शराबबंदी नीतीश कुमार के एक-डेढ़ दशकों की राजनीति की बड़ी उपलब्धि नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के अवसान का सूचक है.
शासन चलाने और शासन करने में जो फर्क है, वही फर्क लोकतांत्रिक और एकाधिकारवादी व्यवस्था में है. लेकिन हमारे निर्वाचित नेता अक्सर अपनी लोकप्रियता और बहुमत को मनमाने ढंग से शासन करने का लाइसेंस मान लेते हैं.
जिस देश में सामंतवादी संस्कार की जड़ें बहुत गहरी हों, वहां ऐसा होना कोई अजूबा भी नहीं है.
यही वजह है कि हम ऐसे नेताओं को न सिर्फ बर्दाश्त करते हैं, पर अलग-अलग कारणों से उनकी प्रशंसा भी करते हैं. ‘सुशासन बाबू’ के नाम से मशहूर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ऐसे ही नेताओं में से हैं.
भाजपा के मोर्चे को हरा कर महागठबंधन के नेता के रूप में बिहार की बागडोर संभालने के बाद से शराबबंदी उनका प्रिय और प्राथमिक मुद्दा बना हुआ है.
यह महागठबंधन के सात चुनावी संकल्पों में भी एक था और इससे जन-समर्थन, खासकर महिलाओं का वोट पाने में कुछ सहूलियत भी हुई.
बीते साल अप्रैल से में अमली जामा पहना दिया गया और बिहार में देशी-विदेशी शराब की बिक्री और उपभोग को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया.
गांधीवादी आदर्शों और संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की दुहाई देने के साथ नीतीश ने शराब के कारण पारिवारिक और सामाजिक जीवन में आ रही बुराईयों का भी हवाला दिया.
इस निर्णय को बिहार में आम तौर पर सराहा गया और इसे अमल में लाने के लिए हर तबके का सहयोग भी मिला. नीतीश बाबू इससे इस कदर उत्साहित हैं कि देश में कहीं भी जाते हैं तो शराबबंदी का आह्वान करना नहीं भूलते. पहले तो उन्होंने यह भी कहा था कि इस मुद्दे पर वे पूरे भारत में जन-जागरण अभियान चलायेंगे. लेकिन राजनीति के अपने हिसाब-किताब होते हैं.
वर्ष 2019 में मोदी के विकल्प के रूप में उभरने का सपना पाले बिहार के मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) नोटबंदी पर कोई ठोस राय नहीं बना सकी तथा पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनावों से भी उन्होंने किनारा कर लिया. बहरहाल, इन मुद्दों पर चर्चा करना विषयांतर होगा.
तो नीतीश कुमार फिर से शराबबंदी पर फोकस कर रहे हैं. इस बार उन्होंने ऐसा नियम बनाया है कि उसकी तुलना किसी भी अजीबो-गरीब शासकीय फरमान से नहीं की जा सकती है. यह एक अजूबा है.
रिपोर्टों के अनुसार, पिछले सप्ताह कैबिनेट ने निर्णय लिया है कि बिहार सरकार का कोई अधिकारी, जज और मजिस्ट्रेट बिहार के बाहर देश-दुनिया में कहीं भी शराब का सेवन नहीं कर सकता है. इसका उल्लंघन करने पर ऐसे व्यक्तियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की जायेगी.
यह सही है कि सरकार अपने कर्मचारियों के लिए अनुशासन-संबंधी नियम बना सकती है, पर इस नियम का कोई तुक दूर-दूर तक नजर नहीं आता है.
शराबबंदी पर माहौल बनाने को बेचैन नीतीश कुमार यह तो दावा करते हैं कि तीन करोड़ से अधिक लोगों ने इस फैसले के समर्थन में पिछले महीने मानव-श्रृंखला बनायी, पर वे यह बात बताना भूल जाते हैं कि बीते सालों में ऐसा क्या हुआ कि बड़ी संख्या में लोग, विशेष रूप से महिलाएं, शराब को लेकर इतना परेशान क्यों हो गये थे कि वे इस मुद्दे पर मतदान के लिए भी तैयार हो गये.
मसला यह है कि जद(यू)-भाजपा गठबंधन की सरकार के मुखिया के रूप में नीतीश कुमार ने बिहार के हर शहर और कस्बे में बड़ी संख्या में देशी मसालेदार शराब की दुकानों के लाइसेंस बांटे. ‘बिहार में बहार’ के नारे से पहले शराब की बहार थी. हर दो सौ मीटर पर आपको प्लास्टिक के थैले में शराब मिल सकती थी. लाइसेंस बांटते समय नियमों की धज्जियां उड़ायी गयीं.
स्कूल-कॉलेजों, रिहायशी इलाकों, अवैध रूप से सरकारी जमीनों पर कब्जा कर बनायी गयी इमारतों में ऐसी दुकानें खुलीं. उनकी गुणवत्ता और असर का कोई आकलन नहीं किया जाता था.
नतीजा यह हुआ कि शहरों और कस्बों में हर तरफ शराब की बदबू पसर गयी. स्वाभाविक रूप से इस गैरजिम्मेवारी के पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर बुरे परिणाम होने थे.
चूंकि ऐसे कारोबार के तार शासन-प्रशासन और माफिया तक जुड़े होते हैं, तो इसके संरक्षण की भी पूरी तैयारी थी. मुख्यधारा की राज्य मीडिया ने कभी भी इस मसले पर खुल कर नहीं बोला, जबकि उसकी खबरें स्थानीयता पर आधारित होती हैं.
मीडिया सुशासन और विकास की पिपिहिरी बजा रहा था. एक तो जद(यू)-भाजपा सरकार के जनाधार का जो सवर्ण वर्चस्व का सामाजिक चरित्र था, उसने माहौल बनाने में बड़ी भूमिका अदा की क्योंकि वह सामान्यतः मुखर और अक्सर वाचाल होता है.
दूसरे, अखबारों को भरपूर सरकारी विज्ञापन देकर उनका मुंह बंद भी रखा गया. एक समय ऐसा भी आया था, जब नीतीश कुमार को बिहार मीडिया का एडिटर-इन-चीफ कहा जाने लगा था. दिल्ली के कुछ भले, लोकप्रिय और विश्वसनीयता रखनेवाले हिंदी-अंग्रेजी पत्रकारों ने भी इसमें सहयोग दिया था.
अब उस दौर की गलती का कोई पछतावा है या फिर राजनीति के बड़े सवालों पर ठोस रूख अपनाने में हिचक है, जो नीतीश कुमार शराबबंदी के अलावा कुछ और कर नहीं पा रहे हैं.
नीतीश कुमार सधे हुए राजनेता माने जाते हैं. इसे अवसरवाद की संज्ञा भी दी जाती है. वे सांप्रदायिकता के विरोधी हैं, पर संघ परिवार और भाजपा के पुराने नेताओं से उन्हें शिकायत नहीं होती.
वे समाजवादी विचारधारा और पिछड़ों के हित की वकालत करते हैं, पर सवर्ण वर्चस्व के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत नहीं जुटा पाते.
लक्ष्मणपुर-बाथे जनसंहार की जांच के लिए राबड़ी सरकार ने अमीर दास आयोग का गठन किया था. वर्ष 2005 में मुख्यमंत्री बनते ही नीतीश ने इसे भंग कर दिया. विभिन्न जनसंहारों में आरोपियों का बरी होना पुलिस जांच पर बड़े सवाल उठाता है.
इन बातों को समझने के लिए राजनीति या समाज का बहुत बड़ा ज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. कुछ साल पहले सवर्ण मतदाताओं को रिझाने के लिए उन्होंने आरक्षण का दांव भी चला था.
वर्ष 2011 में उन्होंने सवर्णों की आर्थिक स्थिति का आकलन करने के लिए ‘सवर्ण आयोग’ के गठन का निर्णय लिया था. इस आयोग की सिफारिशों के आधार पर बाद में कुछ आर्थिक मदद देने की घोषणाएं भी हुई थीं, पर आज तक शायद ही किसी को इस आधिकारिक रूप से इस आयोग की रिपोर्ट का अता-पता है.
बिहार में जमीन का मसला बहुत गंभीर है. ग्रामीण क्षेत्रों में लंबे समय से हिंसा, गरीबी, वंचना और कम ऊपज का बड़ा कारण भूमि सुधार का ठीक से नहीं होना तथा कोई ठोस बटाईदारी कानून की कमी है. वर्ष 2008 में डी बंधोपाध्याय आयोग ने इस संबंध में अनेक सुझाव दिये थे. पर बिहार सरकार ने उसे किनारे कर दिया है.
सामाजिक-आर्थिक जनगणना के रिपोर्ट भी इंगित करती है कि बिहार में भूमिहीनों की दशा बेहद खराब है. नीतीश बाबू के एजेंडे में यह मुद्दा न तो 2010 में और न ही 2015 में आ सका था. गांधी और लोहिया का नाम जपनेवाले मुख्यमंत्री अब तो इसे पूरी तरह से बिसार चुके हैं. इतना ही नहीं, इस रिपोर्ट को आज तक सार्वजनिक करने की जहमत भी नहीं उठायी गयी है.
बहरहाल, राजनीतिक समीकरणों के बदलते ही नीतीश ने इस एजेंडे को भी पीछे छोड़ दिया.
लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति नीतीश कुमार की निष्ठा कितनी मजबूत है, इसका अंदाजा पंचायत चुनावों के लिए उनके द्वारा बनाये गये नियमों से लगाया जा सकता है.
वर्ष 2015 में हरियाणा और राजस्थान की भाजपा सरकारों ने फैसला किया था कि पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवार के घर में शौचालय और उसका शिक्षित होना जरूरी है. सुशासन बाबू भला क्यों पीछे रहते! उन्होंने भी ऐसा नियम बना डाला.
उन्होंने यह समझने की कोशिश नहीं की कि इससे कितने भूमिहीन और गरीब पंचायत में हिस्सेदारी के अपने संवैधानिक अधिकार से वंचित रह जायेंगे. बहरहाल, लालू प्रसाद के दबाव में इन नियमों को पिछले साल के पंचायत चुनावों में लागू नहीं किया गया.
शराबबंदी नीतीश कुमार के एक-डेढ़ दशकों की राजनीति की बड़ी उपलब्धि नहीं, बल्कि उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा के अवसान का सूचक है.
राष्ट्रीय राजनीति में अपनी संभावनाओं को धूल-धूसरित होते देख अब वे नैतिकता के पैरोकार के रूप में अपनी उपस्थिति को मजबूत करना चाहते हैं.
उन्हें यह भी पता है कि राज्य के अगले चुनाव में उन्हें अपने ही गठबंधन के घटक दल से चुनौती मिल सकती है. इन कारणों से यह भी संभव है कि उन्हें अब शासन चलाने में उतनी रूचि नहीं रही हो.
अपनी साख का इस्तेमाल कर वे अपनी पार्टी को बिहार से बाहर स्थापित करने में भी न सिर्फ विफल रहे हैं, बल्कि राष्ट्रीय नेतृत्व को अपने हिसाब से उन्होंने नियंत्रित भी रखा है. नोटबंदी के मुद्दे पर उनके रवैये को देख कर इसका अंदाजा लगाया जा सकता है.
बहरहाल, जिस तरह से बिहार के पड़ोसी राज्यों के शराब कारोबारियों की चांदी है, वैसे ही नये आदेश से अब अधिकारियों को परेशान होना पड़ेगा. बिहार पुलिस शराबबंदी को सफल बनाने में इस कदर मशगूल है कि अपराधी भी नीतीश के प्रशंसक हो गये हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )