क्या ‘ग्रीन’ शब्द जुड़ जाने मात्र से कोई परियोजना प्रकृति अनुकूल हो जाती है

नदी, पहाड़, जैव-विविधता की अनदेखी कर बनी बड़ी हाइड्रो पावर परियोजनाओं से पैदा ऊर्जा को 'ग्रीन एनर्जी' कैसे कह सकते हैं? एक आकलन के अनुसार कई परियोजनाएं तो उनकी क्षमता की 25 प्रतिशत बिजली भी पैदा नहीं कर पा रही हैं. तो अगर ये परियोजनाएं व्यावहारिक नहीं हैं, तो सरकार ज़िद पर क्यों अड़ी है?

Chamoli: Damaged Dhauliganga hydropower project after a glacier broke off in Joshimath causing a massive flood in the Dhauli Ganga river, in Chamoli district of Uttarakhand, Sunday, Feb. 7, 2021. (PTI Photo)(PTI02 07 2021 000219B)

नदी, पहाड़, जैव-विविधता की अनदेखी कर बनी बड़ी हाइड्रो पावर परियोजनाओं से पैदा ऊर्जा को ‘ग्रीन एनर्जी’ कैसे कह सकते हैं? एक आकलन के अनुसार कई परियोजनाएं तो उनकी क्षमता की 25 प्रतिशत बिजली भी पैदा नहीं कर पा रही हैं. तो  अगर ये परियोजनाएं व्यावहारिक नहीं हैं, तो सरकार ज़िद पर क्यों अड़ी है?

Chamoli: Damaged Dhauliganga hydropower project after a glacier broke off in Joshimath causing a massive flood in the Dhauli Ganga river, in Chamoli district of Uttarakhand, Sunday, Feb. 7, 2021. (PTI Photo)(PTI02 07 2021 000219B)
उत्तराखंड के चमोली में आई प्राकृतिक आपदा के बाद तबाह हुई धौलीगंगा हाईड्रोपावर परियोजना. (फोटो: पीटीआई)

झूठ के पैर नहीं होते. वह टिकता नहीं. अतः झूठ को सच बताने के लिए हम बहाने बनाते हैं. अक्सर हमारे बहाने कम पड़ जाते हैं और झूठ, झूठ ही रहता है. चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना और गंगा एक्सप्रेस-वे को लेकर लगातार यही हो रहा है.

जब पहली बार गंगा एक्सप्रेस-वे बनाने का विचार पेश किया गया, तो प्रस्तावित मार्ग नोएडा से बलिया था. कहा गया कि यह एक तटबंध परियोजना है. इससे गंगा की बाढ़ रुकेगी.

इसके चलते इसका जिम्मा लोक निर्माण विभाग को दिया गया. विरोध हुआ. अदालत ने रोक लगा दी. तटबंध बनने के बाद से बाढ़ के बढ़ते दुष्प्रभाव से बेहाल कोसी के किनारों से सीखने को कहा गया. बाढ़ के दुष्प्रभाव रोकने के सस्ते और बेहतर विकल्प सुझाए गए.

तब बताया गया कि नहीं गंगा एक्सप्रेस-वे तो एक सड़क परियोजना है. इसके लिए गंगा-यमुना एक्सप्रेस-वे प्राधिकरण का गठन किया गया.

कुछ समय पश्चात् इसका जिम्मा उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम को दे दिया गया. गंगा एक्सप्रेस-वे का मार्ग बदलकर बलिया से मेरठ कर दिया गया.

अधिकारिक तौर पर स्पष्ट हो गया कि यह तो उद्योगों को सुविधा देने वाली एक और परियोजना है. उद्योगों को बेलगाम जल-निकासी के लिए नदी व किनारे का भूगर्भ हासिल हो जाएगा.

‘पाॅल्युशन अंडर कंट्रोल’ का सरकारी प्रमाणपत्र हाथ में हो तो नदी की क्या हिमाकत कि वह उसमें कचरा बहाने से इनकार कर दे. वह बीमार होती है, तो हो.

उधर, चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना को नियोजित करते वक्त तीर्थों को आगे रखा गया. धर्म को आईना बनाया गया. उत्तराखंड के चारों तीर्थों को जोड़ने वाली सड़क-माला के रूप में प्रस्तुत किया गया. इसके फलस्वरूप पर्यटन बढ़ने का लालच तो दिखाया ही गया.

इस बीच उत्तर प्रदेश राज्य सरकार ने गंगा एक्सप्रेस-वे का मार्ग बढ़ाकर बलिया से हरिद्वार तक कर दिया है. संकेत दिया गया कि ये दोनो परियोजनाएं, गंगोत्री से गंगासागर तक तीर्थयात्रा सुगम करने की परियोजनाएं हैं.

हाल के अपने चुनावी भाषण के दौरान गृहमंत्री अमित शाह द्वारा गंगासागर पर राष्ट्रीय पर्व का जाहिर इरादा सामने है ही.

नई ओट: सामरिक सुरक्षा

अब जब चारधाम ऑल वेदर रोड परियोजना पर फिर से सवाल उठा है और इससे संबंधित उच्चाधिकार प्राप्त समिति के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने चमोली विध्वंस में इसकी भूमिका संबंधी पत्र लिखा है, तो उत्तराखंड से पश्चिम बंगाल यात्रा मार्ग की एक्सप्रेस-वे परियोजनाओं का एक नया मकसद प्रचारित किया जा रहा है: भारत की उत्तरी सीमा की सुरक्षा.

कहा जा रहा है कि ये एक्सप्रेस-वे सुरक्षा बलों के निर्बाध आवागमन का मार्ग बनेंगे.

याद कीजिए कि नोएडा से बुंदेलखंड के एक्सप्रेस-वे संजाल (नेटवर्क) को भी डिफेंस काॅरीडोर का मुखौटा पहनाया गया है. यह मुखौटा काम आ रहा है. डिफेंस काॅरीडोर का कोई विरोध नहीं हो रहा. संभवतः सरकार इस अनुभव से उत्साहित है.

कच्चे पहाड़ों में असामान्य रूप से ऊंची और चौड़ी सड़कों के बेतहाशा फैलते संजाल का विरोध करने वाले लोग पर्यावरणीय सुरक्षा का तर्क दे रहेे हैं. उनका मुंह बंद करने के लिए सरकार, अब सामरिक सुरक्षा का आईना दिखा रही है. वैसे उत्तराखंड से पश्चिम बंगाल तक विस्तारित एक्सप्रेस-वे की इस श्रृंखला को ‘ग्रीन काॅरीडोर’ का नाम दिया गया है.

स्पष्ट है कि गंगा घाटी के अनेकों एक्सप्रेस-वे के सच को छिपाने के लिए हर दिन एक नई ओट गढ़ी जा रही है. सरकारें जानती हैं कि नदी किनारे के एक्सप्रेस-वे नदी को क्षति पहुंचाएंगे और उस पर आश्रित जीव और आजीविका को भी.

असंभव नहीं कि राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ में विरोधियों को भी राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिया जाए, राष्ट्रदोह का मुकदमा थोप दिया जाए.

प्रोजेक्ट कई, मुखौटे कई

ब्रह्मपुत्र नदी के 890 किलोमीटर लंबे किनारे के एक्सप्रेस-हाइवे का प्रस्ताव नया है. ब्रह्मपुत्र एक्सप्रेस-हाइवे परियोजना के जरिये कोलोंग नदी पुनर्जीवित होगी. यह दावा असम सरकार के जल संसाधन मंत्रालय की वेबसाइट पर दर्ज है.

इसके निर्माण में ब्रह्मपुत्र से निकली गाद इस्तेमाल होगी. गाद-निकासी हर भू-संरचना में नदी के अनुकूल नहीं होती. कटे-फटे भू-तल वाली नदी में की गई सीमा से अधिक गाद-निकासी नदी को सुखाने का कारण बनती है. चीन ब्रह्मपुत्र के उद्गम पहले ही छेड़छाड़ कर रहा है. पूर्वोत्तर भारत का क्या होगा?

गाद बढ़ाओ, गाद निकालो: कितना वाजिब ?

आइए दूसरा पहलू परखें. हम एक ओर तो नदियों में गाद बढ़ाने वाले कारणों को बढ़ाते रहें. एक्सप्रेस-वे व अन्य निर्माण परियोजनाओं के लिए पेड़ काटते रहें. छोटी वनस्पतियों को नष्ट करते रहें. पहाड़ों में सुरंगें बनाते रहें. उन्हे झाड़ते रहें. धरती खोदते रहें. नदी में मलबा डालते रहें. रेत खनन की सीमा रेखा का उल्लंघन, नदी भूमि पर कब्जा और बाढ़-निकासी मार्ग में निर्माण… ऐसे ही कुकृत्य हैं.

गौर कीजिए कि गाद को बहाकर ले जाने के लिए प्रत्येक नदी प्रवाह को एक खास गति चाहिए होती है. बांध, बैराज, तटबंध तथा प्रवाह में कमी- ये सबगति में बाधा पैदा करते हैं.

ऐसे सभी कुकृत्य नदियों में उनकी वाहक क्षमता से अधिक गाद जमा होने कारण बन रहे हैं. एक तरफ हम ये सब करते रहें और दूसरी तरफ गाद निकासी में करोड़ों खर्च करें! पश्चिम बंगाल, झारखंड और बिहार में अभी यही हो रहा है. यह कितना वाजिब है ?

नदी जोड़

नदी जोड़ की प्रस्तावित परियोजनाओं को लेकर भी तत्कालीन सरकारों ने ऐसी ही ओटें गढ़ी थीं. प्रथम संदेश दिया गया कि ऐसी परियोजनाओं का मकसद बाढ़ वाली नदियों के पानी को सुखाड़ वाले क्षेत्रों की नदियों को पहुंचाना है.

इससे हर खेत को सिंचाई और सभी को पेयजल सुनिश्चित होगा. रोजगार, स्वास्थ्य जैसे कई मकसदों को गिनाया गया. कालांतर में स्पष्ट हुआ कि असली मकसद तो जल-परिवहन का राष्ट्रव्यापी ग्रिड बनाना है. अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण, अब इसी मकसद की पूर्ति कर रहा है.

घर-घर शौचालय, उज्जवला, प्रधानमंत्री स्वामित्व पहल से लेकर नल-जल योजना तक कई ऐसी गतिविधियां हैं, जिनके प्रचारित उद्देश्यों पर सवाल संभव है. क्या हम सवाल करें अथवा डरकर सवाल पूछने बंद दें?

जो प्रकृति अनुकूल है, वह राष्ट्र विरोधी नहीं हो सकता. ऐसा मानने वालों को क्या हाथ उठाकर यह नहीं कहना चाहिए कि सिर्फ ‘ग्रीन’ शब्द के जुड़ जाने मात्र कोई परियोजना, प्रकृति अनुकूल नहीं हो जाती.

प्रश्न कीजिए कि नदी, पहाड़, वायुमंडल और जैव-विविधता की अनदेखी करने वाली बड़े आकार वाली हाइड्रो पावर परियोजनाओं से पैदा ऊर्जा को आखिरकार कोई ‘ग्रीन एनर्जी’ कैसे कह सकता है ?

एसएएनडीआरपी का आकलन है कि कई परियोजनाएं तो अपनी दर्शाई क्षमता का 25 प्रतिशत तक भी बिजली पैदा नहीं कर पा रही हैं.

प्रश्न है कि यदि अपने कुप्रंबधन और आकार के कारण बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएं व्यावहारिक नहीं हैं, तो क्या है ज़रूरी सरकार जिद पर अड़ी रहें ?

उत्तराखंड: कितने लाभप्रद जल विद्युत के दावे

चीन के अनुभव प्रमाण हैं कि एक-दो मेगावाट क्षमता की छोटी-छोटी जल-विद्युत परियोजनाएं बेहतर विकल्प हैं. चीन अपनी जरूरत का एक बड़ा हिस्सा ऐसी छोटी परियोजनाओं से ही पैदा कर रहा है.

मुझे याद है कि वर्षों पहले यूएनडीपी की मदद से केदार घाटी में इसका पायलट प्रोजेक्ट किया गया था. इसे किसी झरने पर लगाया जा सकता है. पवनचक्की, झरनों पर ही चलती थी. नदी को बिना बांधे, बिना सुरंग में डाले यह संभव है.

लोग बिजली भी खुद ही पैदा कर सकते हैं. न बिल का झंझट, न सरकार पर निर्भरता और न नदी का नुकसान. स्व-रोज़गार का रास्ता खुलेगा, सो अलग.

उत्तराखंड सरकार को चाहिए कि मानक तय करे. तय मानकों पर छोटी क्षमता वाली जल-विद्युत परियोजनाओं की मंजूरी दे. प्रक्रिया को आसान बनाए. आर्थिक मदद करे. किंतु नहीं, संभवतः उसकी प्राथमिकता अभी भी बिजली नहीं, बिजली कंपनियों का मुनाफा और खुद का राजस्व ही है.

मुख्यमंत्री स्वयं और सरकार पोषित विशेषज्ञ अभी भी बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं की पैरोकारी कर रहे हैं. क्यों ?

हां, सौर-ऊर्जा पर हमारी सरकारें कुछ कदम जरूर चली हैं. एक और विकल्प पर गौर कीजिए.

अंडमान-निकोबार की धरती ज्वालामुखियों से भरी हुई हैं. इन ज्वालामुखियों से कम नुकसानदेह भू-तापीय ऊर्जा मुमकिन है. जापान ने कर दिखाया है. भारत ने अपनी पहली भू-तापीय परियोजना की लद्दाख से शुरुआत की है.

आजकल हरी-भरी घाटी में बनी बहुमंजिली परियोजनाओं को ‘ग्रीन वैली ड्रीम प्रोजेक्ट’ नाम देकर सपना दिखाने का चलन है. सोचिए कि क्या यह नदी-हितों को चोट पहुंचाने वाली परियोजनाओं को ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट’ का नाम देने जैसा झूठ नहीं है ?

गोमती और साबरमती रिवर डेवल्पमेंट प्रोजेक्ट का आकलन करें. नदी से पूछें. सच जाने और सच बतायें, वरना प्रकृति तो सच बताती ही रहती है. वह बताएगी ही. क्या हम एक और आपदा का इंतजार करें?

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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