दुनिया के शुरुआती केंद्रीय बैंकों की स्थापना मुख्य तौर अपनी सरकारों की वित्तीय ताकत को बढ़ाने के लिए किया गया था. स्वीडन के केंद्रीय बैंक स्वेरिग्स रिक्सबैंक ने 1668 में वित्तीय प्रबंधन का एक मॉडल प्रस्तुत किया. इस मॉडल को बाद में इंग्लैंड के विलियम तृतीय ने मुकम्मल रूप दिया, जिन्होंने फ्रांस के साथ नौ साल चले युद्ध में पैसा लगानेवाले कर्जदाताओं को आश्वस्त करने के मकसद से बैंक ऑफ इंग्लैंड की स्थापना की थी.
1947 में जब भारत का विभाजन हुआ, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) के सिर पर भी कई दायित्व आ गए, जो उसी के शब्दों में ‘कई संकटों को जन्म दे सकते थे.’
केंद्रीय बैंक को न सिर्फ अपने लाभों, परिसंपत्तियों (असेट्स) और देनदारियों के बंटवारे में (यह एक ऐसा मुद्दा है, जो आरबीआई के मुताबिक आज भी पूरी तरह से सुलझाया नहीं जा सका है) मदद करनी थी, बल्कि इसे सितंबर, 1948 तक भारत और पाकिस्तान के डोमिनियन का साझा बैंकर होने के अनचाहे दायित्व का भी निर्वाह करना था. इस दूसरे पहलू ने इसकी निष्पक्षता की सीमाओं को तान कर और ऊपर करने का काम किया.
हालांकि इस काम को किस तरह से अंजाम दिया जाना है यह फैसला आरबीआई ने खुद नहीं किया. जैसा कि विभाजन के परिणामस्वरूप सत्ता और प्रशासन के हस्तांतरण के ज़्यादातर मसलों के साथ हुआ था, यह दायित्व विभाजन परिषद (पार्टीशन काउंसिल) और इसकी दस विशेषज्ञ समितियों (एक्सपर्ट कमेटीज) पर आया.
केंद्रीय बैंक से जुड़े मसले मुख्य तौर पर पांचवी विशेषज्ञ समिति के पास आए. विभाजन के आंतरिक तर्क का अनुसरण करते हुए हर समिति में आधे-आधे मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम सदस्य थे. हर पक्ष को ‘भविष्य की दो सरकारों के हितों का प्रतिनिधित्व करने की उम्मीद थी.’
पांचवी विशेषज्ञ समिति में छह सदस्य थे: गुलाम मोहम्मद, ज़ाहिद हुसैन, आई क़ुरैशी, केजी अम्बेगावकर, संजीवा राव और एमवी रंगाचारी.
पाकिस्तान के हितों का प्रतिनिधित्व करनेवाले मोहम्मद हुसैन काफी जाने-माने फिनांशियर और सरकारी कर्मचारी थे. मोहम्मद पाकिस्तान के तीसरे गर्वनर जनरल बने और हुसैन पाकिस्तान के केंद्रीय बैंक (द स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान) के पहले गवर्नर बने.
अम्बेगावकर और रंगाचारी समर्पित भारतीय पक्षकार थे. अम्बेगावकर सम्मानित लोकसेवक थे, जो आरबीआई के छठे गवर्नर बने. रंगाचारी भी एक जानेमाने वरिष्ठ लोक सेवक थे, जिन्होंने वित्त मंत्रालय में काम किया.
इनका दायित्व त्रिआयामी था. पहला, उन्हें दोनों सरकारों के लिए मुद्रा और सिक्कों की व्यवस्था से संबंधित सिफारिशें करनी थीं. दूसरा, उन्हें आरबीआई की परिसंपत्तियों और देनदारियों के बंटवारे का प्रस्ताव तैयार करना था, साथ ही यह भी तय करना था कि केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों और प्रशासन तंत्र का विभाजन किस तरह से किया जाएगा. और तीसरा, इस समिति को दोनों देशों के लिए एक्सचेंज कंट्रोल (मुद्रा विनिमय नियंत्रण) को लेकर भी सिफारिशें करनी थीं और यह भी फैसला करना था कि पाकिस्तान आईएमएफ (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) और वर्ल्ड बैंक (इंटरनेशनल बैंक फॉर रिकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट) का सदस्य किस तरह से बनेगा.
देशमुख और उनके फैसले
उस समय आरबीआई के गवर्नर सर सीडी देशमुख, जो कि केंद्रीय बैंक के पहले भारतीय प्रमुख थे, ने खुद को एक अनूठी स्थिति में पाया. एक स्वतंत्र मौद्रिक प्राधिकारी (मॉनिटरी अथॉरिटी) होने के नाते, देशमुख ने यह साफ कर दिया कि ‘आरबीआई की भूमिका सिर्फ सलाहकार की है न कि किसी के तरफदार’ की और आरबीबाई इसी हैसियत से मशविरा दे सकता है. फिर भी बहस के लिए आनेवाले कई मुद्दों की प्रकृति ऐसी थी कि देशमुख और आरबीआई का बोर्ड पूरी तरह से तटस्थ या निर्लिप्त नहीं रह सकते थे.
आरबीआई के अंदरूनी दस्तावेज इस मामले में कई हैरत में डालनेवाले किस्से सुनाते हैं. इसमें यह भी शामिल है कि किस तरह से सेंट्रल बैंक का बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स परामर्श मांगने की सीमा के सवाल पर देशमुख और आरबीआई के डिप्टी गवर्नरों के विचार से इत्तेफाक नहीं रखता था और यह भी कि आरबीआई ने विभाजन परिषद की विशेषज्ञ समिति को परामर्श के लिए बंबई (दिल्ली की जगह) आने के लिए राजी करने के लिए कितनी असफल कोशिशें कीं.
आखिरकार, विशेषज्ञ समिति, जिसे अपना काम एक महीने के भीतर पूरा करना था, ने 28 जुलाई, 1947 को अपनी मुख्य रिपोर्ट और 5 अगस्त को पूरक (सप्लिमेंटरी) रिपोर्ट सौंप दी.
समिति द्वारा की मेहनत ने काफी हद तक 1947 के पाकिस्तान (मॉनिटरी सिस्टम एंड रिजर्व बैंक) ऑर्डर के लिए ज़मीन तैयार की. इसकी मुख्य बातें इस प्रकार थीं:
- दोनों देश, 31 मार्च, 1948 तक साझी मुद्रा और सिक्कों का इस्तेमाल करेंगे, जिसके बाद पाकिस्तान में सिर्फ पाकिस्तान में छपे हुए नोटों को जारी किया जाएगा. लेकिन भारतीय नोट 31 मार्च, के बाद अगले छह महीने तक पाकिस्तान में कानूनी रूप से मान्य (लीगल टेंडर) रहेंगे.
- आरबीआई, अक्टूबर 1948 तक एक साझे मुद्रा और मौद्रिक अथॉरिटी के तौर पर काम करेगा. बाद में आरबीआई और पाकिस्तान के बीच संबंध बिगड़ने के बाद इसकी तारीख और पहले कर दी गयी.
- 1 अप्रैल, 1948 से पाकिस्तान का सार्वजनिक ऋण कार्यालय (पब्लिक डेब्ट ऑफिस) और एक्सचेंज कंट्रोल उसके नियंत्रण में आ जाएगा. इस समिति के मुस्लिम सदस्य ढाका में आरबीआई की एक ब्रांच खोलना चाहते थे, जिस पर देशमुख सहमत हो गए.
- जहां तक केंद्रीय बैंक के कर्मचारियों का सवाल था, आरबीआई ने विचित्र तरीके से यह कहा कि पाकिस्तान वाले हिस्से में रह रहे सारे मुसलमान कर्मचारियों को भविष्य के पाकिस्तानी सेंट्रल बैंक के लिए काम करना पड़ेगा, जबकि भारत में रहने वाले मुसलमान कर्मचारियों और पाकिस्तान वाले क्षेत्र में काम कर रहे ग़ैर-मुस्लिम कर्मचारियों का स्थानांतरण, ‘स्वैच्छिक आधार’ पर होगा. आखिरकार सारे सरकारी कर्मचारियों को लेकर भारत सरकार की नीति का अनुसरण करते हुए आरबीआई ने भी अपने सभी कर्मचारियों को अपने काम करने की जगह को चुनने की सुविधा दी.
विशेषज्ञ समिति के दस्तावेजों से यह भी संकेत मिलता है कि दो मुद्दों पर समिति के मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम सदस्यों के बीच काफी असहमति थी. मुस्लिम सदस्यों का कहना था कि पाकिस्तान सरकार को आरबीआई का एक डिप्टी गवर्नर नियुक्त करने का अधिकार होना चाहिए और उसे आरबीआई के केंद्रीय बोर्ड के चार मनोनीत निदेशकों में से दो को सीधे मनोनीत करने का भी अधिकार होना चाहिए. विभाजन परिषद की संचालन समिति आखिरकार दूसरी मांग को मानने के लिए राजी हो गई, हालांकि, इस पर अमल नहीं किया जा सका.
हालांकि, इस बात पर सहमति बनी थी कि आरबीआई की भौतिक परिसंपत्तियों (फिजिकल असेट्स) का स्थानांतरण बही-मूल्य (बुक वैल्यू) पर नव निर्मित पाकिस्तान सेंट्रल बैंक को किया जाएगा, लेकिन बाकी सारी चीजों के बंटवारा टेढ़ी खीर साबित हुआ. इस सवाल पर विभाजन परिषद की संचालन समिति स्टियरिंग कमेटी द्वारा संतोषजनक ढंग से निर्णय किए जाने से पहले बहसों का एक लंबा दौर चला.
गुबार छंटने के बाद, जो आखिरी सवाल रह गया था, वह था नकद या कैश बैलेंस के वितरण का. विभाजन के वक्त भारत सरकार के पास कैश बैलेंस 400 करोड़ रुपये से थोड़ा कम था और इसमें पाकिस्तान का हिस्सा 75 करोड़ पर तय किया गया था. जिसमें 15 अगस्त, पाकिस्तान को दिया गया 20 करोड़ का वर्किंग बैलेंस भी शामिल था.
देशमुख बनाम पाकिस्तान
पाकिस्तान के हिस्से का बचा हुआ 55 करोड़ रुपया एक विवादित मसला बन गया, जिसने आरबीआई और पाकिस्तान के बीच के संबंध को बिगाड़ दिया. आरबीआई अपने इतिहास में लिखता है,
‘पाकिस्तानी सरकार के बैंकर के तौर पर पहले साढ़े चार महीने में बैंक के कामकाज में कोई दिक्कत नहीं आई. लेकिन, 1948 की जनवरी की शुरुआत में पाकिस्तानी सरकार द्वारा उठाए गए दो बेहद अहम मुद्दों के कारण गंभीर समस्या उठ खड़ी हुई. ये दो मुद्दे थे: एक, पाकिस्तानी सरकार को आवास मुहैया कराना और दो, बैंक के पास भारत सरकार के नगद बैलेंस से पाकिस्तान सरकार के खाते में 55 करोड़ रुपये का हस्तांतरण.’
फिर हुआ यह कि विभाजन के ठीक बाद कश्मीर दोनों देशों के बीच विवाद का केंद्र बनने लगा और पाकिस्तानी आक्रमण के बाद यह विवाद और गहरा गया.
पाकिस्तान द्वारा अपने बकाया के बारे में लिखने से पहले, आरबीआई के गवर्नर ने खुद से 1947 के अंत में बचे हुए 55 करोड़ रुपये के सवाल पर वित्त मंत्रालय से संपर्क किया. एक टेलीग्राम में, जिसमें भारत सरकार को यह याद दिलाया गया कि बचे हुए नकद को 3-3 करोड़ के किस्तों में चुकाया जा सकता है, देशमुख ने अपने संदेश के शुरू में लिखा, ‘यह समझते हुए कि राजनीतिक कारणों ने फैसले को प्रभावित किया है, मुझे लगता है कि मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उस मुद्रा (करेंसी) की ओर ध्यान आकर्षित करूं, जो स्पष्ट तौर पर भारत सरकार की प्रतीत नहीं होती है…’
इस पर वित्त सचिव का संक्षिप्त और रूखा जवाब था: वर्तमान में भारत सरकार का नकद का कोई हिस्सा जारी करने का कोई प्रस्ताव नहीं है.
खुद को आगे कुआं, पीछे खाई वाली स्थिति में पाकर आरबीआई ने पाकिस्तानी सरकार को हिचकते हुए यह जानकारी दी कि हालांकि, 5 करोड़ का आकस्मिक भुगतान का इंतजाम करना संभव है, लेकिन ‘दोनों देशों के बीच खिंची हुई तलवारों के मद्देनजर’ बाकी बचे हुए नकद का भुगतान ‘काफी अनिश्चित नजर आता है.’
यह समझ कर कि आरबीआई (आकस्मिक) नकद अदायगी पर पाबंदी लगाना चाहता है, साथ ही बचे हुए कैश बैलेंस का भुगतान किए जाने से इनकार करने पर क्रोधित होकर, पाकिस्तान के वित्त सचिव ने आरबीआई और देशमुख को तीखा जवाब भेजा.
‘पाकिस्तानी सरकार के लिए यह यकीन कर पाना मुश्किल है कि रिजर्व बैंक जैसी ज़िम्मेदार संस्था वित्तीय और आर्थिक तौर पर पाकिस्तान का गला घोंटने पर आमादा भारत सरकार के दबाव के बग़ैर ही निष्पक्ष लेन-देन की अपनी साख पर बट्टा लगाने का जोखिम उठाएगी. इन परिस्थितियों में रिजर्व बैंक के लिए सीधा रास्ता यही बचता है कि वह पाकिस्तान सरकार को यह सूचित कर दे कि वह इसके बैंकर और मुद्रा अथॉरिटी के तौर पर काम करने में खुद को असमर्थ पाता है और अविलंब बैंक की परिसंपत्तियों के बंटवारे की कार्रवाई शुरू करे.’
एक दूसरे ज्ञापन मेमोरेंडम में पाकिस्तान के वित्त सचिव ने आरबीआई से 55 से करोड़ रुपये का कैश बैलेंस पाकिस्तान के खाते में हस्तांतरित करने की मांग की; अगर ऐसा नहीं किया गया, तो केंद्रीय बैंक को भारत सरकार को, पाकिस्तान सरकार की इजाज़त के बग़ैर अपना खाता चलाने की इजाज़त नहीं देनी चाहिए. इस ज्ञापन ने निष्कर्ष के तौर पर कहा, ‘‘हम इस प्रकार ये मांग करते हैं कि रिजर्व बैंक को इस मामलें में दोनों अधिराज्यों (डोमिनियन) के साथ बराबरी का बर्ताव करना चाहिए.’
भारत के पक्ष की व्याख्या किस तरह की जा सकती है? जैसा कि गोपाल कृष्ण गांधी का मानना है, इसकी वजह सरकार की चिंता थी. उन्होंने 2014 में लिखा था, ‘नेहरू और पटेल उस रकम को अपने पास रखने के पक्ष में थे. (उनको लगता था) क्या पाकिस्तान उस पैसे का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ हथियार खरीदने के लिए नहीं करेगा?’
उप-प्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जनवरी, 1948 में यह कहते हुए इस फैसले का बचाव किया कि उन्होंने पाकिस्तानी अधिकारियों को यह साफ कर दिया था कि भारत सरकार ‘इन मसलों पर समझौते को तब तक अंतिम नहीं मानेगी, जब तक कि सारे महत्वपूर्ण मसलों पर समझौता नहीं हो जाता है.’
आखिरकार इस मसले पर महात्मा गांधी की बात चली. आरबीआई के इतिहास के मुताबिक, महात्मा गांधी का पक्ष था कि बकाया पैसे का भुगतान पाकिस्तान को किया जाना चाहिए और इसके लिए उन्होंने उपवास भी किया. इसके बाद भारत सरकार जल्द ही अपनी बात से पीछे हट गई और फंड को रिलीज करने के लिए तैयार हो गई.
पाकिस्तान और आरबीआई संबंध विच्छेद
इन घटनाओं ने अंततः पाकिस्तान सरकार के साथ देशमुख के संबंध खराब कर दिए. फरवरी, 1948 में आरबीआई के गवर्नर ने पाकिस्तान के वित्त मंत्री का कराची आने का निमंत्रण यह कहते हुए ठुकरा दिया कि ‘मैं तवज्जो और शिष्टाचार की कमी का ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार नहीं हूं, मुझ पर लगाए गए पूरी तरह से बेबुनियाद आरोपों के कारण मुझे जिसका ख़तरा महसूस हो रहा है.’
जब पाकिस्तान के वित्त सचिव ने देशमुख से कहा कि उनका रवैया भर्त्सना के लायक है, तब केंद्रीय बैंक के गवर्नर ने तीखा जवाब दिया:
‘आप मेरे रवैये की उतनी भर्त्सना नहीं कर सकते हैं, जितनी भर्त्सना मैं आपकी सरकार द्वारा एक सार्वजनिक विवाद में ग़ैरज़रूरी ढंग से रिजर्व बैंक को घसीटने की करता हूं. बैंक हमेशा आपसी सरकार के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों के प्रति सचेत रहा है और इसने अपनी क्षमता के मुताबिक इस ज़िम्मेदारी को भरसक निभाने का प्रयास भी किया है.’
कुछ समय के बाद, चीजें अपनी परिणति की ओर पहुंचनी शुरू हो गईं. दिल्ली में देशमुख और जाहिद हुसैन (जिन्होंने पांचवीं विशेषज्ञ समिति की कड़ी आलोचना की थी और जो उस वक्त भारत में पाकिस्तान के हाई कमिश्नर थे) के बीच हुई एक वार्ता के दौरान पाकिस्तान सरकार ने 1 अप्रैल, 1948 से पहले ही मुद्रा और बैंकिंग प्रबंधन की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में लेने का फैसला किया. शुरुआती योजना के मुताबिक आरबीआई को अक्टूबर, 1948 तक यह दायित्व निभाना था.
इसके बाद इसकी औपचारिकताएं जल्दी ही पूरी कर ली गईं. पाकिस्तान में स्थित तिजोरियों में रखी भारतीय करेंसी नोटों को पहले तय की गई तारीख से पहले ही आरबीआई को लौटा दिया गया और पाकिस्तान की मुद्रा और बैंकिंग व्यवस्था को स्टेट बैंक ऑफ पाकिस्तान (एसबीपी) को सौंप दिया गया.
विभिन्न परिसंपत्तियों के बंटवारे को लेकर झगड़ा इस दिन जारी है. एसबीपी के खाते हर साल आरबीआई पर अपने तब के दावों को अपनी ‘परिसंपत्तियों’ के तौर पर दिखाते हैं. ऐसा वह पिछले 66 सालों से करता आ रहा है. पाकिस्तानी सेंट्रल बैंक को लगता है कि उसका 48 करोड़ रुपये पर और हक बनता था, जो उसे नहीं दिया गया. आश्चर्य की बात है कि एसबीपी पिछले 60 सालों से मुद्रास्फीति, विनिमय दर में बदलावों और सिक्यूरिटीज की मूल्य वृद्धि के हिसाब से इस रकम को समायोजित (एडजस्ट) करता रहा है और दावा करता है कि भारत के पास इसका करीब 5.6 अरब रुपया बकाया है.
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