साल 2011 में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अन्ना हजारे की अगुवाई में चले लोकपाल आंदोलन के बाद साल 2013 में इसे लेकर क़ानून बनाया गया था, लेकिन केंद्र समेत कई राज्यों में समय पर नियुक्ति न होने और फंड की कमी जैसे कारणों के चलते यह दयनीय स्थिति में है.
नई दिल्ली: एक समय देशव्यापी आंदोलन का प्रमुख मुद्दा रहे भ्रष्टाचार को खत्म करने एवं सत्ता के शीर्ष पदों पर बैठे लोगों को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराने के लिए लाया गया लोकपाल एवं लोकायुक्त कानून, 2013 दयनीय स्थिति से गुजर रहा है.
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा साल 2018, 2019 और 2020 में दिए गये निर्देश के बावजूद 8 राज्यों में लोकायुक्त नियुक्त नहीं किए गए हैं और केंद्र के लोकपाल में भी दो पद खाली पड़े हैं. नौ राज्यों में अभी तक लोकायुक्त कानून भी नहीं बना है और 10 राज्यों में लोकायुक्त की वेबसाइट तक नहीं है.
आलम ये है कि केवल महाराष्ट्र, ओडिशा और मिजोरम में ही ऑनलाइन शिकायत भेजने का प्रावधान है.
पारदर्शिता एवं भ्रष्टाचार के विषय पर काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशल इंडिया द्वारा अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार निरोध दिवस के मौके पर जारी की गई एक रिपोर्ट से ये जानकारी सामने आई है.
साल 2005 से अंतरराष्ट्रीय भ्रष्टाचार निरोध दिवस हर वर्ष 9 दिसंबर को पूरे विश्व में मनाया जाता है.
सरकारी तंत्र में उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार के मामलों को रोकने के लिए ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त (राज्य में )’ संस्था बनाने का प्रावधान किया गया है.
भारत में साल 1963 में पहली बार एलएम सिंघवी द्वारा लोकपाल और लोकायुक्त शब्द का इस्तेमाल किया गया था. पहले प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 1968 चौथी लोकसभा में पेश किया और इसे 1969 में पास किया गया. हालांकि लोकसभा के भंग होने के बाद विधेयक पास नहीं हो सका.
इसके बाद साल 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 और 2001 में इस विधेयक पर पुनर्विचार किया गया लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
इसके बाद साल 2011 में सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे की अगुवाई में देश भर में लोकपाल पर बड़ा आंदोलन चला. कानून तो जैसे-तैसे साल 2013 बन गया और 16 जनवरी 2014 से ‘लोकपाल और लोकायुक्त कानून’ लागू कर दिया गया, लेकिन मौजूदा समय में इसकी स्थिति काफी दयनीय है.
इस कानून के अनुसार इसके बनने के एक साल के अंदर राज्यों में लोकायुक्त बनाना था, लेकिन सात साल बाद भी कई राज्यों में न तो लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हुई है और न ही कानून में कोई बदलाव.
लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा 63 में कहा गया है कि संसद से इस कानून को पारित किए जाने के एक साल के भीतर सभी राज्य लोकायुक्त की नियुक्ति करेंगे.
हालांकि रिपोर्ट के मुताबिक आठ राज्यों में लोकायुक्त के पद खाली हैं. नौ राज्यों ने तो अब तक अपने यहां लोकायुक्त कानून में बदलाव ही नहीं किया है.
साल 2018, 2019 और 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेशों में राज्यों से कहा था कि वे कानून के मुताबिक समयसीमा के अंदर लोकायुक्त की नियुक्ति करें, लेकिन अभी तक कई राज्यों ने इसका पालन नहीं किया है.
इसी तरह जिन राज्यों में लोकायुक्त कानून बना है उसमें से आठ राज्यों में लोकायुक्त के पद खाली हैं. हिमाचल प्रदेश, पंजाब, गोवा, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तराखंड, असम और पुदुचेरी में लोकायुक्त के पद खाली हैं.
अभी तक सिर्फ चार राज्यों में ही लोकायुक्त के साथ उप लोकायुक्त (न्यायित/ गैर-न्यायिक सदस्य) भी हैं.
ये राज्य हैं- बिहार, ओडिशा, मणिपुर और तमिलनाडु. वहीं जम्मू कश्मीर एकाउंटेबिलिटी कमीशन भंग कर दिया गया गया और एक साल बाद भी लोकायुक्त कानून नहीं बनाया गया है.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया ने अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘कानून बनने के बाद यह माना जा रहा था कि इससे भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी और सरकार के विभिन्न विभागों एवं क्रियाकलापों में पारदर्शिता आएगी. शासन में जन–जन की भागीदारी सफल लोकतंत्र का मूलमंत्र है लेकिन ये सब किताबी बातें ही हैं.’
रिपोर्ट के अनुसार, लोकायुक्त कानून के तहत देश के 3.76 लाख से अधिक लोगों ने लोकायुक्त/लोकपाल में शिकायत किया है. राज्य स्तर पर लोकायुक्त के पास भेजी गईं सबसे ज्यादा शिकायतों के मामले में टॉप-5 राज्य मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, बिहार एवं राजस्थान है.
लोकायुक्त के पास भ्रष्टाचार की कुल शिकायत में से सबसे ज्यादा 1,58,942 मामले मध्य प्रदेश के लोकायुक्त के पास आए. वहीं, दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र है, जहां कुल 50,500 भ्रष्टाचार से जुड़ी शिकायतें प्राप्त हुईं.
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के कार्यकारी निदेशक रमानाथ झा ने कहा, ‘सरकार भ्रष्टाचार पर केवल नारा गढ़ सकती है, बुनयादी स्तर पर हालत बेहद निराशाजनक है. सरकार कानून को कमजोर करने के लिए लोकपाल व लोकायुक्त की नियुक्ति में देरी करती है या संस्था को बुनियादी सुविधा, बजट, मानव संसाधन नहीं देती. इसके अलावा लोकयुक्त की रिपोर्ट पर सालों कार्रवाई नहीं होती है, विधानसभा में वार्षिक रिपोर्ट तक नहीं पेश करते हैं. देश में जल्द से जल्द सूचना का अधिकार कानून की तर्ज पर जनता के समस्याओं के निवारण के लिए कानून बनाना चाहिए.’
सरकार डिजिटल इंडिया की तो खूब प्रचार करती है, हालांकि हकीकत ये है कि जिन 23 राज्यों में लोकायुक्त कानून बना है उसमें से नौ राज्यों में लोकायुक्त की वेबसाइट ही नहीं है.
इतना ही नहीं, सिर्फ महाराष्ट्र, मिजोरम एवं ओडिशा में ही लोकायुक्त को ऑनलाइन शिकायत भेजी जा सकती है. बाकी सभी राज्यों में लोकायुक्त के पास भ्रष्टाचार की शिकायत भेजने के लिए ऑफलाइन माध्यम अपनाना पड़ता है.
शिकायत भेजने की राशि सबसे ज्यादा 2,000 रुपये गुजरात (पहले 1,000 था) और उत्तर प्रदेश (2,000 सिक्योरिटी डिपॉजिट) में है, कुछ राज्य में 3 रुपये से लेकर 1000 रुपये लगते हैं. केंद्र के लोकपाल में शिकायत करने के लिए 1,000 रुपये देने होते हैं.
इसके अलावा वार्षिक रिपोर्ट दाखिल करने के मामले में लोकायुक्तों की हालत बेहद खराब है. सिर्फ ओडिशा और हरियाणा ने ही वेबसाइट पर साल 2019-20 और 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट अपलोड की है.
लोकायुक्त ने यदि अपनी वार्षिक रिपोर्ट भेज भी दी, तो वर्षो तक उसे विधानसभा के पटल पर रखा नहीं जाता है.
दुनिया में पहले लोकपाल की नियुक्ति साल 1809 में स्वीडन में हुई थी, वहीं फिनलैंड में 1920 से संसदीय लोकपाल है. आज विश्व में 145 से अधिक देश में लोकपाल (ओम्बड्समैन) तरह की संस्था है.