जस्टिस दीपक मिश्रा को देश का मुख्य न्यायाधीश बनाये जाने पर सवाल उठा रहे हैं पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण.
27 अगस्त को प्रधान न्यायाधीश जस्टिस जेएस खेहर का कार्यकाल पूरा हो रहा है. उनके बाद इस पद पर जस्टिस दीपक मिश्रा को मनोनीत करने का प्रस्ताव खुद जस्टिस खेहर ने दिया था, जिस पर राष्ट्रपति और केंद्र की मंजूरी भी मिल चुकी है. पर क्या उन्हें सिर्फ इस आधार पर इतने बड़े पद की ज़िम्मेदारी सौंपनी चाहिए कि वे सुप्रीम कोर्ट में मौजूद वरिष्ठतम जज हैं?
देश का प्रधान न्यायाधीश यानी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एक संवैधानिक पद है, जो देश की न्यायपालिका का अध्यक्ष होता है, जिसके अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट के 31 न्यायमूर्तियों सहित 1,000 हाईकोर्ट जज और 16 हज़ार अधीनस्थ जज आते हैं.
चीफ जस्टिस उच्चतम न्यायालय में संविधान से जुड़े जटिल मुद्दों, क़ानून के नियमों को प्रभावित करने वाले मामलों, देश के शासन से जुड़े मुद्दों सहित देश के करीब 1.3 अरब नागरिकों के जीवन और स्वतंत्रता से जुड़े मामले में निर्णय देने के साथ ही सामान्य और आपराधिक मामलों की अपील में भी फैसला देते हैं.
सुप्रीम कोर्ट का प्रमुख होने के नाते प्रधान न्यायाधीश को न केवल प्रशासन व्यवस्था से जुड़ी शक्तियां प्राप्त हैं, बल्कि उन्हें संवैधानिक पीठ और मामलों, जो कई बार राजनीतिक रूप से संवेदनशील भी होते है, के आवंटन का भी अधिकार मिला हुआ है.
1981 के जजों की नियुक्ति से जुड़े पहले केस में सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को इंगित किया था:
‘न्यायाधीशों को सख्त होना चाहिए, ऐसा जो किसी भी तरह की ताकत चाहे वो सत्ता की हो, आर्थिक या राजनीतिक, के सामने न झुके और जो क़ानून के मूल सिद्धांतों को कायम रख सके… ’
1993 में जजों की नियुक्ति से जुड़े दूसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा:
‘यह तो सभी को पता है कि वरिष्ठ जजों की नियुक्ति परिपक्व उम्र के उन लोगों में से होती हैं, जो क़ानूनी पेशे में अच्छी पृष्ठभूमि और प्रतिष्ठा रखते हैं… वरिष्ठ जजों की नियुक्ति में लगे संवैधानिक अधिकारियों से उम्मीद की जाती है कि वे पूरी तरह यह सुनिश्चित करें कि निर्विवाद रूप से ईमानदार व्यक्ति ही ऐसे उच्च महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त हो और कोई संदिग्ध व्यक्ति इस पद न पहुंचने पाए. इसलिए यह समय है जब वरिष्ठ न्यायाधीशों की नियुक्ति में शामिल सभी संवैधानिक अधिकारी अपने संवैधानिक दायित्व के इस गंभीर मसले के प्रति सचेत रहें और इस बात को लेकर सतर्क रहें कि कोई संदिग्ध नियुक्ति न हो सके.’
इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए देश के मुख्य न्यायाधीश को वरीयता दी. इस तरह न्यायपालिका का भविष्य तय करने में देश के चीफ जस्टिस की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका है. यही वजह है कि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले में वर्तमान चीफ जस्टिस ने चेताया था:
‘जजों को चुनने की ज़िम्मेदारी इतनी बड़ी है, साथ ही कोई अनुपयुक्त नियुक्ति होने के परिणाम इतने ख़तरनाक हैं कि अगर न्यायपालिका के ऊंचे ओहदों के लिए होने वाली चयन और नियुक्ति की प्रक्रिया में कोई ग़लती हो जाए, तो देश में एक तरह की अराजकता फ़ैल सकती है.’
मनोज नरूला बनाम भारत सरकार मामले में जस्टिस मिश्रा ने ख़ुद इस बात की तस्दीक की थी, ‘एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अगर इसके शुद्धतम स्वरूप में समझे तो ये मूल रूप से भ्रष्टाचार, ख़ासकर उच्च स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार के प्रति घृणा का भाव रखती है.’
फिर भी जस्टिस मिश्रा से हुई एक ‘चूक’ चौंकाती है. उन्होंने 1979 में (जब वे एक वक़ील थे) तब ओडिशा सरकार को दो एकड़ ज़मीन की लीज (पट्टा) पाने का आवेदन किया था. यहां उनके द्वारा आवंटन की शर्त के बतौर दिए गए एक हलफ़नामे में उन्होंने कहा था: ‘मैं जाति से ब्राह्मण हूं और अपने पूरे परिवार सहित मेरी ज़मीनी संपत्ति शून्य है.’
बाद में 11 फरवरी 1985 को ओडिशा सरकार के लैंड सेटलमेंट एक्ट 1962 के अंतर्गत मिश्रा के ख़िलाफ़ हुई कार्यवाही के बाद कटक के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट के एक आदेश के बाद यह लीज रद्द कर दी गई.
‘यह सरकारी आदेश विशेष रूप से पैराग्राफ 4 के बारे में बताता है कि भूमिहीन व्यक्ति वह होता है, जिसके पास अपने परिवार के सदस्यों समेत दो एकड़ से ज़्यादा ज़मीन नहीं होती, साथ ही जिसकी खेती के अलावा कोई आजीविका नहीं होती… इसलिए मैं इस बात को लेकर संतुष्ट हूं कि विरोधी पक्षकार (जस्टिस मिश्रा) भूमिहीन व्यक्ति नहीं थे और न ही वे सरकार द्वारा कृषि उद्देश्य के लिए दी जाने वाली ज़मीन के सेटलमेंट के लिए उपयुक्त हैं. इस अकेले आधार पर ही यह लीज ख़ारिज की जा सकती है… मैं इस बात को लेकर भी संतुष्ट हूं कि पट्टेदार ने गलतबयानी और धोखाधड़ी से लीज हासिल की है.’
यह भी देखा गया कि और भी कई लोग थे, जिन्होंने संदिग्ध तरीकों से ज़मीन हासिल की थी. चितरंजन मोहंती द्वारा ओडिशा उच्च न्यायालय में दायर एक याचिका के जवाब में कोर्ट ने 18 जनवरी 2012 को दिए एक आदेश में सीबीआई को इस बताये गए क्षेत्र में सरकारी ज़मीनों पर अनधिकृत अतिक्रमण और कब्ज़ों के बारे में पूछताछ और जांच करने को कहा था. सीबीआई की प्राथमिक जांच में बताया गया:
‘PE 1(S)/2011 के अनुसार कटक ज़िले के बिदानासी क्षेत्र के बिद्याधरपुर, बेंताकरपाडा, रामगढ़, थांगरहुडा, बृजबिहारीपुर और यूनिट 1 से 8 समेत 13 मौजों की सरकारी ज़मीनों के अनाधिकृत अतिक्रमण के मामले की जांच’
सीबीआई ने इस मामले की फाइनल रिपोर्ट 30 मई 2013 को साझा की, जहां इसने पाया:
‘इस मामले में, श्री दीपक मिश्रा पुत्र रघुनाथ मिश्रा, गांव तुलसीपुर, पोस्ट लालबाग, कटक रहवासी बानपुर, पुरी को 30.11.1979 को तत्कालीन तहसीलदार द्वारा प्लाट नंबर 34, खाता नंबर 330, मौज़ा बिद्याधरपुर में दो एकड़ ज़मीन अधिकृत की गई थी.’
‘तहसीलदार द्वारा दिया गया आवंटन आदेश 11.02.1985 को कटक के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए एक आदेश के बाद रद्द कर दिया गया था. लेकिन इसका रिकॉर्ड 06.01.2012 को कटक तहसीलदार के 6 जनवरी 2012 को ही दिए गए एक आदेश के बाद सुधारा गया है.’
सीबीआई ने आगे पाया:
‘जांच में 1977 से 1980 के दौरान बिद्याधरपुर मौज़ा में कटक सदर के तहसीलदार द्वारा अपात्र लाभार्थियों को सरकारी ज़मीन के अनियमित पट्टे देने के कई मामले सामने आ चुके हैं. हालांकि अनियमित पट्टे देने के कुछ मामले अतिरिक्त ज़िला मजिस्ट्रेट (राजस्व) द्वारा रद्द कर दिए गए थे लेकिन पट्टेदारों ने अब तक वो ज़मीन खाली नहीं की है. यहां तक कि 1984-85 में पट्टे रद्द करने के आदेश के बावजूद ज़मीन के रिकॉर्ड 06.01.2012 सुधारे गए.’
इस जांच रिपोर्ट के बाद हाईकोर्ट की कार्यवाही की कोई स्पष्ट जानकारी मौजूद नहीं है.
किसी हलफ़नामे, जिसे क़ानूनी रूप से एक सबूत की तरह देखा जाता है, में कोई ग़लत बयान देना और इसे ग़लत जानते हुए भी सच साबित करने की कोशिश करना भारतीय दंड संहिता के सेक्शन 199 और सेक्शन 200 के तहत गंभीर अपराध है, जिसके लिए सात साल की सज़ा और जुर्माना दिया जा सकता है. इस तरह जस्टिस मिश्रा द्वारा इस तरह का हलफ़नामा दाखिल करना एक बेहद गंभीर मामला है.
इसके अलावा जस्टिस मिश्रा का नाम अरुणाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कालिखो पुल के सुसाइड नोट में भी पाया गया था. हालांकि इस मामले की कोई जांच शुरू नहीं हुई है, लेकिन क़ानूनी जांच में इस सुसाइड नोट के वास्तविक होने की बात सामने आई. एविडेंस एक्ट के सेक्शन 32 के अनुसार कोई सुसाइड नोट एक स्पष्ट साक्ष्य है और अगर कभी ज़रूरत हो तो एफआईआर दर्ज करवाने के बारे में इसकी विस्तृत जांच की जा सकती है.
हाल ही में तीन हाईकोर्ट के जजों द्वारा ओडिशा हाईकोर्ट के दो आसीन न्यायाधीशों के ख़िलाफ़ आरोपों में भी जस्टिस मिश्रा का नाम आने की ख़बर आई थी.
क्या किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्य न्यायाधीश बनना चाहिए, भले ही वो वरिष्ठतम न्यायाधीश हों? वरिष्ठता एक ज़रूरी सिद्धांत है, हालांकि अकेला वो सिद्धांत भी नहीं, जिसके आधार पर देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति होनी चाहिए.
मैंने हमेशा न्यायाधीशों किसी राजनीतिक या वैचारिक कारण के चलते किसी जज के अधिक्रमण का विरोध किया है. 1977 में बतौर क़ानून मंत्री मैंने अपनी पार्टी द्वारा आपातकाल का निर्णय लेने वाले जजों को हटा देने की मांग का विरोध किया था. हालांकि इस मामले में मुद्दा नैतिकता के आधार पर योग्यता का है.
(शांति भूषण सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वक़ील हैं और 1977-79 के दौरान क़ानून मंत्री रह चुके हैं)
नोट: यह लेख जस्टिस दीपक मिश्रा के मुख्य न्यायाधीश बनने की घोषणा के बाद संपादित किया गया है.
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