अगर कृषि क़ानून किसानों के हित में है, तो किसान संगठन इसके पक्ष में क्यों नहीं हैं?

किसानों का सरकार से सवाल है कि क्या उनकी तरफ़ से ऐसा कोई क़ानून बनाने की मांग उठी थी और उनसे इस बारे में सलाह क्यों नहीं ली गई? किसानों का आरोप है कि सरकार इसके ज़रिये न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं मंडियों की स्थापित व्यवस्था को ख़त्म करना चाह रही है. किसान एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाए जाने की मांग कर रहे हैं.

New Delhi: Farmers stage a protest at Singhu border during their Delhi Chalo march against the Centres new farm laws, in New Delhi, Tuesday, Dec. 1, 2020. (PTI Photo/Ravi Choudhary)(PTI01-12-2020 000073B)

किसानों का सरकार से सवाल है कि क्या उनकी तरफ़ से ऐसा कोई क़ानून बनाने की मांग उठी थी और उनसे इस बारे में सलाह क्यों नहीं ली गई? किसानों का आरोप है कि सरकार इसके ज़रिये न्यूनतम समर्थन मूल्य एवं मंडियों की स्थापित व्यवस्था को ख़त्म करना चाह रही है. किसान एमएसपी को क़ानूनी अधिकार बनाए जाने की मांग कर रहे हैं.

New Delhi: Farmers stage a protest at Singhu border during their Delhi Chalo march against the Centres new farm laws, in New Delhi, Tuesday, Dec. 1, 2020. (PTI Photo/Ravi Choudhary)(PTI01-12-2020 000073B)
(फोटो: पीटीआई)

नई दिल्ली: पिछले एक हफ्ते से भी ज्यादा समय से देश भर के विभिन्न हिस्सों में किसान केंद्र की मोदी सरकार द्वारा लाए गए तीन विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं. इसमें पंजाब और हरियाणा के किसानों ने अग्रणी भूमिका निभाई है और वे इसके विरोध में कड़कड़ाती ठंड में भी दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर धरना दे रहे हैं.

किसानों का सरकार से मूलभूत सवाल ये है कि क्या किसी किसान आंदोलन में कभी भी ये तीन कानून बनाने की मांग उठी थी? क्या कानून बनाते वक्त किसी किसान संगठन से मशविरा किया गया था? आखिर क्यों आनन-फानन में कोविड-19 महामारी और लॉकडाउन के बीच इन कानूनों को लाया गया? यदि ये कानून किसानों के हित में है, तो क्यों कोई भी बड़ा किसान संगठन इसके पक्ष में नहीं है?

वैसे तो केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर समेत भाजपा के तमाम नेता इन सवालों से बचने की कोशिश कर रहे हैं, हालांकि कानून को लेकर सरकार और किसान के बीच चार राउंड की बातचीत हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोई प्रभावी निष्कर्ष नहीं निकल पाया है.

किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी अधिकार बनाए, ताकि कोई भी ट्रेडर या खरीददार किसानों से उनके उत्पाद एमएसपी से कम दाम पर न खरीद पाए. यदि कोई ऐसा करता है तो उस पर कार्रवाई होनी चाहिए.

किसानों का आरोप है कि सरकार इन तीन कानूनों के जरिये एमएसपी एवं मंडियों की स्थापित व्यवस्था को खत्म करना चाह रही है, जिसका फायदा सिर्फ और सिर्फ ट्रेडर्स को होगा और इसके चलते किसान इनकी रहम पर जीने को विवश हो जाएगा.

वहीं सरकार का कहना है यह कानून किसानों को एक मुक्त बाजार मुहैया कराता है, ताकि वे अपनी पसंद के अनुसार अपने उत्पाद बेच सकें. उन्होंने कहा कि एमएसपी खत्म नहीं की जा रही है और मंडियां पहले के अनुसार काम करती रहेंगी.

क्या कहते हैं कानून

1. एपीएमसी मंडियों के बाहर कृषि उत्पाद खरीदने की मंजूरी

मोदी सरकार ने पांच जून, 2020 को एक अध्यादेश- कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अध्यादेश, 2020– जारी किया था, जिसे सितंबर महीने में संसद से पारित कराकर कानून बना दिया गया.

यह कानून राज्यों के कृषि उत्पाद मार्केट कानूनों यानी कि राज्य एपीएमसी एक्ट्स के तहत बनी एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन समितियां) मंडियों या बाजारों के बाहर भी किसानों के उपज की बिक्री का प्रावधान करता है. दूसरे शब्दों में कहें तो केंद्र का ये नया कानून एपीएमसी मंडियों के समानांतर एक अलग खरीद-बिक्री व्यवस्था का निर्माण करता है.

इसके तहत कृषि उपज का राज्यों के बीच और राज्य के भीतर व्यापार किया जा सकता है. ये खरीदी फार्म गेट्स, कारखानों के परिसर, वेयरहाउस, मिलों और कोल्ड स्टोरेज समेत उपज के उत्पादन वाले स्थान या उसे जहां भी जमा किया गया होगा, वहां पर व्यापार किया जा सकता है. सरकार का दावा है कि इन प्रावधानों से किसानों को देश में जहां कहीं भी अच्छा दाम मिलेगा, वो वहां पर अपनी फसल बेच सकेगा.

इससे पहले तक एपीएमसी एक्ट्स के तहत बनीं मंडियां और इसके अंतर्गत मंजूरी प्राप्त अन्य बाजार जैसे कि निजी मार्केट यार्ड्स और मार्केट सब-यार्ड्स, प्रत्यक्ष मार्केटिंग कलेक्शन सेंटर्स और निजी किसान उपभोक्ता मार्केट यार्ड्स वाले स्थानों पर ही कृषि उत्पादों की खरीदी की जा सकती थी.

नए कानून में एक महत्वपूर्ण प्रावधान ये है कि एपीएमसी मंडियों के बाहर व्यापार करने पर किसान और खरीददार में से किसी पर कोई भी टैक्स (मंडी टैक्स) नहीं लगेगा. वहीं इसके उलट एपीएमसी मंडियों में राज्य-वार इस तरह का टैक्स लगता रहेगा.

एक्ट की धारा सात में कहा गया है कि केंद्र सरकार अपने किसी भी केंद्रीय सरकारी संगठन के माध्यम से किसानों की उपज के लिए मूल्य सूचना और मार्केट इंटेलिजेंस सिस्टम (एमआईएस) विकसित कर सकती है और इससे संबंधित सूचना के प्रसार के लिए रूपरेखा तैयार किया जा सकता है.

इसके साथ ही यह कानून कृषि उपज की इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग की अनुमति देता है. इसके तहत कोई भी किसान उत्पादक संगठन या कृषि सहकारी संघ, कंपनी, पार्टनरशिप फर्म्स या पंजीकृत सोसाइटियां इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग और ट्रांजैक्शन प्लेटफॉर्म तैयार कर सकते हैं, जिसके जरिये किसानों की उपज को इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और इंटरनेट के जरिये खरीदा और बेचा जा सके तथा उसकी फिजिकल डिलिवरी हो सके.

नए कानून के अनुसार पैनकार्ड धारक कोई भी व्यापारी खरीद कर सकता है. यदि किसान चाहे तो अपनी उपज खेत से सीधे उपभोक्ताओं को बेच सकता है. खरीददार को उसी दिन, या कुछ शर्तों के साथ, तीन दिन के भीतर किसान को भुगतान करना होगा.

इसके अलावा यदि ट्रेडर और किसान के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न होती है तो सब डिविजनल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) के यहां आवेदन किया जा सकता है. यदि यहां पर 30 दिन के भीतर विवाद नहीं सुलझता है तो फैसले के खिलाफ अपीलीय अथॉरिटी (कलेक्टर या कलेक्टर द्वारा नामित एडिशनल कलेक्टर) के यहां अपील दायर की जा सकती है.

हालांकि इसे लेकर किसी भी सिविल कोर्ट में जाने का अधिकार किसी के पास नहीं होगा.

2. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग

मोदी सरकार द्वारा लाया गया एक दूसरा कृषि कानून- किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्‍य आश्‍वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020– है, जिसके तहत कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग या अनुबंध खेती को बढ़ावा देने के लिए एक राष्ट्रीय फ्रेमवर्क तैयार किया गया है.

कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग में बुवाई से पहले किसान और खरीददार के बीच एक समझौता किया जाता है, जिसके तहत किसान ट्रेडर या खरीददार को एक पूर्व निर्धारित कीमत पर अपनी उपज बेचता है.

इसमें प्रावधान किया गया है कि किसी कृषि उत्पाद के उत्पादन से पहले किसान और स्पॉन्सर या किसान, स्पॉन्सर और किसी थर्ड पार्टी के बीच लिखित एग्रीमेंट होगा, जहां पर स्पॉन्सर किसान से एक निश्चित कीमत पर उसके उत्पाद खरीदने और खेती की सुविधाएं मुहैया कराने पर सहमति जताएगा.

इस एग्रीमेंट में उत्पाद की गुणवत्ता, मूल्य, स्टैंडर्ड, ग्रेड इत्यादि मानकों का विवरण होगा, जिसका किसान को पालन करना होगा. इस कानून के मुताबिक किसान द्वारा कोई भी ऐसा फार्मिंग एग्रीमेंट नहीं किया जा सकता है, जिससे पट्टे पर खेती करने वाले या बटाईदार के किसी अधिकार का अनादर हो.

इसके तहत कम से कम एक सीजन और अधिकतम पांच साल के लिए कॉन्ट्रैक्ट हो सकता है. एक्ट की धारा 3(4) के तहत किसानों को ‘लिखित खेती समझौतों’ की सुविधा देने के लिए केंद्र सरकार मॉडल खेती समझौतों के साथ आवश्यक दिशा-निर्देश जारी कर सकती है.

इसमें कहा गया है कि एग्रीमेंट करने वाली पार्टियां (किसान और खरीददार) अपने हिसाब की शर्तों के आधार पर कॉन्ट्रैक्ट कर सकती हैं, जिसका पालन आपस में स्वीकृत कृषि उत्पाद की गुणवत्ता, ग्रेड और स्टैंडर्ड पर आधारित होगा.

कानून में कहा गया है कि ये शर्तें खेती में की जा रहीं प्रैक्टिस, जलवायु, केंद्र एवं राज्य सरकारों या अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा निर्धारित मानकों पर आधारित होना चाहिए.

इसके मुताबिक कृषि उत्पाद का खरीद मूल्य समझौते में दर्ज किया जाना चाहिए. मूल्य में बदलाव की स्थिति में समझौते में उत्पाद की गारंटीशुदा मूल्य और इसके अतिरिक्त बोनस या प्रीमियम का स्पष्ट संदर्भ होना चाहिए.

इसके साथ ही कानून में ये भी कहा गया है कि स्पॉन्सर या खरीददार को समयसीमा के भीतर कृषि उत्पाद की खरीदी करनी होगी और इसके लिए उन्हें सभी इंतजाम करने होंगे, ताकि यह सफल हो सके.

नए कानून के मुताबिक, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत खरीदी के समय खरीददार कृषि उत्पाद की गुणवत्ता की जांच कर सकता है. बीज उत्पादन के मामले में स्पॉन्सर को खरीदी के समय निश्चित राशि का कम से कम दो तिहाई हिस्सा चुकाना होगा, बाकि की राशि डिलिवरी की तारीख से 30 दिनों के भीतर सर्टिफिकेशन के बाद चुकाई जा सकती है.

कानून के मुताबिक, यदि किसी भी कृषि उत्पाद को लेकर कॉन्ट्रैक्ट हो जाता है तो उस पर राज्य का कोई भी कानून लागू नहीं हो सकता है और उसकी बिक्री सिर्फ एग्रीमेंट की शर्तों पर ही आधारित होगा.

3. आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन

संसद ने कृषि सुधार के नाम पर लाए गए आवश्‍यक वस्‍तु (संशोधन) अधिनियम विधेयक, 2020 को भी मंजूरी दी है, जिसके जरिये अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेलों, प्‍याज और आलू जैसी वस्‍तुओं को आवश्‍यक वस्‍तुओं की सूची से हटा दिया गया है.

दूसरे शब्दों में कहें, तो अब निजी खरीददारों द्वारा इन वस्तुओं के भंडारण या जमा करने पर सरकार का नियंत्रण नहीं होगा.

हालांकि संशोधन के तहत यह भी व्‍यवस्‍था की गई है कि अकाल, युद्ध, कीमतों में अभूतपूर्व वृद्धि और प्राकृतिक आपदा जैसी परिस्थितियों में इन कृषि‍ उपजों की कीमतों को नियंत्रित किया जा सकता है.

यह कानून साल 1955 में ऐसे समय में बना था जब भारत खाद्य पदार्थों की भयंकर कमी से जूझ रहा था. इसलिए इस कानून का उद्देश्य इन वस्तुओं की जमाखोरी और कालाबाजारी को रोकना था, ताकि उचित मूल्य पर सभी को खाने का सामान मुहैया कराया जा सके.

सरकार का कहना है कि चूंकि अब भारत इन वस्तुओं का पर्याप्त उत्पादन करता है, ऐसे में इन पर नियंत्रण की जरूरत नहीं है.

किसान इन कानूनों के खिलाफ में क्यों हैं?

वैसे तो सरकार का दावा है कि वे इन तीनों कानूनों के जरिये किसानों के लिए एक विशाल कृषि बाजार तैयार कर रहे हैं, जहां वे अपनी इच्छा के अनुसार अपनी पसंद की जगह पर बिक्री कर सकेंगे. इसके साथ ही केंद्र की दलील है कि एपीएमसी व्यवस्था में बिचौलियों के चलते किसानों का नुकसान हो रहा था, इसलिए उन्होंने कृषि बाजार को सरकारी नियंत्रण से मुक्त किया है.

हालांकि किसान एवं कृषि संगठन कहते हैं कि ये बात सही है कि एपीएमसी मंडियों में समस्याएं थीं, लेकिन उन्हें सुधारने के बजाय सरकार किसानों के सामने बहुत बड़ा संकट खड़ा कर रही है. इस नई व्यवस्था से ट्रेडर्स को ही फायदा पहुंचने वाला है, किसानों को नहीं.

यदि पहले कानून- कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) एक्ट, 2020- को देखें तो यह पहले से स्थापित एपीएमसी मंडी सिस्टम को बायपास करता है और मंडी के बाहर कहीं भी उत्पाद बेचने की छूट देता है. इसमें यह भी लिखा है कि बाहर खरीदने या बेचने पर कोई टैक्स नहीं लगेगा, जो कि मंडियों में लगता है.

इस प्रावधान को लेकर बड़ी चिंता ये है कि इसके चलते आढ़ती मंडियों के बाहर खरीदने लगेंगे, क्योंकि वहां उन्हें टैक्स नहीं देना पड़ेगा, नतीजतन मंडियां धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगी.

अब यहां पर मंडी के महत्व को समझना जरूरी है. मंडी ही वो स्थान हैं जहां पर बहुत सारे खरीददार और बेचने वालों (किसानों) का जमावड़ा होता है. इसके चलते किसानों के पास बिक्री के कई सारे विकल्प होते हैं, जहां वो मोल-भाव करके अच्छे दाम पा सकता है. यहां पर कृषि उपज के दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के आधार पर निर्धारित होते हैं. कई किसानों को तो मंडी आकर ही एमएसपी के बारे में पता चलता पाता है.

कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि नए कानून के कारण यदि मंडियां खत्म होती हैं तो एमएसपी भी अपने आप अप्रासंगिक हो जाएगा. इन एपीएमसी मंडियों के बाहर भी खरीद-बिक्री के छोटे स्थानों पर उत्पादों के मूल्य मंडी भाव के आधार पर तय होते हैं. इस तरह किसानों को उचित दाम दिलाने में इन मंडियों की प्रमुख भूमिका है.

इसलिए किसान मांग कर रहे हैं कि सरकार एक कानून लाए कि मंडी या मंडी से बाहर एमएसपी से नीचे की खरीद गैरकानूनी होगी.

जहां तक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से संबंधित कानून का सवाल है, तो इसमें एक अच्छी बात ये है कि किसी भी एग्रीमेंट में किसान की जमीन का ट्रांसफर यानी कि लीज या बिक्री नहीं की जा सकेगी. दूसरे शब्दों में कहें तो किसी भी करार में किसान की जमीन का सौदा नहीं किया जाएगा. इसके तहत सिर्फ फसल का कॉन्ट्रैक्ट किया जाएगा.

हालांकि इसमें एक बड़ी समस्या ये है कि यह कानून विवाद के मामले में किसान को सिविल केस दायर करने से रोकता है. किसी भी एग्रीमेंट का उल्लंघन होने पर मामले की सुनवाई एसडीएम करेगा और फैसले से असंतुष्ट होने पर डीएम के पास अपील की जा सकती है.

किसानों को ये डर है कि ये एग्रीमेंट फसल बीमा के एग्रीमेंट की तरह हो सकते हैं, जिसमें बड़ी कंपनियां अफसरों के साथ मिलकर सौदा कर लेते हैं और किसानों को परेशान करते हैं. किसानों का आरोप है कि यह कानून उन्हें उनकी जमीन पर बंधुआ बना सकता है.

उदाहरण के तौर पर, किसी कंपनी ने किसान के साथ करार किया कि आपको ये फसल बोनी है, हम इसको इस रेट पर खरीदेंगे, इसकी क्वालिटी ऐसी होनी चाहिए. इसमें ये समस्या उत्पन्न हो सकती है, जैसे क्वालिटी कम होने पर कंपनी पूरे पैसे नहीं देगी क्योंकि क्वालिटी कम होना एग्रीमेंट की शर्तों का उल्लंघन हो जाएगा.

इसी तरह यदि कंपनी एडवांस में पैसा दे रखा होगा तो वे कंपनी किसान को अगली फसल के लिए भी बाध्य कर सकती है, क्योंकि कंपनी का पहले का पैसा किसान दे नहीं पाएगा और इस हालत में वो मजबूरी में अगली फसल का कॉन्ट्रैक्ट कर लेगा तो इनके ऋण के चक्कर में फंस जाएगा. ऐसी स्थिति में किसानों को डर ये है कि कंपनी अपने पैसे की वसूली के लिए सिविल कोर्ट जाएगी और उनकी जमीन नीलाम करवा देगी.

इसलिए किसानों की मांग है कि इस कानून में किसानों को ज्यादा सुरक्षा के प्रावधान किए जाएं, ताकि वे बड़ी कंपनियों के सामने कानूनी तौर पर मजबूती से खड़ा रह सकें. इसके लिए मुफ्त कानूनी सहायता का प्रावधान हो और ऋण से भी सुरक्षा प्रदान किया जाए.

यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि एग्रीमेंट के लिए किसान के पास कोई कानूनी जानकारी नहीं होती कि वो अपने टर्म के हिसाब से इसे लिखवा सकें. इसके विपरीत, कंपनियों के पास लीगल एक्सपर्ट होते हैं.

इसी तरह तीसरा कानून- आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन- जरूरी वस्तुओं की जमाखोरी को छूट देता है. इसको किसानों के हित में बताया जा रहा है. हालांकि किसानों का कहना है कि किसान अभी भी स्टॉक कर सकता था, लेकिन संसाधन उपलब्ध नहीं होने के कारण उसकी मजबूरी है कि वो ऐसा नहीं कर सकता है.

विशेषज्ञों का कहना है कि यह कानून बड़े ट्रेडर्स को जमाखोरी की छूट देगा, जिससे वे मार्केट में इन चीजों की कमी करके रेट बढ़ाएंगे और मुनाफा कमाएंगे. इससे गरीब एवं मध्यम वर्ग को नुकसान होने की संभावना है.