बहादुर सैनिकों की शहादत पवित्र श्रद्धांजलि की हक़दार है, लेकिन अगर सरकार ने हालात को ज़्यादा सक्षम तरीके से संभाला होता, तो शायद आज वे ज़िंदा होते.
किसी भी नज़रिये से कारगिल विजय दिवस, यानी 1999 में हुए कारगिल युद्ध के औपचारिक अंत की तारीख को भारतीय सेना के उन 474 अफसरों और जवानों की क़ुर्बानी को याद करने का दिन होना चाहिए था, जिन्होंने कारगिल के ऊपर रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण चोटियों से पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे धकेलने के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए.
काफी हद तक इसे इस रूप में मनाया भी जाता है, सिवाय सत्ताधारी दलों के करीबी लोगों के, जो इस मौक़े का इस्तेमाल भारतीय विश्वविद्यालयों में उदारवादी शिक्षाविदों को परेशान करने के लिए करते हैं.
राजनीतिक चाल
जेएनयू में कारगिल विजय दिवस के मौक़े पर वाइस चांसलर के नेतृत्व में हुई एक तिरंगा रैली हुई जिसमें उन्होंने ‘सेना के प्रति प्रेम’ को बढ़ावा देने के लिए विश्वविद्यालय परिसर में टैंक रखने की मांग की.
इससे भी एक क़दम आगे बढ़कर, एक अवकाश प्राप्त जनरल ने, जो टीवी चैनलों पर अपने युद्धोन्मादी प्रदर्शन के लिए विख्यात हैं, इस मौक़े को जेएनयू रूपी उदारवादियों के क़िले पर ‘क़ब्ज़ा’ करने के समान बताया और जाधवपुर विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय में ऐसी ही ‘विजयों’ का आह्वान किया.
इसलिए इसमें कुछ भी आश्चर्यजनक नहीं था कि एक हफ़्ते के बाद ही भाजपा की छात्र इकाई ने हैदराबाद विश्वविद्यालय के कैंपस में जबरन एक कारगिल स्मारक (मेमोरियल) की स्थापना कर दी, जिसे बाद में विश्वविद्यालय प्रशासन ने हटा दिया.
यह सब किसी पवित्र मक़सद से नहीं किया गया, बल्कि यह एक राजनीतिक चाल थी. ये बात इस तथ्य से ही स्पष्ट है कि इस स्मारक को जनवरी, 2016 में आत्महत्या करने वाले दलित छात्र रोहित वेमुला के स्मारक के बगल में बनाया गया.
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भाजपा से नज़दीकी रखने वाली जमात, कारगिल का इस्तेमाल उदारवाद के ख़िलाफ़ अपने सांस्कृतिक युद्ध में कर रही है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि कारगिल दिवस का यह पूरा ताम-झाम हक़ीक़त में भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के अपराधबोध को ढंकने का साधन था.
यह अपराधबोध कभी उनका पीछा नहीं छोड़ने वाला था कि उनके शासन में पाकिस्तानी सेना रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में ज़बरदस्त घुसपैठ करने में कामयाब रही थी.
विचित्र बात है कि हम उस दिन की याद में ऐसा कोई सार्वजनिक समारोह नहीं करते हैं, जिस दिन, यानी 27 अक्टूबर, 1947 को भारतीय वायु सेना ने कश्मीर को बचाने के लिए उड़ान भरी थी या उस दिन की याद में जब उन्होंने असल में हार को जीत में बदल दिया था. न ही ऐसा कोई समारोह उस दिन की याद में होता है जब दिसंबर, 1971 में हमने ढाका पर क़ब्ज़ा कर लिया था.
कारगिल प्रकरण में भाजपा नेतृत्व वाली सरकार तीन स्तरों पर नाकाम रही थी.
पहला, वह पाकिस्तान का रणनीतिक आकलन करने में नाकाम रही. जिस समय पाकिस्तानी सेना फरवरी 1999 में नियंत्रण रेखा को पार करने की योजना बना रही थी, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी लाहौर में मीनार-ए-पाकिस्तान की यात्रा कर रहे थे.
यह भारत की तरफ़ से पाकिस्तान के साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाने की सबसे नाटकीय पहल थी. पाकिस्तान द्वारा विश्वासघात का दावा तब ज़्यादा विश्वसनीय होता, जब साथ में अपने बचकानेपन और जवाबदेही को भी स्वीकार किया जाता.
कारगिल की चूक
सरकार की दूसरी नाकामी यह रही कि यह 5 मई, 1999 को पाकिस्तानी घुसपैठ की ख़बर आने के बाद वह स्थिति का आकलन नहीं कर पाई. रक्षा मामलों की कैबिनेट समिति की पहली बैठक कहीं जाकर 25 मई को हुई, जिसमें आख़िरकार भारतीय वायु सेना के इस्तेमाल का फ़ैसला लिया गया.
यह किसी एक ब्रिगेड की नाकामी का मामला नहीं था, बल्कि यह ऊपर के सारे स्तरों की नाकामी थी, जिसमें डिविजन, कॉर्प्स, सेना मुख्यालय, रॉ (रिसर्च एंड एनालिसिस विंग), प्रधानमंत्री कार्यालय और रक्षा मामलों की कैबिनेट समिति तक शामिल थे. लेकिन, सबको पता है कि इतनी गंभीर चूक की क़ीमत सिर्फ़ एक ब्रिगेडियर को चुकानी पड़ी, जो रक्षा कमांड की सीढ़ी में काफ़ी नीचे था.
तीसरे स्तर पर, स्थिति से निपटने की भारतीय नीति के कारण भी कई जानें गंवानी पड़ीं. सरकार ने यह कह कर सेना के हाथ बांध दिए कि पूरी लड़ाई पाकिस्तानियों द्वारा घुसपैठ के इलाक़े में ही सीमित रहनी चाहिए.
इसका नतीजा यह हुआ कि अपने पसंद की जगह पर युद्ध करने की जगह, हमारे सैनिकों को पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा तैयार की गई युद्धभूमि में सीधे अपने सीने पर गोलियां झेलनी पड़ीं.
अपनी सफ़ाई के तौर पर कई दलीलें दी गईं. ख़ासतौर पर यह कि बड़े पैमाने के संघर्ष से युद्ध और बढ़ता जो परमाणु युद्ध की ओर ले जा सकता था. लेकिन, निश्चित तौर पर दूसरे विकल्प मौजूद थे और यह भी पूछा जाना चाहिए कि आख़िर युद्ध को ज़्यादा न बढ़ाने का ज़िम्मा हम पर ही क्यों था, पाकिस्तान पर क्यों नहीं?
दिखावटी समीक्षा
कारगिल समीक्षा समिति का गठन करते हुए बेहद सावधानीपूर्वक इसे सिर्फ़ ‘उन घटनाओं की समीक्षा’ करने को कहा गया गया, जो ‘पाकिस्तानी घुसपैठ का कारण’ बनीं. साथ ही इसे भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए उपाय सुझाने के लिए भी कहा गया.
इसने काफ़ी सचेत तरीक़े से सरकार को किसी भी जवादेही से मुक्त कर दिया. हालांकि, इसने मोटे तौर पर सेना को दोषमुक्त कर दिया और रॉ की आलोचना की, लेकिन इसने लाहौर प्रक्रिया को लेकर ‘कुछ राजनीतिक हलकों में देखे गए अतार्किक उत्साह’ का ज़िक्र ज़रूर किया.
सरकार की गर्दन सिर्फ़ और सिर्फ़ सैनिकों की बहादुरी के कारण बच पाई, जिन्होंने आधुनिक युद्धकला के सिद्धांतों को नकारते हुए शत्रुओं का सीधे सामना किया. उनकी शहादत सचमुच में पवित्र श्रद्धांजलि की हक़दार है, लेकिन ऐसा करते वक़्त हमें हमेशा यह ध्यान में रखना चाहिए कि अगर सरकार ने हालात को ज़्यादा सक्षम तरीक़े से संभाला होता, तो शायद वे आज ज़िंदा होते.
लेकिन इसकी जगह आज हम एक राजनीतिक मंच को बढ़ावा देने के लिए इस मौक़े का शर्मनाक तरीक़े से दुखद इस्तेमाल होते हुए देखने के लिए मजबूर हैं.
(लेखक आॅब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में विशिष्ट शोधकर्ता हैं. यह लेख मूलत: अंग्रेज़ी में मेल टुडे में प्रकाशित हुआ है.)