केंद्र के विवादित तीन कृषि क़ानूनों के प्रभाव की जानकारी देने और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी का क़ानून बनवाने की मांग को लेकर बीते 23 और 24 जनवरी को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर स्थित गुरु तेग बहादुर मेमोरियल में किसान संसद का आयोजन किया गया था.
नई दिल्ली: पंजाब में जालंधर के रहने वाले 52 वर्षीय लखमीर सिंह खालसा ने पिछले दो महीनों में करीब 20 दिन दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर बिताए हैं.
सिंह के पास जमीन नहीं है, लेकिन वे बार-बार ये आस लिए प्रदर्शन में शामिल होने आते हैं कि किसानों की तकलीफों को देखकर कम से कम इस मौके पर सरकार तीनों विवादित कृषि कानून वापस ले लेगी.
इस बार वे किसान संसद और ट्रैक्टर रैली में शामिल होने आए हैं. उन्होंने कहा, ‘मेरे पास जमीन नहीं है, लेकिन ज़मीर है. ये मेरी अंतरआत्मा की आवाज है, जो बार-बार मुझे यहां लाती है. भारत को मिटाने वाले बहुत आए, लेकिन सब मिट गए. ये देश किसान और मजदूरों से है, इन्हें मिटाने की कोशिश करने वालों का यही हश्र होगा.’
मोदी सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर करते हुए उन्होंने कहा, ‘ये नेता लोग कहीं से बन के नहीं आए हैं, हमने वोट देकर इन्हें बनाया है. ये संसद इनके घर की नहीं है. लेकिन जब असली संसद में दीमक लग जाता है तो हमें ऐसे किसान संसद का आयोजन करना पड़ता है.’
लखमीर सिंह इस बात को लेकर उदास हैं कि गणतंत्र दिवस के मौके पर उन्हें ट्रैक्टर परेड निकालने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है. उन्होंने कहा कि वे भी घर पर बैठ कर खुशी-खुशी गणतंत्र दिवस मनाना चाहते हैं, लेकिन जब सरकार रोजी-रोटी पर ही हमला करे तो कोई कैसे खुश रह सकता है.
विवादित तीनों कृषि कानूनों के प्रभावों के बारे में बताने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी का कानून बनवाने को लेकर बीते 23 और 24 जनवरी को दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर स्थित गुरु तेग बहादुर मेमोरियल में किसान संसद का आयोजन किया गया था.
इसमें किसान एवं किसान नेताओं समेत समाजसेवियों, वरिष्ठ पत्रकारों, अधिकार कार्यकर्ताओं एवं पूर्व मंत्रियों-सांसदों-विधायकों ने हिस्सा लिया. इसमें जस्टिस कोलसे पाटिल, प्रोफेसर जगमोहन सिन्हा, वकील प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर, यशवंत सिन्हा, सोमपाल शास्त्री जैसे कई लोगों ने हिस्सा लिया.
इस संसद में सर्वसम्मति से कृषि से संबंधित तीनों कानूनों को तत्काल वापस लेने का प्रस्ताव पारित किया गया. इस प्रस्ताव में कहा गया इन कानूनों को पूरी तरह से वापस लेना जरूरी है क्योंकि:
- ये कानून भारतीय कृषि को संचालित करने वाले कानूनी ढांचे को तहस-नहस कर देते हैं और किसानों के हितों के विरोधी हैं. ये किसानों को पूरी तरह से कॉरपोरेट घरानों को सुपुर्द करने की कानूनी कवायद का हिस्सा हैं.
- इन कानूनों को पारित करने से पहले इनसे प्रभावित होने वाले किसानों से कोई राय-मशविरा नहीं किया गया. इन्हें सारी संसदीय प्रक्रियाओं और मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए जबरदस्ती पारित कराया गया. इन्हें संसदीय समिति के पास भी नहीं भेजा गया. जिस तरह इन्हें राज्यसभा में पारित कराया गया, वो शर्मनाक था.
- कृषि और बाजार, दोनों ही राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं. राज्यों के अधिकार का हनन करने और उनके क्षेत्र में दखल देने का मतलब है संघीय प्रणाली का उल्लंघन. केंद्र सरकार इन कानूनों को व्यापार के क्षेत्र का बता रही है, जो कि केंद्र के अधिकार-क्षेत्र में है, लेकिन किसानों का कहना है कि ये कानून बाजार को प्रभावित करते हैं जो कि राज्य का मामला है.
- सरकार के द्वारा इन कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव इसलिए माना जा सकता है, क्योंकि इनका मूल आधार ही दोषपूर्ण है और संशोधन के बाद भी कानून तो जीवित ही रहेंगे और बीच-बीच में कार्यकारी आदेशों के द्वारा फिर से वे सारे प्रावधान वापस लाए जा सकते हैं, जो अभी आंदोलन के दबाव में वापस लिए गए हैं.
किसान संसद में पारित प्रस्ताव में कहा गया कि अगर सरकार यह कह रही है कि वह किसानों से बातचीत करके संशोधन करेगी तो कोई वजह नहीं है कि वह इन्हें वापस न ले. इन्हें कुछ वक्त के लिए स्थगित रखने का प्रस्ताव विधिसम्मत नहीं है, क्योंकि कानून सिर्फ अध्यादेशों के द्वारा या फिर संसद के द्वारा ही स्थगित किए जा सकते हैं.
इस दौरान कहा गया, ‘सरकार को अपना अड़ियलपन और अहंकार छोड़कर किसानों की बात सुननी चाहिए क्योंकि वह दावा कर रही है कि वह उनके भले के लिए चिंतित है. यह संसद मांग करती है कि इन कानूनों को विधिसम्मत प्रक्रिया के द्वारा रद्द किया जाए.’
इसके अलावा एमएसपी को कानूनी गारंटी देने को लेकर भी एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें सरकार के उस वादे की याद दिलाई गई जब उन्होंने कहा था कि वे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के हिसाब से एमएसपी देंगे.
किसान संसद में कहा गया, ‘15 साल पहले एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय किसान आयोग ने सुझाव दिया था कि किसानों को उनकी खेती पर आने वाली लागत पर उसका 50 प्रतिशत फसल कीमत के तौर पर मिलना चाहिए. इस बीच तकरीबन सभी राजनीतिक दलों ने इसका वादा किया और इस आधार पर सरकारें भी बनाईं, लेकिन आज तक इसे लागू नहीं किया गया.’
प्रस्ताव में कहा गया कि ये सरकार इसे लागू करने का गलत दावा कर रही है, क्योंकि उसने खेती पर आने वाली सभी तरह की लागत को जोड़ा ही नहीं है.
मालूम हो कि पिछले करीब दो महीने से किसान देशव्यापी आंदोलन कर रहे हैं और उनकी एक मांग यह है कि उन्हें उनकी उपज पर एमएसपी जरूर मिले. इसके लिए उन्होंने कहा है कि सरकार उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कानून बनाकर ये सुनिश्चित करे.
इसे लेकर किसान संसद ने कहा, ‘किसानों के साथ एकजुटता जाहिर करते हुए यह संसद प्रस्ताव करती है कि किसानों को उनकी उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी प्रावधान किया जाए. इस मांग को मानते हुए सरकार एक समिति गठित करे, जो कानून का मसौदा तैयार करने का काम करेगी.’
कार्यक्रम में प्रदर्शनकारी किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तानी और चीन के एजेंट जैसी टिप्पणी करने और आंदोलन को बदनाम करने के लिए सरकार को फटकार लगाई गई.
कहा गया, ‘सरकार, भारतीय जनता पार्टी और उसके समर्थक मीडिया ने आंदोलनकारियों को बदनाम करने का अभियान छेड़ दिया, उन्हें खालिस्तानी, आतंकवादी और पाकिस्तान एवं चीन का एजेंट तक कहा गया. यह संसद सरकार की संवेदनहीनता की निंदा करती है. उसने जिस तरह किसान आंदोलन को बदनाम करने के साथ जिस तरह उनका दमन किया, उसकी जितनी भर्त्सना की जाए कम है.’
कार्यकर्ताओं के अलावा माकपा, कांग्रेस, शिवसेना जैसे कई राजनीतिक दलों ने भी इस किसान संसद को समर्थन दिया.
इसमें शामिल हुईं सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने कहा, ‘सरकार की दलील है कि उन्होंने पूर्व की सरकार में बनाई गईं कमेटियों की सिफारिशों के आधार पर ये कानून बनाया है. अगर इन्हें पिछली सरकारों पर इतना ही विश्ववास है तो भाजपा को अपने पूर्ववर्ती सरकार को सत्ता सौंप देनी चाहिए.’
उन्होंने कहा, ‘वो संसद जहां हर मिनट जनता के हजारों रुपये खर्च होते हैं, वहां बैठे लोगों को सवाल पूछने का भी हक नहीं मिलता है. ये कैसी व्यवस्था बन गई है. कोई भी काम संविधान के चौखट के बाहर नहीं हो सकता है, लेकिन ये सरकार लॉकडाउन का फायदा उठाकर ये कानून ले आई है. ये कैसे उचित हो सकता है.’
पाटकर ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमला बोलते हुए कहा, ‘मन की बात तो ठीक है, लेकिन कानून बनाने में मनमानी नहीं चलेगी.’
वहीं जस्टिस कोलसे पाटिल ने कहा कि ये कहां लिखा है कि सरकार जो भी कानून बना देगी, वो जनता को मानना ही पड़ेगा.
उन्होंने कहा, ‘अगर कल सरकार कोई कानून बना दे कि सबको नंगा होना पड़ेगा तो क्या हम सभी नंगे हो जाएंगे? क्या हम इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाएंगे. महात्मा गांधी ने कहा था कि संसद कानून तो बना सकती है, लेकिन यदि ये जन विरोधी हुआ तो जनता का अधिकार है कि वे इसके खिलाफ आंदोलन करेंगे. संसद काम नहीं कर रही है, इसलिए जनता अपनी खुद की संसद लगा रही है.’
जस्टिस पाटिल कहा कि अब लोगों के सामने ये स्थिति आ गई है कि घर में मरने से अच्छा है वे सड़क पर लड़ें.
गंगा सफाई के लिए कई बार आमरण अनशन कर चुके संत गोपाल दास भी इस कार्यक्रम में शामिल हुए और कहा कि संकट की घड़ी में हर किसी को सैनिक बनना पड़ता है.
उन्होंने कहा, ‘लोग गरीबी रेखा पर तो खूब बात करते हैं, लेकिन अमीरी रेखा पर कभी कोई बात नहीं होती है. इन कानूनों के जरिये सरकार अमीरों को और अमीर बना रही है तथा गरीबों को अत्यधिक गरीबी के अंधकार में झोंक रही है. इसके खिलाफ तो आवाज उठेगा ही. किसान संसद किसी के एक व्यक्ति के मन की बात नहीं है, ये जनता के मन की बात है.’
वहीं सामाजिक कार्यकर्ता एनी राजा ने कहा कि सरकार एमएसपी को इसलिए कानूनी मान्यनता नहीं देना चाह रही है, क्योंकि उन्हें राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा (एनएफएस) जैसी जनकल्याणकारी योजनाओं को जारी रखना पड़ेगा.
उन्होंने कहा, ‘ये कहां का कानून है कि कल तक जमाखोरी गुनाह था और अब सरकार कानून बनाकर इसे वैध कर रही है. मोदी सरकार की मंशा स्पष्ट है. वे एमएसपी को कानूनी मान्यता इसलिए नहीं देना चाहते हैं क्योंकि एनएफएस, पीडीएस जैसी योजनाओं को जारी रखना पड़ेगा.’
मालूम हो कि केंद्र सरकार द्वारा लगाए गए कृषि से संबंधित तीन विधेयकों– किसान उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020, किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्य आश्वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 और आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020- के विरोध में पिछले दो महीने से किसान दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन कर रहे हैं.
इसे लेकर सरकार और किसानों के बीच 11 दौर की वार्ता हो चुकी है, लेकिन अभी तक कोई समाधान नहीं निकल पाया है. किसान तीनों नए कृषि कानूनों को पूरी तरह वापस लिए जाने तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी दिए जाने की अपनी मांग पर पहले की तरह डटे हुए हैं.