अर्णब गोस्वामी बनाम अन्य: क्या सुप्रीम कोर्ट की नज़र में सभी नागरिक समान नहीं हैं?

हाल ही में रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी को ज़मानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट एवं ज़िला न्यायालयों को निर्देश दिया कि वे बेल देने पर जोर दें, न कि जेल भेजने में. सवाल ये है कि क्या ख़ुद शीर्ष अदालत हर एक नागरिक पर ये सिद्धांत लागू करता है या फिर रसूख वाले और सत्ता के क़रीबी लोगों को ही इसका लाभ मिल पा रहा है?

(फोटो: पीटीआई)

हाल ही में रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी को ज़मानत देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने हाईकोर्ट एवं ज़िला न्यायालयों को निर्देश दिया कि वे बेल देने पर जोर दें, न कि जेल भेजने में. सवाल ये है कि क्या ख़ुद शीर्ष अदालत हर एक नागरिक पर ये सिद्धांत लागू करता है या फिर रसूख वाले और सत्ता के क़रीबी लोगों को ही इसका लाभ मिल पा रहा है?

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नई दिल्ली: प्रख्यात जज जस्टिस कृष्णा अय्यर ने राजस्थान राज्य बनाम बालचंद  मामले में अपने बेहद चर्चित फैसले में कहा था कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का आधारभूत नियम ‘बेल है, न कि जेल.’ इसका आशय है कि यदि आरोपी द्वारा न्याय के मार्ग में अड़चन पैदा करने का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं दिखता है तो न्यायिक व्यवस्था में दोषी ठहराए जाने तक विचाराधीन कैदियों को जमानत देने पर जोर होना चाहिए, न कि जेल में रखकर उन्हें प्रताड़ित करना.

सुप्रीम कोर्ट ने इसी सिद्धांत को आधार बनाते हुए रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी को बीते 11 नवंबर जमानत दी और हाईकोर्ट एवं जिला न्यायालयों को निर्देश दिया कि जमानत याचिकाओं पर फैसला लेते वक्त वे इसका पालन करें.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट पर ही बड़ा सवाल उठ रहा है कि वे इस सिद्धांत का कितना पालन करते हैं. क्या सर्वोच्च न्यायालय हर एक नागरिक पर ये लागू करता है या फिर रसूख वाले और सत्ता के करीब व्यक्तियों को ही इसका लाभ मिल पा रहा है?

भारत के संविधान का अनुच्छेद 14 कहता है कि न्याय के सामने सभी समान हैं और राज्य किसी को भी न्याय की बराबर सुरक्षा देने से इनकार नहीं कर सकता है.

हालांकि भीमा-कोरेगांव एवं एल्गार परिषद मामले में बंद कार्यकर्ताओं, वकीलों और शिक्षाविदों, पत्रकार सिद्दीक कप्पन, धारा 370 के खत्म किए जाने के बाद दायर की गईं कई बंदी प्रत्यक्षीकरण (हीबियस कॉर्पस) याचिकाओं तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन वाले अन्य मामलों में शीर्ष अदालत के रवैये ने एक बड़ा सवाल खड़ा किया है कि क्या सुप्रीम कोर्ट सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार कर रहा है?

देश के किसी भी कोने में ये कहते हुए आसानी से सुना जा सकता है कि ‘कोर्ट में तो सिर्फ तारीख पे तारीख मिलती है.’ यह दर्शाता है कि किस तरह भारत की न्यायपालिका प्रशासनिक अव्यवस्थता और नीतिगत पंगुता के कारण करोड़ों केस के तले दबी हुई है.

इन तमाम केसों के बीच में कोर्ट को अपनी वरीयता भी तय करनी होती है, जिसमें से स्वतंत्रता के विषय को प्रमुख स्थान दिया गया है. हालांकि इसमें भी बार-बार असमानता देखने को मिल रही है.

पिछले नौ महीने में सुप्रीम कोर्ट ने अर्णब गोस्वामी की कम से कम छह याचिकाओं को प्रमुखता देते हुए तत्काल सुनवाई के लिए सूचीबद्ध किया, इसके उलट कई सारे लोग जेलों में बंद हैं और महज एक सुनवाई के लिए हफ्तों-महीनों से इंतजार कर रहे हैं.

इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने गोस्वामी की अधिकतर याचिकाओं को एक हफ्ते के भीतर सुनकर इसका निपटारा भी किया, कुछ मामलों में कोर्ट द्वारा इतनी तेजी बरती गई कि मामले को अगले ही दिन सुन लिया गया.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ कथित रूप से विवादित टिप्पणी करने के आरोप में दर्ज कई एफआईआर के खिलाफ गोस्वामी ने 23 अप्रैल 2020 को सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. इस केस को अगले ही दिन के लिए सूचीबद्ध किया गया और इसका निपटारा किया गया.

महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं की लिंचिंग के मुद्दे पर डिबेट के दौरान सोनिया गांधी पर टिप्पणी के आरोप में कई राज्यों में अर्णब गोस्वामी के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई थी. हालांकि जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने गोस्वामी को गिरफ्तारी से तीन हफ्ते की छूट दे दी थी.

अर्णब गोस्वामी. (फोटो: पीटीआई)
अर्णब गोस्वामी. (फोटो: पीटीआई)

इसी तरह टीआरपी घोटाला मामले में एजीआर आउटलीयर मीडिया प्राइवेट लिमिटेड (जो कि रिपब्लिक टीवी का संचालन करता है) और अर्णब गोस्वामी ने 10 अक्टूबर 2020 को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की. सिर्फ पांच दिन बाद 15 अक्टूबर 2020 को इस केस की सुनवाई की गई और निपटारा कर दिया गया.

इसमें मुंबई पुलिस ने आरोप लगाया था कि रिपब्लिक टीवी जांच में व्यवधान खड़े कर रहा है और फिलहाल इस केस को सीबीआई को नहीं सौंपा जाना चाहिए. शीर्ष अदालत ने गोस्वामी की याचिका को खारिज किया और उन्हें बॉम्बे हाईकोर्ट जाने को कहा.

सुप्रीम कोर्ट ने 17 दिसंबर 2020 को एआरजी आउटलीयर मीडिया की एक और याचिका का निपटारा किया, जो कि छह नवंबर 2020 को दायर की गई थी. संस्था ने मुंबई पुलिस द्वारा उसके संपादकों एवं रिपोर्टरों के खिलाफ पुलिसबलों के प्रति दुर्भावना प्रसारित करने के आरोप में दर्ज एफआईआर को खारिज करने की मांग की थी.

मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे की अगुवाई वाली पीठ ने इस केस में याचिकाकर्ता को बॉम्बे हाईकोर्ट को जाने को कहा.

इसी तरह आत्महत्या के लिए उकसाने के साल 2018 के एक मामले में अर्णब गोस्वामी के खिलाफ दर्ज एफआईआर को सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल सूचीबद्ध किया और एक महीने के भीतर इसका निपटारा किया.

आश्चर्यजनक बात ये है कि जहां गोस्वामी के मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तत्परता दिखाई जा रही है, वहीं दूसरे मामलों में कोर्ट काफी नरमी बरतता हुआ प्रतीत होता है. यहां गोस्वामी के मामलों को जल्दी सुनने का विरोध नहीं है, बल्कि इसी तरह के अन्य मामलों या इससे भी ज्यादा जरूरी केस को तरजीह देने की मांग की जा रही है.

वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट के महासचिव को कड़े शब्दों में पत्र लिखकर सवाल उठाया था.

वरिष्ठ वकील ने लिखा था, ‘जब हजारों लोग लंबे समय से जेलों में बंद हैं और उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में कई हफ्तों और महीनों से सुनवाई नहीं हुई है, ऐसे में ये बेहद चिंताजनक है कि कैसे और किस तरह से गोस्वामी की याचिका सुप्रीम कोर्ट में तत्काल सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर दी जाती है. क्या इसे लेकर मास्टर ऑफ रोस्टर और मुख्य न्यायाधीश की ओर से कोई विशेष आदेश या निर्देश दिया गया है?’

समान मामले

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा असमान व्यवहार करने का एक बड़ा उदाहरण सिद्दीक कप्पन केस है, जहां केरल के पत्रकार कप्पन को पांच अक्टूबर को हाथरस जाते समय रास्ते में गिरफ्तार किया जाता है, लेकिन जब इसके खिलाफ न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जाता है तो कोर्ट उन्हें गोस्वामी जैसी राहत नहीं देता है.

मामले की सुनवाई के दौरान जब वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने पूछा कि क्यों कोर्ट ने रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्णब गोस्वामी की याचिका पर तत्काल सुनवाई की और कप्पन की गिरफ्तारी वाले मामले को निचली अदालत में भेजने को उत्सुक है, इस पर सीजेआई बोबडे ने कहा, ‘प्रत्येक मामला अलग-अलग होता है.’

इसी मामले की एक अन्य सुनवाई के दौरान सीजेआई ने यह भी कहा था कि अदालत के सामने मौलिक अधिकारों के हनन के लिए दायर होने वाली अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाओं की बाढ़-सी आ गई है और वे इन्हें हतोत्साहित कर रहे हैं. खास बात ये है कि संविधान निर्माता डॉ. बीआर आंबेडकर ने अनुच्छेद 32 को संविधान की आत्मा कहा था.

केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन. (फोटो साभार: ट्विटर/@vssanakan)
केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन. (फोटो साभार: ट्विटर/@vssanakan)

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के टाल-मटोल के बीच सिद्दीक कप्पन और तीन अन्य के खिलाफ दर्ज मामले को उत्तर प्रदेश सरकार के आवेदन पर अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायालय में ट्रांसफर कर दिया गया है. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को सुनने के लिए जनवरी में तीसरे हफ्ते का डेट दिया है, यानी कि तब तक कप्पन हिरासत में ही रहेंगे.

इसी तरह महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उनके मंत्रियों के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक टिप्पणी करने के कारण नागपुर निवासी समीत ठक्कर के खिलाफ कई एफआईआर दर्ज किए गए थे.

जब उन्होंने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो न्यायालय ने कहा कि ‘हाईकोर्ट भी मौलिक अधिकारों को बरकरार रखने का कार्य कर सकते हैं.’

बीते 16 नवंबर को मामले की सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील महेश जेठमलानी ने दलील दी कि उनके मुवक्किल ठक्कर को गिरफ्तार किया गया है जबकि एफआईआर में लगाए गए सभी आरोप जमानती अपराध की श्रेणी के हैं.

हालांकि सीजेआई ने ठक्कर के मामले को सुनने से इनकार कर दिया, जबकि महाराष्ट्र सरकार के वकील ने कहा कि अगर जमानत दी जाती है तो वे आपत्ति नहीं जताएंगे.

जेठमलानी ने कहा, ‘योर लॉर्डशिप, यदि इस केस से आपको झटका (शॉक) नहीं लगता है, कोई भी चीज आपको चौंका नहीं सकती है.’ इस पर सीजेआई ने कहा, ‘हम हर दिन ऐसे मामले देखते हैं. हम ऐसी चीजों से प्रभावित नहीं होते हैं. अब हमें किसी भी चीज से शॉक नहीं लगता है.’

भीमा कोरेगांव-एल्गार परिषद मामले

इसी तरह जहां एक तरफ महज एक हफ्ते के भीतर अर्णब गोस्वामी को सत्र न्यायालय, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से होते हुए जमानत मिल गई, वहीं एल्गार परिषद मामले में गिरफ्तार किए गए 82 वर्षीय तेलुगू कवि एवं कार्यकर्ता वरवरा राव पिछले दो साल से भी ज्यादा समय से जेल में बंद हैं.

राव की कम से कम चार जमानत याचिकाएं सत्र न्यायालय एवं हाईकोर्ट से खारिज हो चुकी हैं. हैरानी की बात ये है कि इन याचिकाओं का निपटारा होने में करीब 20 महीने का वक्त लगा. वरवरा राव की स्वास्थ्य स्थिति इतनी खराब है कि बॉम्बे हाईकोर्ट भी ये कह चुका है कि वे ‘मृत्युशैया’ पर हैं.

जब राव की पांचवीं जमानत याचिका लंबे समय तक हाईकोर्ट में लंबित होने की दलील देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया गया तो सर्वोच्च न्यायालय ने वापस उन्हें निचली अदालत जाने का निर्देश दे दिया. आलम ये है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश लेकर हाईकोर्ट में जाने के बाद भी उनकी जमानत को लेकर टाल-मटोल करने की प्रक्रिया जारी है.

तेलुगू कवि वरवरा राव. (फोटो: पीटीआई)
तेलुगू कवि वरवरा राव. (फोटो: पीटीआई)

राव एवं उनके सहयोगियों (जिसमें नामी वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और शिक्षाविद शामिल हैं) को रोजमर्रा की चीजें जैसे कि कंबल, मोजा, चश्मा, स्ट्रॉ और सिपर (मुंह लगाकर पानी या जूस पीने वाला बॉटल) तक के लिए भी जेल प्रशासन से बार-बार गुजारिश करनी पड़ती है.

इस साल के सितंबर महीने के आखिरी हफ्ते में सुप्रीम कोर्ट ने एल्गार परिषद-भीमा कोरेगांव मामले में आरोपी अधिवक्ता एवं कार्यकर्ता सुधा भारद्वाज की अंतरिम जमानत याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया था.

याचिकाकर्ता की वकील वृंदा ग्रोवर ने कोर्ट को बताया था कि भारद्वाज दो साल से भी ज्यादा समय से जेल में बंद हैं और इस मामले में अभी तक आरोप भी तय नहीं हुए हैं. याचिकाकर्ता के पास से कोई भी आपत्तिजनक सामग्री नहीं मिली है. सुधा भारद्वाज की सेहत का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि आरोपी मधुमेह और कई दूसरी बीमारियों से जूझ रही हैं.

मालूम हो कि जनवरी 2018 में भीमा कोरेगांव में हुई हिंसा और माओवादियों से कथित संबंधों के आरोप में राव, भारद्वाज समेत कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था.

उन पर हिंसा भड़काने और प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के लिए फंड और मानव संसाधन इकठ्ठा करने का आरोप है, जिसे उन्होंने बेबुनियाद बताते हुए राजनीति से प्रेरित कहा है.

जम्मू कश्मीर और अनुच्छेद 370

पांच अगस्त 2019 के दिन न सिर्फ जम्मू कश्मीर, बल्कि पूरे भारत को उस समय झकझोर के रख दिया था, जब केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने संसद में अचानक से घोषणा की कि अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को मिला विशेष दर्जा खत्म किया जाता है और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया गया है.

जाहिर है कि इतने बड़े फैसले के खिलाफ अवाम का विरोध करना लाजिमी था. इसे रोकने के लिए भारत सरकार के निर्देशों पर स्थानीय प्रशासन ने प्रतिरोध को कुचलने के लिए बहुत बड़ी संख्या में गिरफ्तारियां कीं. इसमें सामान्य कार्यकर्ता से लेकर पूर्व मुख्यमंत्रियों और विपक्षी दलों के प्रमुखों तक को नजरबंद कर दिया गया.

अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधान हटाए जाने के बाद श्रीनगर के लाल चौक पर तैनात सुरक्षाकर्मी. (फोटो: पीटीआई)
अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के अधिकतर प्रावधान हटाए जाने के बाद श्रीनगर के लाल चौक पर तैनात सुरक्षाकर्मी. (फोटो: पीटीआई)

वैसे तो किसी को भी ये स्पष्ट जानकारी नहीं है कि उस समय कितने लोगों को हिरासत में लिया गया था, हालांकि इस साल मार्च में गृह राज्य मंत्री जी. किशन रेड्डी द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक पांच अगस्त 2019 के बाद कश्मीर में 7,357 लोगों को गिरफ्तार किया गया था.

प्रशासन के इस रवैये के खिलाफ न्यायालयों में केस पर केस, विशेषकर हीबियस कॉर्पस याचिका दायर किए जाने लगे. हालांकि हैरानी की बात ये है कि सालों तक बड़ी संख्या में लोगों के जेलों में रहने के बावजूद हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक ने इस पर ध्यान नहीं दिया और ऐसे मामलों में फैसला लेने में देरी होती रही.

हीबियस कॉर्पस यानी कि बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को ‘रिट याचिकाओं की क्वीन (रानी)’ कहा जाता है. इस याचिका को दायर किए जाने पर कोर्ट को राज्य को आदेश करना होता है कि वे हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उनके सामने पेश करें, संबंधित व्यक्ति के हिरासत को सही ठहराएं और ये सुनिश्चित करें की ऐसा करते हुए कानून का सही ढंग से पालन किया गया है.

प्रशासन को जवाबदेह ठहराने और मानवाधिकार को बरकरार रखने में ये बेहद महत्वपूर्ण याचिका होती है. हालांकि ऐसे बहुत से उदारण सामने आए हैं, जहां न्यायालय ने अपनी इस संवैधानिक जिम्मेदारी को नजरअंदाज किया है.

पांच अगस्त 2019 के बाद जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट में दायर की गईं 554 ऐसी याचिकाओं में न्यायालय ने सिर्फ 29 मामलों में फैसला किया था, जो कि कुल केस की तुलना में महज पांच फीसदी है.

ऐसे महत्वपूर्ण मामले सुप्रीम कोर्ट में भी टरकाए जाते रहे, जहां न्यायालय ने इन हिरासतों के पीछे की प्रमुख वजहों पर विचार नहीं किया, जो कि लोगों को विरोध प्रदर्शन करने से रोकना था.

खास बात ये है कि अधिकतर मामलों में न्यायालय में मेरिट पर विचार ही नहीं किया, क्योंकि सरकार ने आश्वासन दिया कि स्थिति सामान्य होने पर जल्द ही इन लोगों को रिहा कर दिया जाएगा और न्यायालय ने इसे आसानी से मान लिया.

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रशासन के आश्वासनों को हूबहू स्वीकार करना कितना बड़ा जोखिम है, उसका एक उदाहरण सैफुद्दीन सोज़ मामला है.

इसी साल जुलाई के आखिर में तत्कालीन जज जस्टिस अरुण मिश्रा, विनीत सरन और एमआर शाह की पीठ ने जम्मू कश्मीर प्रशासन के बयान को स्वीकार करते हुए 83 वर्षीय पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सैफुद्दीन सोज़ की पत्नी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का निस्तारण कर दिया.

प्रशासन ने अपने बयान में कहा था कि सैफुद्दीन सोज़ के आने जाने पर किसी प्रकार का प्रतिबंध नहीं है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के कुछ ही घंटे बाद एक वीडियो सामने आया, जिसमें स्पष्ट रूप से दिख रहा था कि सोज़ को पुलिसवालों ने श्रीनगर स्थित उनके आवास ने बाहर निकलने या मीडिया से बात करने की इजाजत नहीं दे रहे थे.

रिपोर्टर के पहुंचने पर बंद गेट और तार के बैरिकेड के पीछे से सोज़ पुलिसवाले पर चिल्लाते हुए कहते हैं, ‘जब मैं नजरबंद हूं तो सुप्रीम कोर्ट में सरकार कैसे कह सकती है कि सोज़ मुक्त हैं.’

गुरुवार को श्रीनगर में अपने घर की दीवार पर चढ़कर मीडिया से बात करते सैफुद्दीन सोज़ (फोटो: पीटीआई/वीडियोग्रैब)
जुलाई 2020 में श्रीनगर में अपने घर की दीवार पर चढ़कर मीडिया से बात करते सैफुद्दीन सोज़ (फोटो: पीटीआई/वीडियोग्रैब)

इसी तरह जम्मू कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला और फारूक अब्दुल्ला समेत अन्य नेताओं एवं नागरिकों की नजरबंदी और हिरासत को तत्काल खत्म करने के लिए बार-बार सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया जाता रहा, लेकिन कोर्ट की उदासीनता ने इन्हें काफी निराश किया.

दिलचस्प है कि पत्रकार अर्णब गोस्वामी को जमानत देते हुए जस्टिस डीवीई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि एक जज के रूप में हमें खुद को ये याद दिलाना चाहिए कि जमानत ही है जो हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम में निर्दोष के हितों को सुरक्षित करता है और इसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है. जमानत का प्रावधान न्यायिक व्यवस्था में मानवता को दर्शाता है.

उन्होंने कहा, ‘चूंकि हमें सभी नागरिकों की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी मिली हुई है, इसलिए हम ऐसे रास्ते को नहीं अपना सकते हैं जो कि इस मूलभूत नियम को उल्टा कर दे.’

हालांकि मौजूदा उदाहरणों से ये स्पष्ट है कि शीर्ष अदालत द्वारा सभी लोगों पर इन सिद्दांतों को समान रूप से लागू करना बहुत दूर की कौड़ी प्रतीत होती है. यदि न्यायालय ऐसा करने में सफल होता है तो वो असल मायने में सबके लिए ‘सुप्रीम’ होगा.