ग्राउंड रिपोर्ट: मुस्लिम और यादवों को आम तौर पर राजद का समर्थक माना जाता है, लेकिन मुस्लिमों का अंसारी समुदाय राजद द्वारा उनके नेताओं को राज्य की चुनावी राजनीति में समुचित प्रतिनिधित्व न देने को लेकर ख़ासा नाराज़ है.
महुआ/वैशाली: ‘शांत रहें,’ महुआ के चपैठ गांव में परवेज आलम के लिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर उत्साहित हो रहे लोगों को संभालना मुश्किल हो रहा है, वे हर तरफ से आ रहे उनके समर्थकों से शांत रहने की कह रहे हैं.
सभी उनकी जीत के नारे लगा रहे हैं, लेकिन राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी के महुआ प्रत्याशी परवेज कुछ खुश नजर नहीं आ रहे हैं.
वे कहते हैं, ‘हम अपने समुदाय के हकों के लिए लड़ रहे हैं. सभी पिछड़े समुदायों के लोग हमें ही वोट देंगे. हम उनके हर दुख-सुख में साथ रहे हैं, वे हमें जानते हैं. दूसरी तरफ राजद ने हमें धोखा दिया है.’
परवेज दावा करते हैं कि राजद ने टिकट देने के लिए उन्हें आखिरी वक्त तक इंतजार करवाया जबकि वे इसके लिए महीनों पहले ‘अप्लाई’ कर चुके थे. वे कहते हैं, ‘आखिरकार राजद के दफ्तर से कोई जवाब नहीं आया, नतीजन हमारे और हम जैसे कई अंसारी मुस्लिमों के पास पार्टी छोड़ने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा.’
वे आगे बताते हैं, ‘हम राजद के टिकट पर कांटी से लड़े थे और 48 हजार वोट मिला था. फिर भी पार्टी को लगा कि किसी अनजान आदमी को इस सीट से खड़ा किया जा सकता है.’
तेजस्वी यादव के बड़े भाई तेजप्रताप यादव महुआ विधानसभा सीट से मौजूदा विधायक हैं, लेकिन इस बार उन्होंने समस्तीपुर की हसनपुर सीट से लड़ने के लिए इस सीट को छोड़ दिया है. महुआ में तेजप्रताप की जगह उन्हें न देने को लेकर परवेज राजद से खासे नाराज हैं.
अपनी तुलना राजद उम्मीदवार मुकेश कुमार रोशन से करते हुए वे कहते हैं, ‘वैशाली और मुजफ्फरपुर का लोग हमें जानता है. हम यहां का जाना-पहचाना चेहरा हैं.’
वे आगे जोड़ते हैं, ‘पप्पू यादव इतना इज्जत दिए कि एक पिछड़े मुस्लिम समुदाय के कई लोगों को अपनी पार्टी में लिए. वे बहुत भले आदमी हैं. न लेवल लॉकडाउन में उन्होंने गरीबों के लिए काम किया, बल्कि मुस्लिमों के साथ भी खड़े रहे.’
पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी की अगुवाई वाले प्रगतिशील लोकतांत्रिक गठबंधन (पीडीए) के बारे में वे कहते हैं, ‘हमारा ही असली सेकुलर फ्रंट है. एमवाय कॉम्बिनेशन भी इस बार हमारे साथ है. उन्होंने राजद का असली चेहरा देख लिया है.’
पीडीए बिहार विधानसभा चुनाव में उतरा चौथा फ्रंट है, जिसमें चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी, एमके फैजी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी और बहुजन मुक्ति पार्टी जैसे दल शामिल हैं.
उत्तर बिहार की सीटों पर उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा की अगुवाई वाले बसपा और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम और अन्य दलों के गठबंधन के अलावा पीडीए महत्वपूर्ण भूमिका में है.
बड़े चुनावी फलक पर यह गठबंधन शायद ही कोई असर डाल सके, लेकिन यह कई पिछड़े समुदायों के असंतुष्ट नेता- जो उपेक्षित महसूस कर रहे थे या जिन्हें अंतिम दौड़ से बाहर रखा गया- के गढ़ के बतौर उभरा है.
परवेज आलम कहते हैं कि राजद ने हमेशा पिछड़े मुस्लिमों के समर्थन का इस्तेमाल किया है लेकिन चुनावों में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया.
परवेज आलम जिंदाबाद, पप्पू यादव जिंदाबाद, भीम आर्मी जिंदाबाद के लगातारनारों के बीच परवेज आगे कहते हैं, ‘हम सेकुलर नीतियों की तरफ हैं. पप्पू यादव ने अपनी धर्मनिरपेक्षता बार-बार साबित की है. हालांकि सेकुलर राजनीति का मतलब ये नहीं है कि पिछड़े मुस्लिमों को चुनाव में प्रतिनिधित्व न दिया जाए. हमारे वोटों को हमेशा तो हल्के में नहीं लिया जा सकता.’
अंसारी मुसलमान और पिछड़ी जातियों का आंदोलन
परवेज आलम अंसारी महापंचायत का हिस्सा हैं, जिसका गठन 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले हुआ था. यह एक सामाजिक संगठन है जो राजनीतिक दलों से चुनावी प्रतिनिधित्व की मांग कर रहा है.
महापंचायत के वसीम अंसारी बताते हैं कि बिहार की कुल 17% मुस्लिम आबादी का 11 प्रतिशत अंसारी समुदाय है लेकिन उनका चुनावी प्रतिनिधित्व नहीं है.
इंजीनियरिंग और एमबीए किए हुए वसीम द वायर को बताते हैं, ‘243 विधानसभा सीटें, 75 विधान परिषद पद, 40 लोकसभा क्षेत्र और 16 राज्यसभा सीटें हैं, लेकिन एक पर भी अंसारी समुदाय का कोई व्यक्ति नहीं है.’
मुस्लिमों के पिछड़े समुदायों का एक बड़ा हिस्सा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (ईबीसी) में आता है. बीते कुछ चुनावों से इस समूह का बड़ा हिस्सा जदयू के साथ है.
यह बताते हुए कि महापंचायत के गठन का उद्देश्य चुनावी राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व बढ़ाना था, वसीम कहते हैं, ‘राजद बस अशराफियों और सैयद मुस्लिमों (जो मुस्लिमों में ऊंचे माने जाते हैं) को टिकट देने के काबिल मानती है.’
वे आगे कहते हैं, ‘शून्य से शुरू कर रहे हैं हम.’
उनके अनुसार, परंपरागत जरी कारीगर या बुनकरों का काम करने वाले अंसारी मुस्लिमों में बहुसंख्यक हैं. वे कहते हैं कि उनकी लड़ाई केवल ‘अशराफिया मुसलमानों’ से ही नहीं, बल्कि उन ‘राजनीतिक दलों से भी है, जिन्होंने लगातार अंसारियों को नजरअंदाज’ किया है.
वे कहते हैं, ’42 विधानसभा सीटों पर अंसारियों की आबादी 25 से 70 हजार के बीच है. हम चुनाव पलट सकते हैं, फिर भी हमारा कोई प्रतिनिधित्व नहीं है. क्यों केवल कुछ सुविधा संपन्न समूहों को टिकट दिया जाता है?’
वसीम कहते हैं कि चुनाव से पहले तेजस्वी यादव ने महापंचायत को आश्वस्त किया था कि 2020 के चुनावों में अंसारियों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाएगा, लेकिन अंतिम समय में वे पीछे हट गए.
वे बताते हैं, ‘आनन-फानन में हम पप्पू यादव के पास गए और उन्होंने हमें इज्जत से 10-12 सीटें दीं. उन्होंने हमें सम्मान दिया, इसलिए हम उनके साथ हैं. हार-जीत मायने नहीं रखता लेकिन जो जरूरी है वो ये कि सभी समुदायों में उनकी छवि अच्छी है.’
वसीम ने बताया कि राजद की अगुवाई वाले गठबंधन ने जिन 17 मुस्लिमों को चुना था, उनमें से अंसारी समुदाय के केवल एक व्यक्ति, जावेद इक़बाल अंसारी को बांका से टिकट दिया गया है.
उन्होंने बताया कि इसी तरह जदयू में भी एक ही अंसारी प्रत्याशी अंजुम आरा हैं, जो बक्सर के डुमरांव में पार्टी प्रवक्ता हैं.
बिहार में पसमांदा राजनीति का इतिहास
बिहार में आजादी के समय से ही पिछड़े मुसलमानों की राजनीति का इतिहास है, लेकिन 1973 में अब्दुल क़य्यूम अंसारी, जिन्होंने मुस्लिम लीग के ‘द्विराष्ट्र सिद्धांत’ के खिलाफ मोमिन आंदोलन शुरू किया था, के गुजरने के बाद यह पीछे चली गई.
बाद में 1998 में अली अनवर ने इस आंदोलन को पसमांदा मुस्लिम महाज का गठन करते हुए दोबारा शुरू किया. महाज पिछड़े मुस्लिमों और दलितों का संगठन था. हालांकि वसीम कहते हैं कि जदयू द्वारा राज्यसभा भेजे जाने के बाद अनवर ने ‘कभी पलटकर पिछड़े मुसलमानों की तरफ नहीं देखा.’
वसीम कहते हैं, ‘इसीलिए हमने अंसारी महापंचायत का गठन किया. ज्यादातर पिछड़े मुस्लिम बेहद गरीब हैं और हमारा मानना है कि चुनावी राजनीति में प्रतिनिधित्व बढ़ने से उनकी स्थिति पर ध्यान आकर्षित करने में मदद मिलेगी.’
यह बताने पर कि पिछड़े मुस्लिमों में अंसारियों के अलावा 3 प्रतिशत राईन, मंसूरी जैसे समुदाय हैं, वसीम कहते हैं, ‘हमारा दीर्घकालिक लक्ष्य इन सभी मोर्चों को एकजुट करना है.’
उन्होंने बताया, ‘अंसारी महापंचायत की तरह सभी पिछड़े मुसलमान समुदायों ने अपने संगठन बना रखे हैं. हममें से अधिकतर का मानना है कि शुरुआत से सभी समूहों को एक साथ लाने से ज्यादा आसान जातिगत समूहों को एकजुट करना है. जब एक बार अलग-अलग जातियों के समुदाय साथ आ जाएंगे, हम सब साथ आएंगे.’
उनके अनुसार अलग समूहों को अभी राजनीतिक तौर पर जागृत होना बाकी है.
वसीम सवाल करते हैं, ‘ये सेकुलर पार्टियों का लोग भाजपा का डर दिखाकर हम लोगों का वोट ले लेता है. अगर हिंदुओं में सभी जाति को प्रतिनिधित्व मिलता है, तो वही चीज अल्पसंख्यकों में क्यों न हो?’
‘एआईएमआईएम की राजनीति से इत्तेफाक नहीं ‘
हालांकि वसीम यह बात स्पष्ट करते हैं कि पिछड़े मुस्लिमों की राजनीति असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम की राजनीति से अलग है.
उनका कहना है, ‘आपको हमारी मांगों को बिहार के सामाजिक न्याय की राजनीति के संदर्भ में समझना होगा. हमें सबके लिए बराबरी चाहिए. एमआईएम केवल मुस्लिमों को एक करने की बात करती है. आरएसएस भी केवल हिंदुओं को साथ लाने की कहता है, तो अंतर क्या है?’
वे कहते हैं, ‘वो लोग अपने भाषणों में अल्लाह हू अकबर का नारा लगवाएंगे, मुसलमानों को ही अपील करेंगे तो दूसरा कम्युनिटी आपके साथ कैसे जुड़ेगा?’
वसीम आगे जोड़ते हैं, ‘आजकल एमआईएम जय भीम का नारा लगा रहा है. लेकिन एक बात बताइए, उनकी पार्टी के टॉप-लेवल पर कितना गैर-मुस्लिम लोग है? एक भी नहीं.’
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