबाक और पारदर्शी होता है.

कुछ ऐसे ही इस्मत चुगताई का व्यक्तित्व उर्दू साहित्य ही में नहीं बल्कि अपने समकालीन समाज के लिए भी एक ज़बरदस्त आंदोलन लेकर आया था.

उनके व्यक्तित्व की तेजस्विता अपने दौर की महिलाओं के औसत व्यक्तित्व की तुलना में एक दुर्लभ घटना थी. और इस तूफानी व्यक्तित्व का आभास हमें उनके साहित्य से तो बाद में पता चलता है, पर उनके साक्षात्कारों में जिस साफ़गोई से वह अपनी बात रखती हैं, उनके व्यक्तित्व के बारे में बतलाने के लिए काफी है.

उर्दू में प्रगतिशील साहित्य को परिभाषित करने में अगर रशीद जहां ने ‘अंगारे’ में एक बीज जैसी शुरुआत की थी, तो चुगताई उसी बीज से निकला वह विशालकाय वटवृक्ष थीं, जिसने साहित्य के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन की संभावनाओं को एक स्पष्ट और सशक्त आकार दिया.

चुगताई ने खासकर के एक ऐसे समय में जब स्त्रियों द्वारा लेखन ही बड़ी बात थी और जो भी था वह परंपरा के ही अनुकूल था, ऐसे में साहित्य की उस वैकल्पिक धारा का सोता खोल कर रख दिया, जिसने परंपराओं से प्रश्न करना और रूढ़ियों को तार-तार करना भी साहित्य का एक उद्देश्य बना दिया.

उन्होंने अपने मुस्लिम संदर्भों पर जिस कदर लेखनी चलाई है, वह किसी समाजशास्त्रीय अध्ययन से कम नहीं है. कल्पना के प्रयोग से लिखी उनकी कहानियों और उपन्यासों में यथार्थ का वह विचित्र रूप दिख जाता है, जो उनकी बेहतरीन किस्सागोई का उदाहरण है.

मुस्लिम मध्य वर्ग की स्त्रियों के जितने भी संभव चित्र हो सकते हैं, वह हू-ब-हू उनके रचना संसार का हिस्सा बन जाते हैं और इन चित्रों के माध्यम से उन्होंने इन साधारण-से लगने वाले चरित्रों के असाधारण अन्तः जगत का उद्घाटन किया है.

उनके समकालीन उर्दू साहित्य, जहां रजिन्दर सिंह बेदी, सआदत हसन मंटो और कृश्न चंदर का नाम उल्लेखनीय है, इस्मत का स्थान सबसे विशिष्ट रहा है, तो इसलिए कि उन्होंने स्त्री के मनोजगत के उस भीतरी संसार को पन्नों पर लाया जो अब तक उर्दू ही नहीं, पूरे भारतीय साहित्य में भी ढका हुआ था.

दुनिया में समाज-संस्कृति, राजनीति, इन सबको बनाने-चलाने वाले अकसर पुरुष ही हुए हैं, ऐसे में अगर औरतें अपने अनुभव के आधार पर अपनी बात रखती हैं तो उसे सिर्फ एक ‘महिला की उक्ति’ के रूप में देखकर एक अत्यंत सीमित दायरे में परिभाषित कर दिया जाता है.

हमारे इतिहास, भूगोल, धर्म, संस्कृति, राजनीति, इन सब को मात्र पुरुषों द्वारा कही गई उक्ति मान कर तो सीमित या अस्वीकार नहीं कर दिया जाता? यह सामाजिक स्वीकार्यता युगों-युगों से चली आ रही है.

इस तरह यह स्वतः सिद्ध है कि स्त्री को वाकई हमारे समाज ने पुरुषों से दोयम दर्जे पर रखा हुआ है, तभी तो उनके द्वारा कहे गए अनुभवों को एक विशिष्ट कैटेगरी/खांचे में डाल कर सार्वभौमिकता के तत्व या सैद्धांतिक स्वीकार्यता के पक्ष से एकदम ही रहित कर दिया जाता है.

इस्मत चुगताई के साहित्य के संदर्भ में भी यह विश्लेषण अनिवार्य रूप से महत्वपूर्ण है. प्रसिद्ध आलोचक और साहित्य-इतिहासकार रक्षंदा जलील इस संदर्भ में लिखती हैं,

‘अपने जीवनकाल में ही इस्मत को एक विशिष्ट अर्थों में, कुछ विशिष्ट छवियों में रूढ़ कर दिया गया था: मसलन, एक महिला लेखक जो तथाकथित ‘बोल्ड’ विषयों पर लिखती हैं, जो बेबाक कुछ भी कहने की क्षमता रखती हैं, जो उत्तेजक वक्तव्य दे सकती हैं, जो एक तरह से बातूनी भी हैं और व्यंग्य कस सकती हैं, इसलिए बहुत ज़्यादा गंभीरता से भी लेने की आवश्यकता जिन्हें नहीं है.’

इसलिए जिस प्रकार की लोकप्रियता इस्मत को हासिल हुई थी, उसने उनके साहित्य के विशुद्ध साहित्यिक दृष्टि से मूल्यांकन के अवसर से इस्मत को बहुत हाल तक वंचित रखा था.

यहां तक कि इस्मत के मित्र कृश्न चंदर भी उनकी रचना ‘चोटें’ की भूमिका लिखते हुए इस्मत को एक महिला लेखक के रूढ़ विशेषण में ही बांधकर देखते हुए लिखते हैं, ‘… उसकी कहानियां को समझना उतना ही दुरूह और कठिन है, जितना एक स्त्री के हृदय की थाह पाना.’

इस्मत की रचनाओं पर बारंबार उसके आपत्तिजनक थीम को लेकर वाद-विवाद हुए हैं. मध्यवर्गीय संभ्रांत संवेदना के लिए उनकी रचनाओं की कथावस्तु और स्त्री पात्रों का व्यक्तित्व कुछ अधिक ही बोल्ड लगता है.

पर इस संदर्भ में वह जिस प्रकार से अपनी बात रखती हैं, वह उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता और अपने विश्वासों के प्रति अडिग बने रहने का ही नमूना है,

‘अपनी कहानियों में मैंने सब कुछ एक वस्तुनिष्ठता/तटस्थता के साथ लिखा है. अब अगर कुछ लोग इन्हें आपत्तिजनक या गंदा मानते हैं, तो वो भाड़ में जाएं. मेरा ये विश्वास है कि वैसे अनुभव कभी भी अश्लील नहीं हो सकते जो ज़िंदगी के प्रामाणिक यथार्थ पर आधारित होते हैं. ऐसे लोग सोचते हैं कि पर्दों के पीछे छुपे रहकर कुछ करने में कोई आपत्ति नहीं है… ये सभी लोग सिरफिरे और मूर्ख हैं.’

इस्मत की रचनाधर्मिता अगर बोल्ड थीम को अपना आधार बनाकर चलती है, तो वह सिर्फ इसीलिए कि वह समाज द्वारा निर्धारित ‘पारंपरिक’ नैतिकता को चुनौती दे सके.

अगर उनकी कहानियों की स्त्रियां अपने जीवन में चयन की आजादी के पक्ष में खड़ी और रूढ़ियों की मुखालिफत करती दिखती हैं, तो वो इसीलिए कि वह पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए नियत किए गए स्थान को स्वीकार नहीं करना चाहतीं.

इसीलिए अगर उनकी रचनाओं को यदि सिर्फ स्त्रियों के आंतरिक मनोजगत और यौन इच्छाओं के प्रदर्शन के दायरे तक ही सीमित करके  देखा जाए, तो यह देखने वालों की अपनी दृष्टि का ही दोष है जैसा कि स्वयं प्रगतिवादी आलोचकों की इस्मत की रचनाओं की इकहरी आलोचनाओं में झलकता है.

अज़ीज़ अहमद जैसे आलोचक तो इस्मत की कहानियों में उनकी खुद की उपस्थिति को ही देखते हैं और रचना के आत्मकथात्मक स्वरूप को बार-बार रेखांकित करते हैं.

पर जलील कहती हैं कि ‘मेरी नज़र में तो इस विशेषता को चुगताई के लेखन की सबसे बड़ी ताकत के तौर पर देखा जाना चाहिए. एक ऐसी क्षमता जहां अपने सबसे निजी और आस-पास के अनुभव से एक ऐसा कथा संसार रच पाना, जो देश-काल की सीमाओं को लांघता हुआ, समकालीन परिप्रेक्ष्य के कई मुद्दों जैसे कि नारीवाद, धर्मनिरपेक्षता, राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद विरोधी चेतनाओं, से लैस हो जाता है, तो यह ही तो एक नैसर्गिक लेखक की सबसे बड़ी पहचान है.’

इस्मत के जीवन के साथ विरोधाभास भी साथ-साथ लगे हुए थे. एक तरफ असीम लोकप्रियता, तो वहीं आलोचनाओं की भी पराकाष्ठा भी उन्होंने देखी.

स्वयं उनके प्रगतिशील आंदोलन के साथियों ने उनके साहित्य की कथा वस्तु पर प्रश्न-चिह्न लगाए थे. पर देखा जाए तो उनकी सबसे विवादास्पद कहानी लिहाफ़, जिसके चलते उन्हें कई आलोचनाओं यहां तक कि अश्लीलता के आरोप मेंअदालती मुक़दमे का भी सामना करना पड़ा, पर भी किसी भी तरह से अतिशय सेक्सुअल होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता है.

पर अपनी रचनात्मकता पर लगने वाले इन आरोपों से वह कभी बहुत ज़्यादा प्रभावित हुई हों, ऐसा नहीं था. वह स्वयं यह स्वीकार करती थीं कि ‘लाहौर में चले इस मुक़दमे ने मुझे और मंटो (उसी मुक़दमे में सह अभियुक्त) को न ही मानसिक रूप से परेशान किया था और न ही उसके जीत जाने की खुशी ही हमें हुई थी.’

एक साहित्यकार के बनने में कई सारी शक्तियां अपने-अपने स्तर पर कार्य करती दिखतीं हैं. थोड़े गैर-पारंपरिक पृष्ठभूमि से आने की वजह से इस्मत के उच्च मध्यवर्गीय परिवार में एक प्रकार का खुलापन था.

पिता की तबादले वाली सरकारी नौकरी की वजह से बचपन और बड़े होने के दिन विभिन्न स्थानों पर बीते. भाइयों के साथ पले-बढ़े होने के कारण इस्मत ने कभी खुद को लड़कों से कम नहीं समझा. और यह भी घर की उदार तरबियत का ही असर था कि उन्होंने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि एक स्त्री होने के नाते उन्हें शर्माना चाहिए या दबा हुआ होना चाहिए.

वे लिखती हैं, ‘मुझमें कुछ ऐसा ज़रूर है जो मुझे किसी भी चीज़ को बिना सवाल उठाए, चुपचाप स्वीकार नहीं करने देता. हमें किसी भी बात के समर्थन से पहले उसके विरोध के सभी बिंदुओं का पूर्ण परीक्षण कर लेना चाहिए.’

इस्मत पर अपने समय की सुप्रसिद्ध प्रगतिशील उर्दू लेखक और विचारक रशीद जहां का गहरा प्रभाव पड़ा था, जिसे स्वयं उनकी आत्माभिव्यक्ति से समझा जा सकता है. महफ़िल को दिए एक साक्षात्कार में इस्मत ने कहा था:

‘मेरे परिवार को लगता था कि उन्होंने (रशीद जहां ने) मुझे बिगाड़ दिया है. और वह इस अर्थ में कि वह बड़ी बोल्ड थीं और किसी भी बात को बेझिझक, खुले और स्पष्ट रूप से कहती थीं और मैं उनके इसी अंदाज़ की नकल करना चाहती थी. वह कहा करती थीं कि तुम जैसा भी अनुभव करती हो, उसके लिए शर्मिंदगी महसूस करने की जरूरत नहीं है, और उस अनुभव को अभिव्यक्त करने में तो और भी शर्मिंदा होने की बात नहीं है, क्योंकि हमारे दिल हमारे होंठों से ज़्यादा पाक हैं.’

और इसी प्रभाव का एक निर्णायक रूप इस्मत के प्रगतिशील लेखक आंदोलन से जुड़ने में दिखता है. 1936 में जब वह स्नातक में थीं, तब सबसे पहले प्रगतिवादी लेखक संघ के लखनऊ अधिवेशन में (जिसकी अध्यक्षता प्रेमचंद कर रहे थे) वह शामिल हुईं.

और उसके बाद से इस आंदोलन से काफी सक्रिय रूप से जुड़ गईं. पर वह स्वयं कहती हैं कि उनकी स्पष्टवादिता और बेबाकी से बात कहने की प्रवृत्ति किसी भी वैचारिक आंदोलन के लिए या किसी भी पार्टी के लिए एक खतरे वाली बात थी, जो उन्हें उस आंदोलन या पार्टी के हाशिये पर ही रखती थी, केंद्र का हिस्सा नहीं बनने देती.

एक घोषित मार्क्सवादी होने के बावजूद भी वो यह स्वीकार करतीं थीं कि सर्वहारा वर्ग के संघर्ष से उनकी रचनाशक्ति का तादात्म्य नहीं हो पाता क्योंकि वह स्वयं उस वर्ग से नहीं थीं, इसलिए उनके अनुभव भी वह व्यक्त नहीं कर सकतीं थीं. इसलिए उनकी रचना के केंद्र में तथाकथित मध्य वर्ग और उसमें भी स्त्रियों का पक्ष अधिक शक्तिशाली प्रस्तुति पाता है.

इस दृष्टि से प्रगतिवादी साहित्य के दिन-ब-दिन अधिक कठोर और निश्चित होती हुई परिभाषा के अंतर्गत उनके साहित्य को वह महत्व प्रगतिवादी आलोचकों ने नहीं दिया जो उन्हें मिलना चाहिए था.

आलोचकों से कतिपय उपेक्षित इस्मत का साहित्य अपने प्रगतिशील समकालीन रचनाकारों की स्वीकृति के लिए भी कतार से बाहर ही नज़र आता था. उर्दू साहित्य में किस्सागोई के लिए इस्मत के योगदान को कथावस्तु के नयेपन के लिए तो माना ही जाता है, भाषा भी एक नए कलेवर के साथ उनकी रचनाओं में आई है.

गंगा-जमुनी तहज़ीब से रचे-बसे पूरे संयुक्त प्रांत की संस्कृति इस भाषा में झांकती है. बातचीत का एक ख़ास लहज़ा, जिसमें मुस्लिम घरों की संस्कृति और स्त्रियों की छवियां एक साथ बसी रहती हैं, जिसे ‘बेग़माती ज़बान’ भी कहा जाता है, वह इस्मत की भाषा की मौलिक विशिष्टता है.

इस सहज-सरल भाषा के संदर्भ में इस्मत कहती हैं, ‘साहित्यिक जिसे कहते हैं, मैंने नहीं लिखा. मैंने हमेशा वही लिखा है, जैसे मैं बोलती हूं. साधारण बोलचाल की भाषा में, साहित्यिक भाषा में नहीं. और इसलिए व्याकरण की दृष्टि से भी अशुद्ध भाषा में लिखा करती थी क्योंकि बोलचाल की भाषा में व्याकरण का ध्यान नहीं रखा जाता. पर यह मेरी भाषा नहीं थी, जिसे लोगों ने नोट किया था, बल्कि मेरे लिखने का तरीका, जिस खुलेपन से मैं लिखती हूं, वह नोटिस किया गया था.’

पढ़ने-लिखने की कमज़ोर पड़ती हुई संस्कृति, जिस पर हम आज विचार करते हैं, इस्मत के समय की भी उभरती हुई वास्तविकता थी. यह वह दौर था, जब लंबे उपन्यासों के दिन लदने लगे थे. इसके संदर्भ में वे कहा करती थीं,

‘लोग अब लंबे-लंबे उपन्यास नहीं पढ़ना चाहते. इसकी जगह वे फिल्म देखना ज़्यादा पसंद करते हैं. इससे भी ज़्यादा, पढ़ी-लिखी जनता, अब उर्दू या हिन्दी उपन्यास नहीं बल्कि अंग्रेजी नॉवेल पढ़ना चाहती है. उर्दू साहित्य पढ़ना फैशन की चीज़ नहीं रही. आम जनता अगर पढ़ती भी है तो बहुत ही चलताऊ, सस्ती किस्म के किस्से-कहानियां, वह गंभीर साहित्य नहीं पढ़ना चाहती.’

इसी तरह उर्दू और हिन्दी के संदर्भ में भी इस्मत के विचार भाषा और संस्कृति के पारस्परिक संबंधों को दिखलाते हैं.

उर्दू ज़बान की सांस्कृतिक गतिशीलता को जहां वह एक और स्वीकार करते हुए यह मानती हैं कि ‘यह ज़बान लोगों के बीच लोकप्रिय ही बनी रहेगी क्योंकि यह लोगों की बनाई गई ज़बान है, तो वहीं दूसरी ओर उर्दू की लेखनी के विषय में वह यह स्वीकार करती थीं कि उर्दू की लिपि वास्तव में बड़ी ही कठिन और दुरूह है, किसी भी प्रकार की वैज्ञानिकता का कोई ध्यान नहीं रखा गया है. इसके बर-अक्स, हिन्दी की लिपि ज़्यादा व्यवस्थित और विधिवत है, जो आसान भी है और स्वर की दृष्टि से सही भी. पर इन दोनों ही भाषाओं को लेकर जो विवाद उठते हैं, वह महज़ राजनीतिक हथकंडे हैं, जो भाषा का, जो कि संस्कृति की वस्तु है, उसका राजनीतिकरण करती है.’

बहरहाल, इस्मत चुगताई की पूरी शख़्सियत उनके दृढ़ विश्वासों और अन्तःप्रेरणाओं से बनी हुई लगती है, जो समाज के पर्दों को उठाते हुए डरती नहीं.

और इसलिए उनके अफसाने भी उनकी ज़िंदगी के इस साहसी रुख से ही प्राणशक्ति लेते हुए उन अंधेरे कोनों पर रोशनी फेरते हैं जिसे साहित्य और समाज दोनों ने उपेक्षित रखा था.

(अदिति भारद्वाज दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं.)