विशेष रिपोर्ट: उत्तराखंड में आई भीषण तबाही के बाद राज्य की भाजपा सरकार ने दावा किया है कि वह समस्या का समाधान करने के लिए सभी ज़रूरी क़दम उठा रहे हैं. हालांकि आधिकारिक दस्तावेज़ दर्शाते हैं कि राज्य सरकार ने केंद्र को पत्र लिखकर कहा था कि पनबिजली परियोजनाओं द्वारा पानी छोड़ने के प्रावधान में ढील दी जानी चाहिए.
नई दिल्ली: उत्तराखंड के चमोली जिले में बर्फ फिसलने से अचानक आई भीषण बाढ़ और इसके चलते व्यापक स्तर पर हुए नुकसान ने साल 2013 के केदारनाथ आपदा के घावों को हरा कर दिया है.
केंद्र एवं राज्य सरकार के ऊपर सवाल उठ रहे हैं कि उन्होंने पिछली आपदाओं से सबक नहीं लिया और बेहद संवेदनशील हिमालयी क्षेत्रों में बेतरतीब ‘तथाकथित’ विकास कार्य जारी है, जिसका खामियाजा आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है जैसे मौजूदा तबाही में बहुत बड़ी संख्या में मजदूरों की मौत हुई है.
इस बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत तक ने ऐसा जताया है कि वे आमजनों के साथ हैं और समस्या का समाधान करने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं. हालांकि नदियों पर पनबिजली या जलविद्युत परियोजनाओं को बनाने और इनसे पानी छोड़ने के संबंध में लिए गए फैसलों में ये कोशिश नजर नहीं आती है.
आलम ये है कि करीब दो साल पहले रावत सरकार ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर कहा था इन परियोजनाओं से पानी छोड़ने के संबंध में बनाए गए नियमों में ढील दी जानी चाहिए, क्योंकि इससे प्रोजेक्ट को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है.
जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय (जल शक्ति मंत्रालय) ने अक्टूबर 2018 में एक नोटिफिकेशन जारी किया था, जिसके तहत हिमालयी गंगा का पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) 20 से 30 फीसदी तय किया गया. इसका मतलब है कि गंगा की ऊपरी धाराओं पर बने सभी जलविद्युत परियोजनाओं को अलग-अलग समय पर 20 से 30 फीसदी पानी नदी में छोड़ने के लिए अनिवार्य कर दिया गया.
नदी के स्वास्थ्य एवं इसके जलीय जीवों की आजीविका के लिए पर्यावरणीय प्रवाह बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति प्राप्त है.
हालांकि जल मंत्रालय द्वारा निर्धारित इस प्रावधान का उत्तराखंड सरकार ने विरोध किया और कहा कि इस पानी छोड़ने की सीमा को और कम किया जाना चाहिए, क्योंकि इससे प्रोजेक्ट को काफी नुकसान होगा.
द वायर द्वारा प्राप्त किए गए आधिकारिक दस्तावेजों से पता चलता है कि उत्तराखंड के मुख्य सचिव ने राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी), जो कि जल मंत्रालय की ही एक इकाई है, से कहा था कि मौजूदा पर्यावरणीय प्रवाह से राज्य की परियोजनाओं को लगभग 3500 करोड़ रुपये का नुकसान होगा.
चार जनवरी 2019 की तारीख में लिखे अपने पत्र में मुख्य सचिव ने कहा था, ‘जल संसाधन, नदी विकास एवं गंगा संरक्षण मंत्रालय द्वारा निर्धारित पर्यावरणीय प्रवाह (ई-फ्लो) के कारण परियोजनाओं को लगभग 25 प्रतिशत का घाटा होगा, जिससे ज्यादातर परियोजनाएं काम नहीं कर पाएंगी और इससे करीब 3500 करोड़ रुपये का नुकसान होगा.’
इस आधार पर उत्तराखंड सरकार ने ई-फ्लो की मात्रा पर विचार करने या पनबिजली परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त आर्थिक सहायता देने की मांग की.
जल संसाधन मंत्रालय ने फरवरी 2017 में पर्यावरणीय प्रवाह पर एक पॉलिसी पेपर जारी किया था, जिसके आधार पर गंगा की ऊपरी धाराओं (देवप्रयाग से हरिद्वार) के लिए पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो घोषित किया गया था.
उत्तराखंड के रूड़की स्थित राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिक (जी) डॉ. शरद जैन, आईआईटी दिल्ली के प्रोफेसर डॉ. एके गोसैन और केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के निदेशक एनएन राय द्वारा लिखे गए इस पेपर में सिफारिश की गई थी कि नवंबर से मार्च के दौरान 20 फीसदी, अप्रैल-मई एवं अक्टूबर में 25 फीसदी और जून से सितंबर के बीच 30 फीसदी ई-फ्लो या पर्यावरणीय प्रवाह होना चाहिए.
इस समूह ने उम्मीद जताई थी कि यदि इतना पानी नदी में छोड़ा जाता है तो यह नदी की जरूरतों को ‘पूरी कर सकता है.’
वैसे विशेषज्ञों एवं पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने जल शक्ति मंत्रालय द्वारा घोषित इस पर्यावरणीय प्रवाह को भी बेहद कम बताया है और कहा है कि यदि नदी को जीवित रखना है तो जलविद्युत परियोजना द्वारा और अधिक पानी छोड़ा जाना चाहिए.
लेकिन उत्तराखंड सरकार का मानना है कि इतना भी ई-फ्लो काफी अधिक है.
इसे लेकर मुख्य सचिव ने कहा कि मानसून सीजन के लिए कुल बहाव का 25 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह होना चाहिए, जबकि सरकार ने इस दौरान के लिए 30 फीसदी ई-फ्लो घोषित किया है. केंद्र ने एक महीने में कुल बहाव की तुलना में पर्यावरणीय प्रवाह घोषित किया था, जबकि उत्तराखंड सरकार ने चार महीने के आधार पर इसके निर्धारण की मांग की.
इसी तरह कम पानी वाले महीनों के लिए 25 फीसदी की जगह 20 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह तय करने की मांग की.
इतना ही नहीं, राज्य के मुख्य सचिव ने ये भी मांग की कि नदी में गाद के प्रवाह को भी पर्यावरणीय प्रवाह में सम्मिलित माना जाना चाहिए और स्थानीय प्रशासन की मांग पर अतिरिक्त पानी छोड़ा जा सकता है.
हालांकि पर्यावरणीय प्रवाह के पीछे एक प्रमुख विचार ये है कि ये अविरल या अबाध होना चाहिए.
उत्तराखंड सरकार ने पर्यावरणीय प्रवाह के संबंध में एनजीटी के आदेश को भी लागू न करने की इच्छा जताई थी. एनजीटी ने न्यूनतम 15 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए कहा था.
जनवरी 2019 में आई ऊर्जा पर संसद की स्थायी समिति की एक रिपोर्ट के मुताबिक, उत्तराखंड सरकार ने इस संबंध में कहा था, ‘जल मंत्रालय ने 20 से 30 फीसदी ई-फ्लो की घोषणा की है, जो कि बहुत ही ज्यादा है. यदि हम एनजीटी के आदेश को भी लागू करते हैं तो पुरानी क्षमता के आधार पर ही हमें 120 करोड़ रुपये का वार्षिक नुकसान होगा, नई क्षमता के बारे में तो भूल ही जाइए, जिसकी हमें जरूरत है. जहां तक इस नए आदेश का सवाल है तो यह जलविद्युत क्षेत्र को पूरी तरह खत्म कर देगा.’
उन्होंने कहा कि चूंकि ये नियम गंगा के ऊपरी क्षेत्र में लागू होते हैं, इसलिए उत्तराखंड को ही इसका सबसे ज्यादा नुकसान भुगतना पड़ेगा.
उत्तराखंड सरकार ने समिति को बताया कि उन्होंने राज्य में करीब 18,000 मेगावॉट की पनबिजली परियोजनाओं को बनाने की तैयारी की है. इसमें से 4,000 मेगावॉट के प्रोजेक्ट्स तैयार हो चुके हैं, 1,640 मेगावॉट के प्रोजेक्ट निर्माणाधीन हैं और 12,500 मेगावॉट के प्रोजेक्ट आगामी वर्षों में बनाए जाएंगे.
पर्यावरण विशेषज्ञों ने पहले की परियोजनाओं को लेकर ही गहरी चिंता जाहिर की है और आपदाओं के लिए जिम्मेदार ठहराया है, ऐसे में यदि उत्तराखंड सरकार के मुताबिक अन्य परियोजनाएं बनती हैं तो इसके चलते पर्यावरण को गंभीर खतरा पहुंचने की संभावना है.
आखिर कितना जरूरी है पर्यावरणीय प्रवाह
यदि साधारण शब्दों में कहें तो, किसी भी नदी के विकास के लिए जरूरी न्यूनतम प्रवाह को पर्यावरणीय प्रवाह कहा जाता है. इसका मतलब ये है कि नदी के स्वास्थ्य और इसके जलीय जीवों जैसे कि मछलियां, घड़ियाल, डॉल्फिन इत्यादि को अपना जीवन जीने के लिए कम से कम इतना पानी होना चाहिए.
इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) (2003) की परिभाषा के मुताबिक किसी नदी, वेटलैंड या तटीय क्षेत्रों के इको-सिस्टम को बनाए रखने और उनके विकास में योगदान के लिए जितना पानी दिया जाना चाहिए, उसे पर्यावरणीय प्रवाह या ई-फ्लो कहते हैं.
लेकिन नदियों पर जलविद्युत परियोजनाएं बनाने से नदी में पानी की मात्रा प्रभावित होती है. इस तरह का प्रवाह नदी की अविरलता सुनिश्चित करता है. इसलिए एक समय भारत के जल मंत्रालय ने ‘अविरल से निर्मल गंगा’ का सूत्रवाक्य दिया था.
जलविद्युत परियोजनाओं की भरमार के बाद पिछले कई सालों से भारत की नदियों में पर्याप्त पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की मांग उठती रही है. इसे लेकर 2006 से 2018 के बीच विभिन्न स्तरों पर कम से कम 12 रिपोर्ट तैयार की गई, लेकिन इनके बीच सर्वसम्मति नहीं बन पाई और ई-फ्लो की मात्रा को लेकर विशेषज्ञों की अलग-अलग राय रही.
द वायर ने अपनी पिछली रिपोर्ट में बताया था कि किस तरह से सरकार ने उस समिति की रिपोर्ट स्वीकार नहीं की, जिसने नदी में ज्यादा पानी छोड़ने की सिफारिश की थी, जबकि तत्कालीन केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने इस पर सहमति जताई थी.
इतनी ही नहीं, सरकार ने जिस पॉलिसी पेपर के आधार पर मौजूदा ई-फ्लो घोषित किया है उसमें किसी भी प्राथमिक (नए) आंकड़ों का आकलन नहीं है, बल्कि ई-फ्लो पर पूर्व में किए गए विभिन्न अध्ययनों का विश्लेषण करके इसकी सिफारिश कर दी गई थी.
कुल मिलाकर अगर देखें तो चार रिपोर्टों में पनबिजली परियोजनाओं के लिए करीब 50 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने की सिफारिश की गई है. वहीं तीन रिपोर्ट ऐसी हैं, जिसमें 20-30 फीसदी ई-फ्लो रखने की बात की गई है. जल शक्ति मंत्रालय ने इसी सिफारिश को लागू करना जरूरी समझा.
अक्टूबर 2018 में आए सरकार के इस ई-फ्लो नोटिफिकेशन को अपर्याप्त बताते हुए इसे उत्तराखंड हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है.
क्या कहते हैं विशेषज्ञ
जाने माने पर्यावरण विशेषज्ञ और गंगा के पर्यावरणीय प्रवाह एवं इसके अन्य पहलुओं पर रिपोर्ट तैयार करने वाले सात आईआईटी के समूहों के संयोजक विनोद तारे ने कहा केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) के आकलन के आधार पर ये नोटिफिकेशन जारी किया गया था. सीडब्ल्यूसी की अपनी एक समझ होती है, हम इससे सहमत नहीं हैं. इन्होंने मनमाने ढंग से ये ई-फ्लो घोषित किया था.
उन्होंने कहा, ‘इन्होंने ई-फ्लो की परिभाषा ही बदल दी है. इनके मुताबिक जितना पानी हम दे सकते हैं उतना ही ई-फ्लो है, न कि जितना पानी नदी के लिए जरूरी है. हमारी अप्रोच ये होना चाहिए कि हमें कितनी ई-फ्लो की जरूरत है, न कि कितना ई-फ्लो हम रख सकते हैं.’
तारे ने आगे कहा, ‘हकीकत ये है कि हमारे पास अभी तक पर्याप्त डेटा ही नहीं है, जो ये सही-सही बता सके कि कितना ई-फ्लो होना चाहिए. पहले सरकार को परिभाषा और कार्यप्रणाली (मेथडोलॉजी) का नोटिफिकेशन करना पड़ेगा. इसके बात इसकी मात्रा निकल पाएगी. इनका कहना है कि हमने कुछ तो किया, पहले तो कुछ भी नहीं था. लेकिन इस बात का कोई मतलब नहीं है.’
तारे की अगुवाई में आईआईटी समूह ने अपनी रिपोर्ट में हिमालयी गंगा के लिए करीब 50 फीसदी पर्यावरणीय प्रवाह रखने की सिफारिश की थी. साल 2015 में इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर जल मंत्रालय द्वारा गठित एक तीन सदस्यीय समिति ने सहमति जताई थी और मंत्रालय से लागू करने की मांग की थी. इस रिपोर्ट को तत्कालीन जल मंत्री उमा भारती ने भी स्वीकृति प्रदान की थी.
हालांकि मंत्रालय ने इसे लागू नहीं किया और भारती के जाने के बाद मंत्री बने नितिन गडकरी ने पर्यावरणीय प्रवाह पर तैयार किए गए पॉलिसी पेपर के आधार पर मौजूदा ई-फ्लो घोषित कर दिया.
खास बात ये है कि इस पेपर की मेथडॉलजी (कार्यविधि) आईआईटी समूह द्वारा पेश की गई रिपोर्ट के जैसी ही थी, लेकिन इसके निष्कर्षों यानी कि ई-फ्लो की मात्रा में काफी अंतर था.
विनोद तारे का कहना है कि उत्तराखंड में आई वर्तमान तबाही के पीछे ई-फ्लो का कम होना प्रमुख वजह नहीं कहा जा सकता है, लेकिन यदि पूरी इकोलॉजी को संपूर्ण दृष्टि में देखा जाए तो ई-फ्लो बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है.
हालांकि जल मंत्रालय के पूर्व सचिव और पर्यावरणीय प्रवाह की सिफारिश करने वाली साल 2015 की समिति के सदस्य शशि शेखर का मानना है चमोली की त्रासदी के पीछे पर्याप्त ई-फ्लो न होना एक महत्वपूर्ण वजह है.
उन्होंने कहा, ‘हम तो जरूर इस त्रासदी को ई-फ्लो से जुड़ा हुआ देखते हैं. हिमालय सबसे नया पहाड़ है और अभी भी ये विकास कर रहा है. इसकी मिट्टी, पत्थर बहुत कमजोर (ढीले) हैं. इसके कारण इन पत्थरों में बहुत पानी घुसता है और जब पानी पिघलता है तो जमीन धंस जाती है. ऐसी जगहों पर सुरंग बनाने से उसकी सतह बहुत लूज (ढीली) हो जाती है.’
शेखर ने आगे कहा, ‘ग्लैशियर में क्रैक होने का मतलब है कि इन जगहों पर इतनी ब्लास्टिंग होती है कि पहाड़ ढीले हो जाते हैं. जब ग्लैशियर पीछे हटता है तो ये पत्थर, कीचड़ वगैरह पीछे छोड़ जाता है और ये एक साथ नीचे उतरता है. ये इतनी जोर से आता है कि रास्ते में जो कुछ आता है सब बर्बाद कर जाता है. जितने भी हाइड्रोलिक प्रोजेक्ट हैं, वो हजार मीटर के ऊपर नहीं बनने चाहिए.’
पूर्व जल सचिव ने कहा कि नौकरशाहों का ज्ञान बहुत सीमित है और जल एक जटिल विषय है, इसलिए इस संबंध में कोई फैसला लेने के लिए ये लोग पर्याप्त नहीं हैं. इसमें सबसे पहले इकोलॉजी का विशेषज्ञ होना चाहिए, उसके बाद बाकी लोगों को शामिल किया जाए.