जब सांप्रदायिक एजेंडा ‘सुशासन’ का मुखौटा पहनता है, तब गोरखपुर त्रासदी नियति बन जाती है

एक जीवंत लोकतंत्र में 60 से ज़्यादा बच्चों की मौत किसी राजनेता का करिअर ख़त्म कर सकता था, लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता.

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एक जीवंत लोकतंत्र में 60 से ज़्यादा बच्चों की मौत किसी राजनेता का करिअर ख़त्म कर सकता था, लेकिन भारत में ऐसा नहीं होता.

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फोटो: रॉयटर्स

उत्तर प्रदेश विधानसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बस एक माध्यम, एक मुखौटा भर थे, जिसने आख़िरकार गोरखनाथ मंदिर के ‘महंत’ आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश जैसे सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य की कमान थमाई.

पांच बार गोरखपुर से सांसद और अब तक सांसद पद पर आसीन आदित्यनाथ तकरीबन 5 महीनों से एक अव्यवस्थित सरकार चला रहे हैं. पिछले दिनों गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इंसेफलाइटिस और अन्य बीमारियों से 5 दिनों में हुई 60 से ज़्यादा बच्चों की मौतें उनके ख़राब प्रशासन का नमूना भर हैं.

गौरतलब है कि विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए किसी नाम की घोषणा नहीं की थी और चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ा गया. पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने प्रदेश की 19% आबादी यानी मुस्लिमों के प्रति अपनी बेरुखी एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट न देकर ज़ाहिर कर दी थी. अपने चुनाव अभियान में भाजपा द्वारा खुलेआम हिंदू वोटों को एक साथ लाने के लिए कुछ सांकेतिक मुद्दों के सहारे मुस्लिमों के ख़िलाफ़ किया गया.

आदित्यनाथ के पास अपना मठ और उनका कट्टर संगठन ‘हिंदू युवा वाहिनी’ चलाने के अलावा कोई प्रशासनिक अनुभव नहीं है. आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के अपने सपने के लिए दो बार मोदी का उनके मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री बनने का प्रस्ताव ठुकराया. और आख़िरकार मोदी-शाह की जोड़ी उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने में कामयाब रही.

उत्तर प्रदेश न केवल देश के सबसे बड़े बल्कि देश के सबसे पिछड़े राज्यों में से एक है. राज्य का मानव विकास सूचकांक बेहद नीचे है, बेहाल व्यवस्था, न्यूनतम बिजली व्यवस्था (कई गांवों में कई-कई दिनों तक बिजली नहीं रहती), खस्ताहाल सड़कें, अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं और ख़राब जलापूर्ति (जहां व्यवस्था से ज़्यादा ख़राब पानी की क्वालिटी होती है) प्रदेश का एक दूसरा चेहरा सामने रखती हैं.

बिजली, सड़क और पानी की कमी से जूझते इस राज्य में दिन-ब-दिन गिरती क़ानून और व्यवस्था की स्थिति और अपराधों के बढ़ते आंकड़े दिखाते हैं कि उत्तर प्रदेश में प्रशासन व्यवस्था बनाए रखना कितना चुनौतीपूर्ण है.

लेकिन जिस दिन से आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद संभाला है, उनकी प्राथमिकताएं अजीब रही हैं. शुरुआत ‘एंटी रोमियो स्क्वाड’ से हुई जो ज़ाहिर तौर पर तो यौन शोषण से निपटने के लिए गठित किया गया (पर दरअसल ये उनके पसंदीदा ‘लव जिहाद’ अभियान को मिली सांकेतिक सहमति थी), गोमाता की रक्षा के लिए बूचड़खानों को बंद करने का आदेश दिया गया, जिसकी बाद में कोर्ट द्वारा भी आलोचना की गई और हज ‘सब्सिडी’ के प्रतिक्रियास्वरूप कैलाश मानसरोवर यात्रा के लिए फंड बढ़ाया गया.

और फिर जैसी उम्मीद थी, आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी आपे से बाहर होने लगी. आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने से पहले ही यूपी में रहना होगा तो योगी-योगी कहना होगा  के नारे सुने जा सकते थे. हिंदू युवा वाहिनी ने सहमति से साथ बैठे जोड़ों को ‘रोमियो स्क्वाड’ के नाम पर परेशान करना शुरू कर दिया और तरह-तरह के डराने-धमकाने वाले तरीके दिखाई देने लगे.

आख़िरकार शर्मिंदा आरएसएस को आदित्यनाथ से उन्हें काबू में करने के लिए कहना पड़ा. प्रत्यक्ष रूप से हिंदुओं के अधिकारों के लिए लड़ने वाली अपनी इस वाहिनी में आदित्यनाथ अब उतने सक्रिय नहीं हैं.

आदित्यनाथ ने ये वाहिनी भाजपा के ज़मीनी कैडर के समानांतर बनाई थी. ज्ञात हो कि 2015 में युवा वाहिनी ने गाय को ‘राष्ट्र माता’ का दर्जा दिलवाने के लिए अभियान भी शुरू किया था.

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फाइल फोटो: पीटीआई

गोरखपुर त्रासदी से ठीक पहले आदित्यनाथ सरकार ने उत्तर प्रदेश के सभी मदरसों को स्वतंत्रता दिवस पर होने आयोजन की वीडियो रिकॉर्डिंग करने के आदेश दिए, जो अनैतिक रूप से उनकी ‘देशभक्ति’ परखने का एक तरीका था.

इन सब का यही अर्थ है कि मुख्यमंत्री बनने के बावजूद आदित्यनाथ की प्राथमिकताएं वही रहीं, जो पहले थीं. उन पर कई मौकों पर भड़काऊ भाषण देने के आरोप हैं. इस साल मई में आदित्यनाथ सरकार ने 2007 के गोरखपुर दंगा मामले में उन पर मुकदमा चलाने से इनकार कर दिया था.

उनके ख़िलाफ़ दंगा भड़काने, हत्या की कोशिश, ख़तरनाक हथियार रखने, कब्रिस्तान में अनधिकृत रूप से घुसपैठ करने और डराने-धमकाने सहित कई आपराधिक मामले दर्ज हैं.

2007 में उन्हें गोरखपुर में दंगाइयों को भड़काने के लिए गिरफ्तार भी किया गया था. भाजपा के चुनावी अभियान में उन्हें भाजपा ने हेलीकॉप्टर मुहैया करवाया था, जिसकी मदद से उन्होंने रिकॉर्ड तोड़ सभाएं कीं. उनके भाषणों में ‘कैराना से हिंदुओं के पलायन’ और ‘लव जिहाद’ को महत्वपूर्ण मुद्दा बताया गया.

तो जब आदित्यनाथ का एजेंडा आज भी वही है, जो पहले था तो भाजपा (जो इस एजेंडे को स्वीकारती है) चुनाव से पहले उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के बतौर पेश करने से क्यों बचती रही? आरएसएस के पूर्व प्रचारक गोविंदाचार्य ने कई साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ‘मुखौटा’ कहा था.

ये एक राजनीतिज्ञ के रूप में मोदी का कौशल ही है कि 2002 के गुजरात दंगों, जिसमें तकरीबन एक हज़ार मुस्लिमों को मार दिया गया था, के बोझ के बावजूद वे न केवल प्रधानमंत्री बने, बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में आदित्यनाथ के लिए सुशासन का ‘मुखौटा’ भी बन गए.

मुख्यमंत्री बनने के बाद क़ानून और व्यवस्था की गिरती स्थिति के बावजूद भी आदित्यनाथ ‘गोदी मीडिया’, जो उनकी ‘गोशाला’, उनकी पसंदीदा गाय ‘नंदिनी’ और प्यारे कुत्ते ‘कालू’ को नेशनल टेलीविज़न पर दिखाता रहा, की बदौलत अपनी छवि सुधारने के प्रक्रिया में सफल रहे हैं.

Gorakhpur : An inside view of a ward of BRD Hospital in Gorakhpur on Friday where at least 30 children died since the past two days, allegedly due to oxygen supply cut on Friday. PTI Photo (PTI8_11_2017_000220B)
गोरखपुर का बीआरडी मेडिकल कॉलेज (फोटो: पीटीआई)

इसमें कोई शक नहीं है कि दर्जनों नोटिस के बाद भी सरकार के ऑक्सीजन का बकाया लगभग 68 लाख रुपये न देने से गोरखपुर के अस्पताल में हुई मौतें आदित्यनाथ की प्रशासनिक अक्षमताओं का एक संकेत भर हैं.

जहां अस्पताल के डीन को निष्कासित कर दिया गया, एक डॉक्टर को पद से हटाया गया, निजी सप्लायर के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हुई, वहीं सरकार या आदित्यनाथ किसी भी तरह से इस हादसे की ज़िम्मेदारी से बचे रहे.

यहां तक कि विधानसभा चुनाव में भाजपा का चेहरा रहे और सुशासन के बड़े-बड़े वादे करने वाले प्रधानमंत्री मोदी ने अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण के एक छोटे से हिस्से में इस हादसे का ज़िक्र करने के अलावा घटना पर किसी तरह का दुख व्यक्त नहीं किया.

जहां एक तरफ महज 68 लाख रुपये के बिल की वजह से 60 से ज़्यादा बच्चों की जान गई, वहीं मोदी के विज्ञापनों पर केंद्र सरकार द्वारा 1,100 करोड़ रुपये ख़र्च किए गए.

एक आरटीआई के जवाब में मिली जानकारी के अनुसार 1 जून 2014 से 31 अगस्त 2016 के बीच ये राशि केवल टीवी और इंटरनेट पर दिखाए गए विज्ञापनों पर ख़र्च की गई.

आदित्यनाथ सरकार ने भी विज्ञापनों के लिए एक लंबा-चौड़ा बजट तय किया है और संघ के हलकों में मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में देखे जा रहे आदित्यनाथ अपने ख़राब प्रशासन के बावजूद इस बजट की मदद से अपनी छवि सुधारने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

किसी भी जीवंत लोकतंत्र में कुछ ही दिनों के अंदर 60 से ज़्यादा बच्चों की मौत हो जाने जैसा हादसा किसी राजनेता का करिअर ख़त्म कर सकता था, लेकिन यहां ऐसा नहीं हुआ.

जहां आरएसएस के सौम्य ‘मुखौटा’ कहे जाने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने संघ से दूरी बरतते हुए उन्हें अपनी गठबंधन की सरकार में दख़ल नहीं देने दिया, वहीं सभी बड़े संवैधानिक पदों पर नियंत्रण और पूरे बहुमत के बावजूद मोदी ऐसा नहीं कर सके.

जिस तरह आदित्यनाथ को कट्टर हिंदुत्व से निकालकर उत्तर प्रदेश पर थोप दिया गया, ये बाज़ीगरी दिखाने जैसा ही है. आदित्यनाथ आज भी हिंदू युवा वाहिनी के आग उगलने वाले नेता हैं, जिस पर उनका नया पद भी कोई अंकुश नहीं लगा पाया है.

उनका एजेंडा आज भी सांप्रदायिक और भड़काऊ है- वो एजेंडा जिसे मोदी और अमित शाह 2014 की तरह राज्य की 80 में से 73 सीट जीतने के लिए ज़रूरी मानते हैं.

इसलिए गाय, मंदिर, लव जिहाद और एंटी रोमियो स्क्वाड ही आदित्यनाथ की शासन व्यवस्था के मुख्य मुद्दे रहेंगे. अल्पसंख्यक और हाशिये पर धकेले जाएंगे और उत्तर प्रदेश का बदहाल प्रशासन उसी तरह चलता रहेगा.

अगर आदित्यनाथ के इतिहास और पीछे चार महीनों में उनके शासन को देखा जाए तो स्पष्ट है कि उनको रोकने और भाजपा को जवाबदेह ठहराने की ज़रूरत है.

किसी तरह के सांप्रदायिक एजेंडा को ‘सुशासन’ का चेहरा पहनाना किसी त्रासदी को दावत देने जैसा है. एक बार अरुण शौरी ने कहा था, ‘मोदी को लगता है कि ख़बरों को मैनेज करके वे घटनाओं को भी मैनेज कर लेंगे, लेकिन आपकी सारी योजनाओं पर घटनाएं भारी पड़ जाती हैं.’

(स्वाति चतुर्वेदी स्वतंत्र पत्रकार हैं और उन्होंने ‘आई एम अ ट्राॅल: इनसाइड द सीक्रेट वर्ल्ड ऑफ द बीजेपीज़ डिजिटल आर्मी’ किताब लिखी है.)

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