सरना धर्म कोड: आदिवासियों को मिलेगी उनकी अपनी पहचान

आदिवासी स्वयं को किसी भी संगठित धर्म का हिस्सा नहीं मानते हैं इसलिए वे लंबे समय से अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग करते रहे हैं. इस हफ़्ते झारखंड सरकार ने एक विशेष विधानसभा सत्र में 'सरना आदिवासी धर्म कोड' पर अपनी मुहर लगा दी है, जिसे अब केंद्र के पास भेजा जाएगा.

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रांची सरना धर्म कोड की मांग को लेकर हुआ एक प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)

आदिवासी स्वयं को किसी भी संगठित धर्म का हिस्सा नहीं मानते हैं इसलिए वे लंबे समय से अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग करते रहे हैं. इस हफ़्ते झारखंड सरकार ने एक विशेष विधानसभा सत्र में ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ पर अपनी मुहर लगा दी है, जिसे अब केंद्र के पास भेजा जाएगा.

रांची सरना धर्म कोड की मांग को लेकर हुआ एक प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)
रांची में सरना धर्म कोड की मांग को लेकर हुआ एक प्रदर्शन. (फोटो: पीटीआई)

देश में एक योजना के तहत कुछ धर्म, कुछ पर्व-त्योहार और कुछ लोगों के वर्चस्व को शेष लोगों पर स्थापित किया जाता रहा है और शेष लोगों की संस्कृति, पर्व-त्योहार को हाशिये पर डाला जाता है.

देश में संगठित धर्मों से बाहर लाखों की संख्या में लोग हैं जो प्रकृति पूजक के रूप में जीते हैं. इस दर्शन का संगठित धर्मों की तरह कोई धर्मग्रंथ नहीं होने और लगातार खुद की व्यवस्थाओं को लिखित रूप में दर्ज न करने के कारण उनकी खींचतान संगठित धर्मों द्वारा प्राचीन काल से जारी है.

आदिवासियों की आस्था-व्यवस्था ऐसी ही स्थिति में है, जिसे हर संगठित धर्म तिरस्कार की दृष्टि से देखता रहा है लेकिन अपना संख्याबल बढ़ाने के लिए उनकी खींचतान भी करता रहा है.

कुछ समय पहले सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा 2021 की जनगणना में आदिवासियों को हिंदू के रूप में हिंदू कॉलम में दर्ज करने की मुहिम चलाने की घोषणा करने और लगातार सरना-सनातन को एक बताने से आदिवासी अपनी पहचान को लेकर आतंकित थे, इसलिए सरना धर्म कोड की मांग को लेकर इधर लोग और अधिक मुखर हुए.

हालांकि यह मांग लंबे समय से की जा रही है. आदिवासी खुद को हिंदू ही नहीं, किसी भी संगठित धर्म का हिस्सा नहीं मानते हैं इसलिए वे लंबे समय से अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग कर रहे हैं, ताकि जनगणना में वे अपनी स्थिति और सही आंकड़े जान सकें.

1951 की जनगणना के बाद देश के आदिवासियों को ‘अन्य’ कॉलम में डाल दिया गया. इससे कई आदिवासी समुदाय खुद को हिंदू कॉलम में दर्ज करने लगे. लेकिन सरना आदिवासियों ने अपने समुदायों के बीच जागरूकता फैलाना शुरू किया.

इस तरह 2011 की जनगणना में झारखंड में सरना मतावलंबियों ने लगभग 40 लाख से भी अधिक की संख्या में खुद को सरना के रूप में दर्ज किया.

हाल के दिनों में सरना धर्म कोड की मांग ने जोर पकड़ी और जगह-जगह इसे लेकर आंदोलन, प्रदर्शन, मानव श्रृंखलाएं आदि बनाए गए.

सरना धर्म कोड की मांग बहुत पुरानी है. कार्तिक उरांव और डॉक्टर रामदयाल मुंडा ने शुरू से ही आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड की ज़रूरत को महसूस किया था. डॉक्टर रामदयाल मुंडा ने अपने समय में राष्ट्रीय स्तर पर इस मांग को उठाया था.

अब झारखंड में उत्सव का माहौल है. सरकार ने बुधवार को विशेष विधानसभा सत्र बुलाकर ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ पर अपना रुख स्पष्ट कर दिया है. बहुमत से विधानसभा में ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ पारित हो गया है और अब इसे केंद्र सरकार को भेजा जाएगा.

गौर करने वाली बात है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने झारखंड में आदिवासियों का वोट ‘सरना धर्म कोड’ के कार्ड पर ही हासिल किया था, लेकिन चुनाव जीतने के बाद अमित शाह ने अपने झारखंड दौरे में सरना धर्म कोड पर बातचीत करने वाले प्रतिनिधि मंडल दल से मिलने से इनकार कर दिया था.

झारखंड मुक्ति मोर्चा के चुनावी वादे में सरना धर्म कोड के प्रस्ताव को आगे बढ़ाना भी शामिल था. हाल के दिनों में सरना धर्म कोड की मांग को लेकर लोग दो खेमों में बंट गए थे.

एक खेमा ‘सरना धर्म कोड’ और दूसरा खेमा ‘आदिवासी धर्म कोड’ की मांग कर रहा था. लेकिन झारखंड सरकार ने ‘सरना आदिवासी धर्म कोड’ पर अपनी मुहर लगा दी है और इसे लेकर सभी लोगों ने अपनी ख़ुशी ज़ाहिर की है.

अब लोग केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की तैयारी कर रहे हैं.

क्यों आदिवासी खुद को हिंदू नहीं मानते हैं

वास्तव में भारतीय संस्कृति की दो मूल प्रवृति वैदिक और अवैदिक है. अवैदिक प्रवृति में प्रकृति या स्त्री सिद्धांत को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाता है.

कृषि की शुरुआत स्त्रियों के द्वारा हुई इसलिए मातृसत्तात्मक समाज बने और ऐसे मातृसत्तात्मक समाज आदिवासियों के बीच ही मिलते हैं.

हल की खोज ने धीरे-धीरे कृषि में स्त्रियों की जगह पुरुषों के महत्व को स्थापित किया, लेकिन आदिवासियों के बीच आज भी कृषि में महत्वपूर्ण भूमिका स्त्रियों की है.

वैदिक संस्कृति मूलतः पितृसत्तात्मक है. हालांकि सभ्य होने के क्रम में आदिम जनजातियों के बहुत से देवी-देवता और दर्शन वैदिक संस्कृति द्वारा उठा लिए गए.


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यही कारण है कि वैदिक संस्कृति में पेड़ और स्त्री की पूजा दिखाई पड़ती हैं लेकिन जीवन में दोनों का ही सम्मान नहीं दिखाई पड़ता. जीवन-मूल्य बिल्कुल विपरीत है. इसलिए विकास के लिए जीवन में प्रकृति की निर्ममता से दोहन और स्त्री शोषण दोनों ही मौजूद है.

लेकिन इस संस्कृति से अलग आज भी आदिवासियों की जीवन-शैली और जीवन-दर्शन में फर्क स्पष्ट रूप से दिखता है.

इस संबंध में देवी प्रसाद चट्टोपाध्यय ने लिखा है कि आदिवासियों की आस्था को अंधविश्वास और जादू-टोने पर आधारित बताया जाता है.

लेकिन सबसे पहले इसी तंत्रवाद ने प्रकृति या स्त्री शक्ति के सिद्धांत मौजूद हैं. जो आदिवासियों के बीच मौजूद है. यह सबसे प्राचीन है और यहीं से इसे दूसरी संस्कृतियों ने भी लिया है.

वे कहते हैं, ‘आर्यपूर्व काल की कुछ जनजातियां कभी भी वास्तव में हिंदू धर्म के अंतर्गत नहीं आई और जनजातियों में माता या धरती माता की उपासना विशेष रूप से रही. भारत में आज भी ऐसे लोग हैं जो वैसा ही जीवन बिता रहे हैं और वही आस्थाएं और विश्वास लिए हुए हैं जैसा जीवन और जैसी आस्थाएं हजारों साल पहले सिंधु सभ्यता के निर्माताओं के पूर्वजों की थीं. वास्तव में जनजातीय अतीत के जीवित अवशेष, भारतीय समाज की महत्वपूर्ण विशेषता रही है.’

इतिहास में आदिवासी किस तरह हिंदू बनाए गए

इतिहासकार आरसी दत्त ने 1874 में बंगाल की स्थिति के बारे लिखा है, ‘आर्य जब बंगाल आए तो उनका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करना था और बहुत से आदिवासी हिंदू धर्म में आ गए लेकिन वे निम्न जातियों के रूप में ही जीते रहे.’

बेवर्ली के अनुमान अनुसार, उस समय बंगाल की लगभग तीन करोड़ 70 लाख की आबादी में संथाल, गारो और अन्य आदिवासी लगभग पांच लाख थे और मतांतरण के बाद हिंदू हो चुके आदिवासियों की आबादी लगभग 50 लाख थी.

मतांतरण के बाद आदिवासी हिंदू धर्म में निचली जातियों के रूप में बने रहे और उनके विचित्र रहन-सहन को ध्यान से देखें, तो इस निष्कर्ष पर पहुंचने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि वे आदिवासियों के ही वंशज हैं.

इस तरह पांच लाख आदिवासी, 50 लाख धर्मांतरित आदिवासी को छोड़ दें, तो 25 लाख ऐसे लोग थे जो शुद्ध आर्य के वंशज होने का दावा करते थे. दस लाख उच्च मुसलमान थे और शेष दो करोड़ 80 लाख लोग आर्य और अनार्यों के मिश्रण से उत्पन्न लोग थे.

आरसी दत्त यह कहते हैं कि बंगाल में विजेता आर्यों ने सारे प्रदेशों में व्यापक रूप से धर्म का प्रसार किया. लेकिन वे आदिवासी खेतिहरों को समाप्त नहीं कर सके. बहादुर और उग्र आदिवासी बंगाल के सुरक्षित जंगलों में चले गए वहीं कमजोर और दुर्बल लोगों ने विजेताओं का धर्म स्वीकार कर लिया.

आज सिर्फ बंगाल ही नहीं कई दूसरे राज्यों की स्थिति भी कमोबेश यही है.

वर्चस्ववादी संस्कृति अपनी संस्कृति और देवता भी स्थापित करते हैं

देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय ने प्राचीन ग्रंथों, पुरातत्विक और नृतत्वशास्त्रीय प्रमाणों और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इस बात पर जोर दिया है.

उन्होंने लिखा है, ‘राजसत्ता के उदय के बाद शासक वर्ग ने लौकिक चिंतन को हाशिये पर डाल दिया और पारलौकिक चिंतन को ही बढ़ावा दिया और इसे भारतीय चिंतन की एकमात्र धारा के रूप में स्थापित किया. लेकिन लौकिक चिंतन के बिना इतिहास दृष्टि हमेशा धुंधली ही रहेगी.
इसका अर्थ है बहुत सी बातें, जिसे पारलौकिक बताकर स्थापित किया गया है वास्तव में उसका भौतिक पक्ष है. मसलन, अनार्यों को शास्त्रों में राक्षस, दानव, बुराई का प्रतीक बताया गया है. वे राक्षस और दानव नहीं थे. वे जीते-जागते लोग थे. वैदिक समाज उनसे घृणा करता था इसलिए उन्होंने उन्हें यह नाम दिया. वह घृणा कलांतर में भी आदिवासियों के रहन-सहन, खान-पान और उनके अलग होने को लेकर दिखाई पड़ती है. इस घृणा के बाद भी आदिवासियों के बहुत से देवी-देवताओं को वैदिक समाज ने अपने पूजा-पाठ में शामिल कर लिया.’

आज बदले समय में आदिवासियों के प्रति भीतर घृणा का वही भाव रखते हुए भी उन्हें हिंदू बनाने-बताने की मुहिम जारी है.

वे कहते हैं, ‘बदले समय में धर्म परिवर्तन का कम पाखंडपूर्ण एक तरीका ‘भर्ती’ भी था. इसमें खेतों में काम करने के लिए मजदूरों के रूप में, बागान के लिए कुलियों के रूप में, खानों के लिए खनिकों और औपनिवेशिक लड़ाइयों के लिए सिपाहियों के रूप में जनजातियों की भर्ती शामिल थी. 1792 के ‘ लंदन मॉर्निंग क्रॉनिकल’ में इसका जिक्र है कि यह भर्ती मुख्यत: जनजातियों के बीच से ही की जाती थीं. बात सिर्फ इतनी नहीं थी कि जनजातीय लोगों की भर्ती की गई, लेकिन भर्ती करने वाले एजेंटों की मुख्य भूमिका उन्हें भ्रष्ट बनाना और उनका नैतिक पतन करना था. शताब्दियों पहले कौटिल्य ने जो नीति बताई थी वह नीति आज भी आदिवासियों को विभाजित रखने के लिए अपनाई जाती है. जनजातियों के प्रति कौटिल्य की नीति  थी कि इन्हें कृषि कार्य में लगाकर पांच-दस घरों वाले गांव में बांटना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए छोटे-छोटे समूहों में रहने वाले इन लोगों के कभी भी आपस में संपर्क में आने की संभावना न रहे. इस तरह इस नीति का पिछली कई शताब्दियों से सक्रिय रूप से पालन भी हुआ है.’


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विजेता अपनी वर्चस्ववादी संस्कृति के साथ हमेशा अपना इतिहास, अपने देवता भी स्थापित करता जाता है. वह वर्चस्व स्थापित किए देश को अपना देश बताता है.

देशहित का नाम लेकर दरअसल अपने हित के आधार पर यह भी तय करता है कि संसाधनों पर किसका अधिकार होना चाहिए? आज यह सबकुछ हो रहा है. और खुद को हिंदू न मानने वाले आदिवासी समुदायों के बीच उन्हें हिंदू बनाने की मुहिम भी चलाई जा रही है.

अब अलग धर्म कोड का प्रस्ताव आगे बढ़ने से लोगों में ख़ुशी की लहर है. लोग अलग धर्म कोड के माध्यम से ही खुद की पहचान को स्पष्ट रूप से रेखांकित कर सकेंगे.

(जसिंता केरकेट्टा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)