साक्षात्कार: कोंध समुदाय से आने वाले सामाजिक कार्यकर्ता नाचिका लिंगा चासी मुलिया आदिवासी संंघ के नेता हैं और लंबे समय से ओडिशा में नशामुक्ति, ज़मीन अधिकार और आदिवासियों को बंधुआ मज़दूर बनाए जाने के ख़िलाफ़ काम कर रहे हैं. उनसे जसिंता केरकेट्टा की बातचीत.
सामाजिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी नाचिका लिंगा ओडिशा के कोरापुट जिले में साहूकारों से आदिवासी और दलितों की ज़मीन छुड़ाने के लिए चलने वाले संघर्ष की अगुवाई करने वालों में से एक हैं.
लिंगा कोंध आदिवासी हैं. नशामुक्ति, ज़मीन लूट, साहूकारों द्वारा आदिवासी दलितों को बंधुआ बनाने के खिलाफ ‘चासी मुलिया आदिवासी संंघ’ के माध्यम से उन्होंने एक लंबा संघर्ष किया है. यह आंदोलन संघर्ष 2005 में शुरू हुआ था.
अक्तूबर 2014 में नाचिका लिंगा गिरफ्तार किए गए थे. संघर्ष में शामिल 700 से 800 लोग भी गिरफ्तार हुए थे. नाचिका लिंगा पर 45 मामले दर्ज हुए थे, जिनमें अदालत ने 44 मामलों में उन्हें बरी कर दिया है.
अभी सिर्फ एक मामला रह गया है, जिसमें उन्हें नवंबर 2020 में जमानत मिली है. कोरापुट जिले में उनके गांव भालियापुट में उनसे हुई के अंश.
आपके संघर्ष की शुरुआत कैसे हुई और इसका उद्देश्य क्या है?
वह 90 का दशक था. सरकार के एक को-ऑपरेटिव बैंक ‘लोकल एरिया मल्टी पर्पस सोसायटी’ से मेरे पिता ने लोन के रूप में सौ रुपये, धान और खाद लिया था. तब मैं 12-13 साल का था. पिता वह लोन समय पर नहीं चुका सके. एक साल के बाद बैंक के लोग ही उन्हें एक साहूकार के पास लेकर गए. साहूकार ने 120 रुपये सालाना पर दो भाइयों को अपने यहां बंधुआ मजदूर रख लिया.
कुछ साल साहूकार के पास बंधुआ मजदूर रहने के बाद मैं घर वापस आ गया. तब मेरा बड़ा भाई बंधुआ के रूप में साहूकार के पास गया. मैंने सूखी लकड़ियों का गट्ठर बेचना शुरू किया. उससे 20 रुपये कमा लेता था, जिससे घर चलता था. इस बीच पिता ने शराब पीकर अलग-अलग साहूकारों से कुछ और पैसे उधार ले लिए.
जब मैंने कड़ी मेहनत कर खेत में फसल उगाए तो साहूकार आकर खड़ी फसल काट ले गए. तीन साल तक वे खड़ी फसल काटते रहे. तब मैंने अपने पिता से पूछा कि आखिर कितना उधार लिया है, तब पता चला कि 3,500 रुपये का मूल धन है. हमने इमली, कांदुल बेचकर साहूकारों को उनका 3,500 रुपये चुका दिया. पांच साल तक बंधुआ मजदूर रहने के बाद मेरे दोनों भाई भी घर वापस आ गए.
मैंंने देखा शराब की भट्टी साहूकार चलाते हैं और शराब पिलाकर आदिवासियों से उनकी ज़मीनें हथिया रहे हैं. शराब पीने के कारण आदिवासी पुरुष अपने ही घर की स्त्रियों का सम्मान भी नहीं करते. घर में हिंसा होती है.
दूसरी ओर बंधुआ बनकर आदिवासी-दलित गुलामी का जीवन जीते हैं. तब मैंने घूम-घूमकर लोगों के साथ इन सब विषयों पर बातचीत करना शुरू किया. नशामुक्ति, साहूकारों से अपनी ज़मीन मुक्त करना और बंधुआ मजदूरी से मुक्ति यही मेरा मुख्य मुद्दा था तब.
मैंने 2005 में ‘चासी मुलिया आदिवासी संघ’ के संस्थापक गणनाथ पात्रो से अपने क्षेत्र में आने और यहां की परिस्थितियों को समझने का अनुरोध किया. यह किसान, मजदूरों का संगठन है जिसमें दलित- आदिवासी सभी शामिल हैं. 2008 में जमींदारों से आदिवासियों- दलितों की ज़मीन वापस लेने का संघर्ष शुरू हुआ और संगठन ने करीब 3,500 एकड़ आदिवासियों, दलितों की जमीन को साहूकारों के कब्जे से छुड़ाया. उस जमीन को आदिवासी और दलितों के बीच बांट दिया गया.
तब साहूकारों ने एक रणनीति के तहत इस आंदोलन को सरकार और देश के खिलाफ आंदोलन के रूप में पेश किया. वे इसे माओवादी आंदोलन बताने लगे. इस नैरेटिव से संघर्ष करने वाले लोग देशद्रोही और माओवादी घोषित कर दिए गए. बड़े पैमाने पर गिरफ़्तारियां हुईं. संगठन के करीब 700 से 800 लोग जेल गए.
अब भी कुछ लोग जेल में हैं. बाकी बाहर आकर मजदूरी-किसानी कर अपना केस लड़ रहे हैं. मैं भी बीच-बीच में जेल जाता रहा, पर अक्तूबर 2014 में जब गिरफ़्तार हुआ तब से जेल में था. मुझ पर 45 मामले दर्ज किए गए थे, जिनमें से 44 मामले ख़ारिज हो चुके हैं.
चल रहे एकमात्र मामले में नवंबर 2020 में जमानत मिली है, पर जिले से बाहर जाने पर अब भी मनाही है. ऐसा लगता है कि पहले मैं साहूकार का बंधुआ था, अब सरकार का बंधक हूं.
आपकी गिरफ्तारी के बाद यह कहा गया था कि आपने समर्पण किया है. इसमें कितनी सच्चाई है?
जिस दिन मेरी गिरफ़्तारी हुई, उस दिन मैं अपने गांव भालियापुट में ही बैठक कर रहा था. बैठक में जिला परिषद के सचिव, पंचायत समिति के सदस्य, कृषि विभाग के लोग शामिल थे.
हम खेती के लिए सिंचाई की व्यवस्था करने और गांव की अन्य समस्याओं को लेकर बातचीत कर रहे थे. तभी बीएसएफ के एक दल ने हमें घेर लिया और मुझे गिरफ़्तार कर लिया गया. मैं आदिवासियों-दलितों पर हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहा था इसलिए जेल जाने के बाद यह झूठी बात प्रचारित की गई कि मैंने समर्पण किया है. पर समर्पण तो अपराधी करते हैं और मैं अपराधी नहीं हूं.
मेरे जेल से निकलने के बाद भी सत्तारूढ़ दल द्वारा मेरे उनके साथ मिल जाने की बात प्रचारित गई, लेकिन मैंने उसका भी खंडन किया.
जेल से लौटकर गांव आने के बाद ज़मीन पर क्या बदलाव देखते हैं?
लौटकर देखता हूं तो पाता हूं कि साहूकारों ने पुलिस की मदद से फिर से लोगों से ज़मीनें छीन ली हैं. गांव के पास पुलिस कैंप है. अब
साहूकारों ने ज्यादा संख्या में दारू की भट्टियां खोल ली हैं. वही अन्याय अब नए रूप में हो रहा है.
आदिवासी और दलित पुरुष भी उनकी भट्टियों का शराब पीकर फिर से घर में अपनी स्त्रियों पर हिंसा करते हैं. लोग बिखर रहे हैं. जिन बातों के लिए मैंने संघर्ष किया और जेल गया, वही सब कुछ अब फिर से हो रहा है. इससे दुख होता है.
संघर्ष में शामिल लोग किसान और मजदूर ही थे, जो जेल गए. वे आज रोज-रोज मजदूरी कर अपना मुकदमा लड़ रहे हैं. गाय-बैल बेचकर भी केस लड़ रहे हैं. साहूकारों का सरकार पर बहुत भरोसा है, पर वह भरोसा आदिवासियों के भीतर नहीं पनप पाया है. यह दुखद है. लेकिन अन्याय के खिलाफ यह संघर्ष कभी नहीं ख़त्म होगा.
आजकल बहुत सारे युवा शोषक वर्ग के लिए काम कर रहे हैं. उनके बारे क्या सोचते हैं?
लोभ-लालच में पड़कर कुछ युवा ऐसा करने लग जाते हैं, उधर ज्यादा आकर्षण है, पर यह अधिक समय तक नहीं रहेगा क्योंकि जीने और रहने के लिए उन्हें अंततः अपना समुदाय, समाज और माटी ही चाहिए. वे लौटकर आएंगे और संघर्ष का महत्व समझेंगे.
क्या आपके संघर्ष को नई पीढ़ी समझती है? क्या यह संघर्ष जारी रहेगा?
मुझे विश्वास है कि नई पीढ़ी यहां के संघर्ष को समझने लगी है. डोंगर (पहाड़), जंगल, ज़मीन के संघर्ष को वे जरूर समझ जाएंगे और भविष्य में अन्याय के खिलाफ इस लड़ाई को आगे ले जाएंगे. पहाड़, जंगल से अपने रिश्ते और भावनाओं को आदिवासी हर दिन व्यक्त नहीं करता, लेकिन समय आने पर उसकी भावनाएं मुखर होती हैं.
माटी से इंसान बनता है और इंसानों से ही कोई देश. माटी और उसके लिए लड़ने वाले लोगों के नहीं बचने से देश भी नहीं बचेगा.
जेल का अनुभव कैसा रहा?
जेल में भी बहुत से लोग ‘चासी मुलिया आदिवासी संघ’ के संघर्ष के बारे जानते हैं. वे लोग मुझसे मिलने आते थे. मैं जेल में भी अपराधियों को गलत रास्ता छोड़ने और सही रास्ते पर आने का निर्णय लेने की सलाह देता था.
जेल के स्टाफ ने भी मुझसे अपनी तकलीफें बांटीं. यह देख-सुनकर जेल के डीआईजी ने भी मेरी प्रशंसा की थी. जेल में दूसरे लोगों के अनुभव सुनकर मुझे भी उनसे सीखने का मौका मिला.
देश में चल रहे किसान आंदोलन के बारे क्या कहना चाहते हैं? आपके हिसाब से खेती- किसानी कितनी जरूरी है?
देश में जो किसान आंदोलन चल रहा, उसमें उन किसानों की बात हो रही है जो मंडी से जुड़े हैं. आदिवासी तो मंडी तक पहुंच ही नहीं पाते. आदिवासी किसानों का कोई मंडी भी नहीं है. सेठ-साहूकार जो दाम तय करते हैं, हमें उसी पर अनाज बेचना पड़ता है. फिर वे दोगुने तिगुने दाम पर यह अनाज दूसरी जगह बेचते हैं.
खेती-किसानी से जुड़े आदिवासियों की समस्याओं पर देश में कोई बात नहीं हो रही है, न ही कोई इस विषय को उठा रहा है. खेती से जुड़े आंदोलन में हमारी बात भी होनी चाहिए.
आदिवासियों, दलितों, किसानों के संघर्ष को सरकार समझ नहीं पाती है. सरकार को इन लोगों को ध्यान में रखकर ही कोई नीति बनानी चाहिए या निर्णय लेना चाहिए, न कि साहूकारों को ध्यान में रखकर.
खेती-किसानी को मैं बहुत जरूरी मानता हूं. माटी से इंसान बना है, उसी से वह बचा भी रहेगा. ज़मीन से जुड़े कामों से पर्यावरण और जीवों का संतुलन बना रहता है. मैं मानता हूं कि ज़मीन, खेती किसानी से आदमी का रिश्ता खत्म होते ही धरती की व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी.
साथ ही मैं यह भी कहना चाहता हूं कि स्त्रियां रोशनी की तरह हैं. उनसे ही घर, परिवार, समाज और देश रोशन होता है इसलिए गांव- घर से लेकर देश में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित होनी चाहिए. उनका सम्मान होना चाहिए. जो भी उनका अपमान करते हैं. उन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए. माटी और मां की रक्षा से ही समाज और देश बचा रह सकता है.
(जसिंता केरकेट्टा स्वतंत्र पत्रकार हैं.)