नीतीश ने विपक्ष का राष्ट्रीय नेता होने के कठिन रास्ते पर चलने के बजाय मौकापरस्त ढंग से मुख्यमंत्री बन ख़ुद को इतिहास के कूड़ेदान में जाने के लिए अभिशप्त बना लिया.
26 जुलाई को जब हमारी राष्ट्रीय राजनीति पटना में हुए तख़्तापलट से थरथरा रही थी, टि्वटर पर की गई एक दिलचस्प टिप्पणी ने पूरे घटनाक्रम के मर्म का मुज़ाहिरा कर दिया.
हिंदी में लिखी गई इस एक लाइन ने मोदी राज की निरंतर फैलती हुई सीमाओं के पीछे की रणनीति पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करते हुए कहा, ‘जहां हम चुनाव जीतते हैं वहां तो सरकार बनाते ही हैं, जहां नहीं जीतते वहां तो निश्चित रूप से बनाते हैं.’
गोवा और मणिपुर के बाद इस बार बिहार का नंबर था, जहां मोदी-शाह ने अपनी अनूठी राजनीतिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कुछ इस अंदाज़ में किया कि बड़े-बड़े शातिर दिमाग भी शर्मा गए.
आज़ाद भारत के राजनीतिक इतिहास में ऐसा पहली बार देखा गया कि केंद्रीय सरकार की जांच एजेंसियों का इतने प्रभावी ढंग से भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इससे पहले भी इन एजेंसियों का राजनीतिक मक़सदों से प्रयोग हुआ है, पर इस बार तो इनके ज़रिये एक बड़े उत्तर भारतीय राज्य के राजनीतिक समीकरणों को ही पूरी तरह से बदल डाला गया.
अब हमारे पास घटनाओं की पश्चात-दृष्टि है और हम आसानी से समझ सकते हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी बिहार के दुर्जेय गठजोड़ को ख़त्म करने की योजना पर काम कर रही थी.
उसे डर था कि चुनाव में करारी हार कहीं अखिलेश और मायावती को एक इसी तरह का महगठबंधन बनाने पर मजबूर न कर दे. इसीलिए भाजपा पूरे राजनीतिक समाज को दिखाना चाहती थी कि वह अपने ख़िलाफ़ किसी भी महागठबंधन को न राज्य के स्तर पर और न ही राष्ट्रीय स्तर पर बनने या टिकने देगी.
अगर बिहार का गठजोड़ टिका रहता तो वह दिल्ली की अश्वमेधी सरकार के विरुद्ध चुनावी और शासकीय प्रतिरोध का नमूना बन सकता था. अगर पटना महागठबंधन की सरकार के हाथ में रहता तो कुछ वैसा ही गठजोड़ लखनऊ में बनना तय था.
अखिलेश-मायावती-कांग्रेस के ऐसे गठजोड़ की परीक्षा सबसे पहले फूलपुर संसदीय क्षेत्र में हो जाती जहां से मोदी सरकार के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य इस्तीफा देने वाले हैं.
मोदी सरकार के रणनीतिकार चिंतित थे और उनकी परेशानी इस रणनीतिक सुझाव में पढ़ी जा सकती थी कि मौर्य को केंद्र में वापस बुला लिया जाना चाहिए ताकि उपचुनाव की नौबत ही न आए और महागठबंधन का प्रयोग और पीछे खिसक जाए.
अब इन रणनीतिकारों को राहत की सांस मिली होगी, क्योंकि तीन महीने में सुशील मोदी द्वारा की गई चालीस प्रेस कांफ्रेंसों और लालू परिवार पर छापों के सिलसिले ने एक नहीं बल्कि एक साथ तीन लक्ष्यों को भेद दिया है.
चुनाव हारने के बाद भी बिहार को फिर से जीत लिया गया है. लालू की दुर्गति ने मायावती और अखिलेश के पहले से ही धड़कते दिलों में सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग का डर नए सिरे से बैठा दिया है. और, नीतीश कुमार की एनडीए समर्थक कलाबाज़ी के कारण राष्ट्रीय विपक्ष एक बार फिर ख़ुद को रक्षात्मक स्थिति में पा रहा है.
बिहार में जो हुआ, उसे राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी वहां की राजनीति के दो कुशल खिलाड़ियों द्वारा पढ़ाए गए पाठ की तरह देख सकते हैं. इस कक्षा में सामने से सुशील मोदी यह पाठ पढ़ा रहे थे, पर पृष्ठभूमि में नीतीश कुमार की हस्ती मौजूद थी.
दरअसल, नीतीश कुमार ने न केवल लालू की पार्टी और कांग्रेस को धोखे में रखा, बल्कि अपने पार्टी नेताओं को भी उल्लू बनाया.
पिछले तीन महीने से ही बिहार की राजनीति में वहां की हर राजनीतिक ताकत अपने-अपने हित में पेशबंदी कर रही थी.
नीतीश भाजपा के शीर्ष नेताओँ के साथ खुफिया वार्ता चला रहे थे ताकि अगर लालू भ्रष्टाचार के आरोपों से बचने के लिए भितरघात की कोशिश करें तो उसकी काट की जा सके.
उधर कांग्रेस के लिए बिहार की राजनीति में लालू ही सबसे विश्वसनीय ही थे. नीतीश जानते थे कि वे सोनिया के दरबार में लालू जैसी हैसियत कभी नहीं प्राप्त कर सकते.
मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश शुरू से ही अपने हाथ बंधे हुए महसूस कर रहे थे क्योंकि लालू के पास उनसे ज़्यादा सीटें थीं और कांग्रेस का हाथ भी यादव सुप्रीमो की पीठ पर था.
प्रेक्षक जानते थे कि लालू के बेटे, ख़ासकर तेजस्वी प्रसाद, हर मौके पर मुख्यमंत्री के रुतबे का माखौल उड़ाते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि राष्ट्रीय जनता दल अपने भ्रष्टाचारी, भाई-भतीजावादी और अनियमित तौर-तरीकों को बदलने के लिए तैयार नहीं था. उसके साथ लगातार बढ़ते तनाव के कारण बिहार के सुशासन बाबू पिछले कुछ दिनों से दुविधा के शिकार थे.
उनके सामने दो रास्ते थे- दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य और अल्पकालीन परिप्रेक्ष्य.
दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य नैतिकतापूर्ण था, लेकिन उससे मिलने वाले फायदे अनिश्चित दिखाई दे रहे थे. इसलिए नीतीश ने अल्पकालीन लेकिन तुरंत सत्ता मिलने वाला परिप्रेक्ष्य पसंद किया.
लेकिन, अगर वे दीर्घकालीन परिप्रेक्ष्य अपनाते तो क्या होता. नीतीश जानते थे कि कांग्रेस राहुल गांधी की प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षाओं को ठंडे बस्ते में डालने के लिए कभी तैयार नहीं होगी.
वे कांग्रेस और बाकी विपक्ष के सामने मोदी के विकल्प के रूप में एक ही तरीके से उभर सकते थे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने के बाद दोबारा सत्ता की जुगाड़ करने के बजाय पूरे बिहार के राजनीतिक दौरे पर निकल पड़ते और उसके बाद पूरे देश का दौरा करते.
लोग एक त्यागी-विरागी नेता को सुनने उमड़ पड़ते और फिर बिहार के खेत-खलिहानों से एक और जयप्रकाश नारायण का जन्म होता. तब मोदी के वर्चस्व के ख़िलाफ़ नीतीश को विपक्ष की राष्ट्रव्यापी एकता केंद्र के रूप में देखा जा सकता.
वैसे भी उन्हें 2019 के चुनाव में मोदी की काट कर सकने वाला सबसे सक्षम नेता माना ही जा रहा था. लेकिन यह भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी है कि नीतीश ने विपक्ष का राष्ट्रीय नेता होने के कठिन रास्ते पर चलना स्वीकार नहीं किया, और एक मौकापरस्त ढंग से छठी बार मुख्यमंत्री बन कर ख़ुद को इतिहास के कूड़ेदान में जाने के लिए अभिशप्त बना लिया.
इस कूड़ेदान में पहले से कई मौकापरस्त नेता पड़े हुए सड़ रहे हैं.
नीतीश को याद नहीं आया कि 2015 में उन्हें मिली 178 सीटों में बिहार के 18 फ़ीसदी मुसलमानों और 14 फीसदी यादवों के वोट भी शामिल हैं. वे यह भी भूल गए कि पसमांदा मुसलमानों का आंदोलन उन्हीं की सरपरस्ती में परवान चढ़ा था.
अब उनके ये मतदाता उन्हें ‘कुर्सी कुमार’ न कहें तो क्या कहें. इस मतदाता मंडल की मजबूरी तो देखिये, अब उसे लालू यादव जैसे नेता के साथ घिसटना पड़ेगा जिसकी बिहार के ग़ैर-यादव समाज में कोई राजनीतिक साख़ नहीं बची है.
अब होगा यह कि पासवान, कुशवाहा, ऊंची जातियां, महादलित और अति-पिछड़ों का बड़ा हिस्सा हिंदुत्व की राजनीति का आधार बन जाएगा. यादवों में भी हुकुमदेव नारायण, रामकृपाल, नंदकिशोर, पप्पू और बिजेंद्र यादव जैसे नेता लालू के यादव नेतृत्व को चुनौती देंगे.
ऊपर से शराबबंदी करके स्त्रियों में लोकप्रिय हुए नीतीश यह जेंडर-लाभ भी हिंदुत्व को पहुंचाएंगे. छह महीने पहले ऐसे खुशनुमा हालात की संघ परिवार कल्पना भी नहीं कर सकता था.
अगर कुछ असाधारण नहीं हुआ तो भाजपा की सोहबत में नीतीश का बाकी मुख्यमंत्रित्व ठीक से गुज़र जाएगा.
लेकिन जैसे ही 2019 गुज़रेगा, मोदी के लिए उनकी उपयोगिता घट जाएगी और भाजपा उन्हें दूध में से मक्खी की तरह निकाल कर फेंकने की योजना पर अमल करने लगेगी. नीतीश को पता ही होगा कि आज की भाजपा कल की आडवाणी वाली भाजपा नहीं है जो एनडीए के सहयोगी दलों को मजबूत करने की नीति पर चलती थी.
मोदी की भाजपा का नारा है चप्पे-चप्पे पर भाजपा. लालू को तो नीतीश ने धता बता दिया, पर भाजपा को धता बताना इतना आसान नहीं होगा. दरअसल, उन्होंने अपने लिए एक गड्ढा खोद लिया है. देखना है कि जब भाजपा उन्हें इसमें धकेलेगी तो वे कैसे बचते हैं.
(लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली में प्रोफेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं.)