पिछले साल अगस्त में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाने और संगठन में पूर्ण बदलाव की मांग करने वाले कांग्रेस के असंतुष्ट धड़े के कुछ नेता दिनोंदिन और मुखर होते जा रहे हैं.
पिछले साल अगस्त में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पूर्णकालिक अध्यक्ष बनाने और संगठन में ऊपर से लेकर नीचे तक बदलाव की मांग करने वाले पार्टी के असंतुष्ट धड़े, जिन्हें जी-23 कहा जाता है, के कुछ नेताओं ने बीते शनिवार को जम्मू कश्मीर में एक मंच पर इकट्ठा होकर पहली बार सार्वजनिक तौर पर पार्टी पर जोरदार हमला बोला और उसे कमजोर करार दिया.
इस पर जहां पार्टी ने उन्हें पांच चुनावी राज्यों में प्रचार की नसीहत दे डाली तो जी-23 के कुछ अन्य नेताओं ने जम्मू कश्मीर में इकट्ठा होने वाले सात नेताओं से दूरी बनानी शुरू कर दी.
दरअसल जम्मू कश्मीर में एक गैर-सरकारी संगठन गांधी ग्लोबल परिवार ने शांति सम्मेलन नाम का एक गैर-राजनीतिक कार्यक्रम आयोजित किया था.
इस कार्यक्रम में शामिल होने वाले जी-23 के प्रमुख नेताओं में से जम्मू कश्मीर से आने वाले गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, राज बब्बर और आनंद शर्मा थे.
इन नेताओं के एक मंच पर इकट्ठा होने पर राजनीतिक विश्लेषक राशिद किदवई कहते है, ‘कांग्रेस की अंदरूनी रस्साकसी अब चरमसीमा पर आ गई है और जो असंतुष्ट नेता हैं, उन्हें लग रहा है कि यही सही समय है, क्योंकि चुनावी राज्यों में कांग्रेस की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है.’
वह कहते हैं, ‘सी-वोटर के सर्वे में दिखाया गया कि केरल में कांग्रेस हार रही है, असम में भी नहीं जीत रहे हैं और तमिलनाडु में गठबंधन जीतती है तो जीत का श्रेय डीएमके को जाएगा तो इस स्थिति में कांग्रेस कमजोर है और राहुल गांधी को अपने आपको पूर्ण कांग्रेस अध्यक्ष स्थापित करने में अड़चन होगी. उसी दृष्टि से यह सारी कार्रवाई हो रही है और उन्हें किसी भी सूरत में राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोकना है.’
वह कहते हैं कि जी-23 अब बचा भी नहीं है, उसमें असंतुष्टों की संख्या घटकर 7-8 रह गई है.
बता दें कि जम्मू में हुई जी-23 नेताओं की बैठक से खुद को अलग करते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता एम. वीरप्पा मोइली ने सोमवार को पार्टी के अंदरूनी मतभेद सार्वजनिक होने पर चिंता जाहिर करते हुए राहुल गांधी के फिर से पार्टी प्रमुख बनने का समर्थन किया है.
पूर्व केंद्रीय मंत्री मोइली पार्टी के उन 23 नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने पिछले वर्ष अगस्त में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पूर्णकालिक नेतृत्व सुनिश्चित करने का आग्रह किया था.
उन्होंने कहा कि यह असंतुष्टों की बैठक नहीं है. हम (जी-23 के कुछ नेता) इसका हिस्सा नहीं हैं.
उन्होंने कहा, ‘यह सोनिया गांधी, राहुल गांधी के नेतृत्व के खिलाफ नहीं था. हम सब नेतृत्व के साथ हैं. हम कांग्रेस के साथ हैं. हम उनके अध्यक्ष बनने के खिलाफ नहीं हैं.’
पूर्व केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा कि राहुल गांधी चुनाव प्रक्रिया के जरिये पार्टी के प्रमुख के तौर पर वापसी कर सकते हैं. कुछ कांग्रेसी नेताओं द्वारा कांग्रेस को कमजोर बताने पर मोइली ने कहा कि जब कांग्रेस जीतना शुरू करेगी तो भाजपा कमजोर लगेगी. ऐसा हमेशा होता है.
जम्मू के मंच पर इकट्ठा न होने वाले जी-23 के कुछ अन्य नेताओं से जब द वायर ने संपर्क किया कि क्या वे अभी भी जी-23 का हिस्सा हैं और जम्मू में दिए गए भाषण से सहमत हैं तो विवेक तन्खा, अरविंदर सिंह लवली, जितिन प्रसाद और संदीप दीक्षित ने कोई जवाब नहीं दिया.
जी-23 के कुछ नेताओं द्वारा पार्टी को कमजोर बताने पर वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी सवाल उठाती हैं.
वह कहती हैं, ‘उन्होंने जितने भी मुद्दे उठाए थे, वे सभी वाजिब थे, जिनकी सुनवाई नहीं हो रही थी. लेकिन अब चुनाव (कांग्रेस में आंतरिक चुनाव) की घोषणा हो जाने के बाद यह ऐलान करना कि कांग्रेस कमजोर है और उसे अंडरलाइन करना सही नहीं है. यह समझ में नहीं आ रहा है कि उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह बारगेनिंग की चेष्टा हो सकती है या फ्रस्टेशन हो कि इतना समय बीत गया है लेकिन कुछ हो नहीं रहा है.’
चौधरी की बातों से सहमति जताते हुए किदवई कहते हैं, ‘किसी भी राजनीतिक दल में जब निजाम बदलता है या कोई नया अध्यक्ष आता है तब ये सब चीजें होती हैं. ये सब पुराने निजाम के लोग हैं, सोनिया गांधी का निजाम था, उससे पहले केसरी जी का था और उससे पहले पीवी नरसिंहा राव का था. अब निजाम का बदलाव हो रहा है और ये उसका विरोध कर रहे हैं और उसको सार्वजनिक कर पार्टी को कमजोर कर रहे हैं.’
वहीं, वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश भी सार्वजनिक मंच से पार्टी को कमजोर बताने की असंतुष्ट नेताओं की रणनीति से सहमत नहीं नजर आते हैं.
वह कहते हैं, ‘अगर उनकी (असंतुष्ट नेताओं) कोई वास्तविक चिंता या सरोकार होता कि पार्टी बुरे दौर में है तो वे एक आइडिया या रणनीति लेकर आते लेकिन वो कह रहे हैं कि इनका इस्तेमाल नहीं हो रहा है, इनको पार्टी का अध्यक्ष बना देना चाहिए, इनको कार्यकारिणी में रखना चाहिए. मुझे नहीं लगता बहुत वास्तविक तरीके से विरोध हो रहा है.’
वह कहते हैं, ‘संकट यह है कि पुराने दौर के नेता राहुल गांधी को उतना कारगर मानते नहीं हैं. राहुल अगर दूसरी तरह के नेता होते तो शायद वे स्वीकार कर लेते, लेकिन उनको लगता है कि मोदी के मुकाबले राहुल सही नहीं है क्योंकि वे सज्जन आदमी हैं और शराफत की बातें करते हैं, जबकि भारत अभी उस तरह का मुल्क है नहीं जो इस तरह की बातें सुनें. यह बात तो सही है कि वे बुद्धिजीवी की तरह राजनीतिक टिप्पणियां करते हैं, लेकिन उनके पास आश्वस्त करने वाली कोई राजनीतिक पहल नहीं है.’
उर्मिलेश आगे कहते हैं, ‘हालांकि, जो लोग विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उनको तरजीह नहीं दी जा रही है, उनका सही उपयोग नहीं हो रहा है तो ये वही लोग हैं जो 30 साल से कांग्रेस का उपयोग कर रहे हैं. ये ऐसे लोग हैं जो हमेशा मंत्री रहे, हमेशा संसद में रहे, हमेशा महासचिव या सचिव रहे, राज्यों के प्रभारी रहे और कोई ऐसी कैबिनेट नहीं रही, जिसमें वे मंत्री नहीं रहे. हालांकि, उनका खुद का कोई जनाधार नहीं है.’
क्या सार्वजनिक मंच पर आना दबाव बनाने की रणनीति है?
जी-23 नेताओं द्वारा पिछले साल अगस्त में पत्र लिखे जाने के बाद इस साल जनवरी में पार्टी ने जून में नए अध्यक्ष के लिए चुनाव कराने की घोषणा तो की थी लेकिन उसके साथ ही पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा था कि 99 फीसदी पार्टी सदस्य राहुल गांधी को अध्यक्ष बनते देखना चाहते हैं और हाल ही में दिल्ली कांग्रेस ने भी ऐसा ही एक प्रस्ताव पास किया था.
ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या असंतुष्ट नेताओं को यह आशंका है कि लोकतांत्रिक और पारदर्शी तरीके से चुनाव की उनकी मांगों के विपरित पार्टी दिखावटी चुनाव कराकर राहुल गांधी को अध्यक्ष बना देगी और यह चुनाव से पहले उनकी दबाव बनाने की रणनीति है.
किदवई कहते हैं, ‘भारतीय राजनीतिक संस्कृति में आंतरिक लोकतांत्रिक एक छलावा है. कोई भी राजनीतिक दल चाहे वामपंथी हों, चाहे भाजपा, चाहे कांग्रेस हो या क्षेत्रीय दल, कहीं भी आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. हालांकि, चुनाव आयोग का आग्रह होता है इसलिए यह पूरी प्रक्रिया होती है. गुलाम नबी आजाद से लेकर जी-23 के सभी नेताओं को यह बात बहुत अच्छी तरह से मालूम है.’
वह कहते हैं, ‘राहुल गांधी ने भी ये चुनाव इसलिए टाले थे क्योंकि इन राज्यों में चुनाव होना था. अगर वो चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेते तो यह होता कि वो अध्यक्ष बने और फिर पार्टी हार गई और केरल भी चला गया. इसलिए उन्होंने इससे बचने के लिए किया, जबकि विरोधियों को समझ आ गया है कि यह शह और मात का खेल है. इसी हिसाब से वो यह दबाव बना रहे हैं कि ऐसी स्थिति न हो कि कहा जाए कि वे राहुल गांधी को कमजोर कर रहे हैं.’
किदवई की बातों से सहमति जताते हुए उर्मिलेश कहते हैं, ‘भारत के राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होता है. कांग्रेस पार्टी में धांधलेबाजी होती रही है और पहले भी हमने कांग्रेस में कई चुनाव देखे हैं. वहां जो नेता जैसा पद चाहता है वह पा सकता है. इनका डर यह नहीं है, बल्कि यह है कि ये चुने ही नहीं जाएंगे. कितने प्रदेशों के डेलिगेट इन्हें चुनेंगे?’
वह कहते हैं, ‘पूरे समूह में भूपिंदर सिंह हुड्डा के अलावा सामाजिक आधार वाला एक भी नेता नहीं है. हिमाचल के एक नेता हैं, लेकिन उन्हें वहां से कोई समर्थन नहीं मिलेगा. पंजाब के एक नेता अमरिंदर सिंह के बिना तहसील का चुनाव नहीं जीत सकते तो एक छोटे से प्रदेश हरियाणा से पूरे देश से आने वाले डेलिगेट पर कोई असर नहीं पड़ेगा.’
जम्मू में मंच से असंतुष्ट नेताओं की टिप्पणी के बाद वरिष्ठ नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा था, ‘जो-जो लोग रैली को संबोधित करने जम्मू गए हैं, जिन्होंने भाषण दिए हैं, वे बहुत ही सम्मानित और आदरणीय व्यक्ति हैं.’
हालांकि, उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी यह समझती है कि जब पांच राज्यों में (विधानसभा) चुनाव हो रहे हैं, जिसमें कांग्रेस संघर्ष कर रही है तो ज्यादा उपयुक्त होता कि आजाद सहित सभी नेता इन प्रांतों में प्रचार करते, कांग्रेस का हाथ मजबूत करते तथा पार्टी को आगे बढ़ाते.’
इस पर किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस को मजबूत करने की बात करने वाले नेताओं को बताना चाहिए कि जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उसमें उनका क्या योगदान है. उसमें से सिर्फ शशि थरूर लगे हुए हैं, क्योंकि केरल में चुनाव हो रहा है. बाकी का कोई योगदान नहीं है. आज भूपेश बघेल असम में जाकर काम कर रहे हैं उसी तरह से ये भी जाकर काम कर सकते थे.’
हालांकि, चौधरी पार्टी पर सवाल उठाते हुए पूछती हैं कि क्या पार्टी ने इन नेताओं को प्रचार करने के लिए आमंत्रित किया है?
वह कहती हैं, ‘सिंघवी ने कहा कि उन्हें चुनावी राज्यों में प्रचार के लिए जाना चाहिए लेकिन मेरा सवाल है कि क्या उन्हें प्रचार के लिए बुलाया गया है? मुझे मालूम है कि बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जब कुछ युवा नेता प्रचार करने गए थे तब उन्होंने पार्टी से कहा था कि हमें इस्तेमाल करो लेकिन तब उन्हें कह दिया गया था कि बस आप पटना में एक रैली कर दो बाकी राहुल गांधी करेंगे. मुझे यह जानने में बहुत दिलचस्पी होगी कि क्या पार्टी ने उन्हें बुलाया है.’
वह कहती हैं, ‘पूरे कैंपेन में कोई नेता नहीं दिख रहा, केवल स्थानीय नेता दिखाई दे रहे हैं. न तो दिग्विजय कहीं जा रहे हैं, न तो कमलनाथ और न ही हुड्डा को बुलाया है. हां, बघेल को असम का प्रभारी बनाया गया है और वह दिखाई भी दे रहे हैं. लेकिन आपके पास नेता हैं, उन्हें इस्तेमाल तो करो. मोदी के साथ मतभेदों के बावजूद भाजपा सुषमा को इस्तेमाल करती थी.’
क्या पवार, ममता और जगन की राह पर जाएगी जी-23
जी-23 नेताओं की खुली बगावत के बात अब यह सवाल भी उठने लगे हैं कि क्या वे सचमुच में पार्टी में बदलाव चाहते हैं या पार्टी से अलग होने पर भी विचार करने लगे हैं.
किदवई कहते हैं, ‘एक बात तो साफ है कि इस तरह का सार्वजनिक विरोध करके सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की मौजूदगी में पनप पाना संभव नहीं है. ये जो जी-23 है, उसको खुद को तोड़कर बाहर जाना होगा. उसमें एक रास्ता भाजपा में जाने का जिस तरह से सिंधिया को लिया गया. हालांकि, वहां सभी का जा पाना संभव नहीं है.’
उन्होंने कहा, ‘दूसरा रास्ता शरद पवार, ममता बनर्जी और जगनमोहन रेड्डी जैसी पार्टियां- जो कि कांग्रेस के ही धड़े हैं, राष्ट्रीय स्तर पर साथ में आने पर उनके साथ जाने का हो सकता है, जैसे कि जगजीवन राम वगैरह ने कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाया था, जबकि उस समय इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. इसी तरह विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पहले जनमोर्चा बनाया और बाद में जनता दल बनाया. ये सब सधी हुई कला है और किसी को इस पर शक नहीं होना चाहिए.’
किदवई आगे कहते हैं, ‘अभी तो वेट एंड वॉच की रणनीति चल रही है और पांच राज्यों में चुनाव भी हो रहे हैं. अगर केरल, असम और तमिलनाडु में कांग्रेस के पक्ष में परिणाम होते हैं तब ऐसी परिस्थिति बनाई जा सकती है जिसमें इन्हें पार्टी छोड़नी पड़े, जबकि परिणाम विपरीत जाने पर वे अपनी सुविधानुसार क्षेत्रीय या राष्ट्रीय पार्टियों के साथ जा सकते हैं.’
हालांकि, चौधरी कहती हैं, ‘अगर असंतुष्ट नेताओं का यह समूह कोई धड़ा बनाता है और अलग हो जाता है तो मुझे नहीं लगता है कि उनकी कोई वैल्यू रहेगी. ऐसा नहीं हो सकता है कि अचानक कोई निकलकर आए और देश उसके पीछे हो जाए.’
गुलाम नबी आजाद की भूमिका क्या होगी?
बीते 27 फरवरी को सिब्बल ने कहा था कि उनकी पार्टी ‘कमजोर हो रही है’, लेकिन वह अनुभवी नेता गुलाम नबी आजाद के व्यापक राजनीतिक अनुभव का उपयोग नहीं कर रही है.
हालांकि, बीते 15 फरवरी को राज्यसभा से विदाई के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आजाद एक-दूसरे को लेकर भावुक हो गए थे और इस दौरान उन्होंने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 को हटाए जाने और भारत में मुसलमानों की स्थिति जैसे विवादित विषयों से परहेज किया था.
वहीं, जम्मू के मंच से भी आजाद ने प्रधानमंत्री की तारीफ करते हुए कहा था कि लोगों को उनसे सीखना चाहिए कि कामयाबी की बुलंदियों पर जाकर भी कैसे अपनी जड़ों को याद रखना चाहिए.
इस पर किदवई कहते हैं, ‘जहां तक गुलाम नबी आजाद (द्वारा प्रधानमंत्री की तारीफ) की बात है तो किसी पार्टी में जब विषम परिस्थितियां आती हैं तो उसी समय वफादारी की पहचान होती है और वफादारी बहुत ही परिस्थितिजन्य होती है.’
वह कहते हैं, ‘28 साल राज्यसभा में रहना बड़ी बात है. 24 अकबर रोड का ऐसा कोई कमरा नहीं है जहां आजाद ने बैठकर काम न किया हो. जब किसी राजनीतिक दल में उथल-पुथल होती है तो ये सारे इल्जाम लगाए जाते हैं. कौन सही और कौन गलत है, यह समझना मुश्किल है. यह विशुद्ध राजनीतिक कदम है.’
वहीं, उर्मिलेश कहते हैं, ‘राज्यसभा में आजाद और प्रधानमंत्री मोदी के बीच जो कुछ भी हुआ और जिस तरह से दोनों एक-दूसरे को लेकर भावुक हुए उससे मालूम चलता है कि प्रधानमंत्री कांग्रेस के अंदर की स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं, कश्मीर या अन्य हिस्से के लिए.’
वह कहते हैं, ‘यह तो कोई भविष्यवक्ता ही बता सकता है कि गुलाम नबी आजाद भाजपा में जाएंगे या नहीं जाएंगे लेकिन एक पत्रकार के तौर पर ऐसा लगता है कि उनकी कांग्रेस से जो नाराजगी और प्रधानमंत्री से भावनात्मक निकटता दिखाई दे रही है. ऐसा भरोसा भी दिखाई दे रहा है कि प्रधानमंत्री जम्मू कश्मीर के मामलों को बेहतर तरीके से हैंडल कर रहे हैं या कर सकते हैं. हालांकि यह सोच कांग्रेस पार्टी की अब तक की सोच से उलट है और ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस में यह सोच कहां से आई है. कश्मीर को लेकर कुछ तो पक रहा है.’
हालांकि, चौधरी कहती हैं, ‘गुलाम नबी आजाद जम्मू कश्मीर में राजनीति की सोच सकते हैं, क्योंकि उनकी हिंदुओं में भी पैठ थी. जम्मू में एक जमाने में कांग्रेस थी. हालांकि, मौजूदा परिस्थितियों में आजाद अपनी ही सीट निकाल सकें यही बड़ी बात होगी. हां, प्रधानमंत्री उनका गैर-संसदीय तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं. कांग्रेस भी उनका इस्तेमाल कर सकती है.