निजीकरण को लेकर सरकार को परेशान करने वाला सबसे मुश्किल सवाल यह है कि सरकारी संपत्तियों को किस क़ीमत पर बेचा जाना चाहिए.
राजनीतिक-आर्थिक सुधारों के प्रति रवैये की बात करें, तो 2021 के नरेंद्र मोदी, 2015 के नरेंद्र मोदी से काफी अलग नजर आते हैं.
इन दो अलग-अलग रवैयों के पीछे के कारण और प्रेरणाएं अपने आप में अध्ययन का विषय हैं.
2015 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली के ड्राफ्ट बजट प्रस्तावों को यहां याद किया जा सकता है. उस समय के सुधारों का केंद्रबिंदु आखिरकार सरकार के नियंत्रण में रह जानेवाले पांच छह बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के अलावा ज्यादातर सरकारी बैंकों के निजीकरण को सुगम बनाने के लिए बैंक नेशनलाइजेशन अधिनियम में आमूलचूल बदलाव करना था.
यह प्रस्ताव जेटली और उनके वरिष्ठ अधिकारियों की टीम द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने लाया गया. वास्तव में अब सेवानिवृत्त हो चुके एक अधिकारी ने ‘शुड बैंक नेशनलाइजेशन रिमेन अ होली काऊ’ (क्या बैंकों के राष्ट्रीयकरण को एक पूज्यनीय चीज बना रहना चाहिए’) शीर्षक स्लाइड को सहेज कर भी रख लिया.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया, जिसने पूर्व वित्त मंत्री और उनकी टीम को काफी अप्रसन्न करने का काम किया, क्योंकि उनकी नजर में यह उनकी तरफ से किया जाने वाला सबसे बड़ा सुधार था.
जेटली के साथ काम करनेवाले एक अधिकारी के मुताबिक, जेटली संभवतः इसे अपनी स्थायी विरासत बनाना चाहते थे.
अब समय के कांटे को छह साल आगे खिसका दीजिए. ठीक उसी प्रस्ताव, यानी बैंकों के निजीकरण को प्रधानमंत्री मोदी ने स्वीकार कर लिया है. इस बड़े हृदय परिवर्तन का व्याख्या कैसे की जा सकती है?
उस समय निजीकरण को खारिज करने के पीछे मोदी का तर्क संभवतः यह था कि कल्याणकारी कार्यक्रमों क्रियान्वयन लिए सुदूरतम हिस्से तक पहुंच सुनिश्चित करके उसे व्यापक जनता तक पहुंचना होगा और इसके लिए सरकार का बैंकों पर नियंत्रण जरूरी है.
साथ ही उन्होंने यह हिसाब भी लगाया होगा कि बैंकों के व्यापक निजीकरण अभियान के बीच, जब लाखों बैंक कर्मचारी इसका विरोध कर रहे होंगे, जैसा अभी हो रहा है, विमुद्रीकरण यानी नोटबंदी की कवायद को अंजाम नहीं दिया जा सकेगा.
इसलिए मोदी अपने पहले कार्यकाल में आर्थिक प्रबंधन के क्षेत्र में इंदिरा गांधी की तरह एक काफी हद तक राज्य-नियंत्रण वाली शैली अपनाने का दिखावा करके खुश थे. इसने मिनिमम गवर्नमेंट या खुली अर्थव्यवस्थावा की पैरोकारी करने वाले उनके कई परंपरागत (वैश्विक अर्थव्यवस्था से शब्द उधार लेकर कहें तो थैचरवादी) प्रशंसकों को निराश किया, जिन्हें लगता था कि मोदी आर्थिक गतिविधियों से सरकार के पूरी तरह से बाहर निकल जाने के युग का आगाज करेंगे.
ठीक वे लोग ही आर्थिक विकास और उसके नतीजे के तौर पर सरकारी राजस्व के लड़खड़ाने की सूरत में सरकार चलाने के लिए पैसे का इंतजाम करने के लिए सरकारी संपत्तियों- सार्वजनिक क्षेत्र के ब्लू चिप उपक्रमों, बैंकों और गैस पाइपलाइन, पॉवर ग्रिड आदि जैसे बुनियादी ढांचे- को बेचने के प्रधानमंत्री के अभियान पर फूले नहीं समा रहे हैं.
अब सरकारी संपत्तियों को बेचने और पैसे का इंतजाम करने की छपटाहट साफ दिखाई दे रही है और विडंबना यह है कि यह सारा अभियान ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर चलाया जा रहा है!
संसाधन जमा करना अहम है, लेकिन….
निश्चित तौर पर संपत्तियों की बिक्री का एक महत्वपूर्ण कारण आवश्यक संसाधनों का इंतजाम करना है. यहां तक कि निजी क्षेत्र भी संसाधनों को इकट्ठा करने के लिए अपनी संपत्तियों को बेच रही है.
आज, ब्लैकस्टोन जैसी विदेशी निजी इक्विटी की बड़ी कंपनियों में से सबसे बड़े भूमि बैंक के मालिक हैं क्योंकि उन्होंने पूरे देश में रियल एस्टेट संपत्ति खरीदीं. घरेलू कंपनियां अपनी इक्विटी की तुलना में अधिक कर्ज में हैं और उनकी सबसे कीमती संपत्ति की इक्विटी वैश्विक मल्टीनेशनल कंपनियों को बेच रही हैं.
अडाणी ने अपनी एक आकर्षक गैस वितरण परियोजना की हिस्सेदारी फ्रांस की बड़ी तेल कंपनी को बेचीं है. भारत की सबसे बड़ी टेलीकॉम कंपनी भारती एयरटेल अपने विदेशी हिस्सेदारों को धीरे-धीरे अपनी इक्विटी का बड़ा हिस्सा लेने दे रही है.
यहां तक कि परंपरागत तौर पर मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) जैसा नकद के ढेर पर बैठा रहने वाला समूह भी इस कदर कर्ज में डूबा हुआ है कि इसे अपने फेसबुक और गूगल जैसी बड़ी वैश्विक कंपनियों को अपना शेयर बेचना पड़ा ताकि वह 2 लाख करोड़ से ज्यादा का कर्ज अपने खाते से कम कर सके.
नकद जुटाने के लिए सिर्फ सरकार ही बड़े पैमाने पर अपनी संपत्तियों को नहीं बेच रही है, बल्कि निजी क्षेत्र भी यही कर रहा है. लेकिन निजी कंपनियों को अपनी संपत्तियों की कहीं बेहतर कीमत मिल रही है.
नकद का संकट से अर्थव्यवस्था का कोई क्षेत्र अछूता नहीं है. एक तरह से देखें तो सरकार और निजी क्षेत्र दोनों ही पिछले पांच सालों से सतत तरीके से नीचे लुढ़क रही अर्थव्यवस्था में एक अभूतपूर्व समस्या से जूझ रहे हैं. लघु और अनौपचारिक क्षेत्र तो पूरी तरह से तबाह हो गए हैं, खासकर कोविड-19 लॉकडाउन के बाद.
2015 में नरेंद्र मोदी साफतौर पर ज्यादा आत्मविश्वास और आश्वस्त थे और इसलिए उन्होंने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की संपत्तियों और बैंकों के थोक में निजीकरण का रास्ता नहीं अपनाया.
आज जबकि अर्थव्यवस्था जमीन पर औंधे मुंह गिरी हुई है जिससे सरकार के राजस्व में भारी कमी हुई है, दशकों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी है और वैश्विक महामारी के कारण संसाधन संकट और गहरा गया है, उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं.
निष्कर्ष के तौर पर कहें, तो मोदी की नीतियों और राजनीतिक अर्थव्यवस्था को लेकर बुनियादी रवैये में बदलाव किसी गहरी प्रतिद्धता की उपज न होकर काफी हद तक अवसरवादी प्रतीत होता है.
ऐसे में जबकि अर्थव्यवस्था निम्नतम स्तर पर है और कोई नया निजी निवेश नहीं आ रहा है, वे कॉरपोरेटों द्वारा सस्ते कर्ज और टैक्स फायदों के जरिए आर्थिक गतिविधियों को गति देने पर ज्यादा निर्भर हो गए हैं.
सभी क्षेत्रों को मिलाकर एक दर्जन भर बड़े कॉरपोरेट चैंपियनों का निर्माण करने की चर्चा है. लेकिन यह सब शून्य में नहीं हो सकता है. हालात कितने चिंताजनक हैं, इसका एक अंदाजा इस बात से भी लगता है कि अर्थव्यवस्था में कुल मांग में वृद्धि के कोई संकेत नहीं हैं.
प्रधानमंत्री प्रोडक्ट की पैकेजिंग करने में काफी माहिर हैं और उन्होंने थोक के हिसाब से निजीकरण और मौद्रिकरण की कोशिश को दूसरी पीढ़ी के संरचनात्मक सुधार का हिस्सा करार दिया है, जिस काम को पिछली सरकारें अंजाम नहीं दे सकीं.
वे विवादास्पद कृषि कानूनों को भी कुछ इसी तरह से पेश करते हैं. लेकिन इस बात को नोट कीजिए कि उन्हें इन तथाकथित संरचनात्मक सुधारों के खिलाफ व्यापक प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है- चाहे कृषि कानून हो या बैंक/बीमा निजीकरण हो. और अगले कुछ महीने, इन सुधारों को लोग किस तरह से देखते हैं, इससे निपटने की उनकी क्षमता की परीक्षा लेंगे.
निजीकरण को लेकर सरकार के सामने सबसे उलझाऊ सवाल यह है कि आखिर किन कीमतों पर परिसंपत्तियों को बेचा जाए. व्यापक संसाधनों वाले बेहद लाभदायक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों की कीमतों (बाजार मूल्य) में भी 2014 के बाद से 40 फीसदी से ज्यादा गिरावट देखी गई है, जबकि निजी क्षेत्र के उनके साथी उपक्रमों का बाजार मूल्य काफी ज्यादा लगाया जा रहा है.
मिसाल के लिए, एक कॉरपोरेट कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड का इक्विटी बाजार मूल्य सभी लिस्टेड सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के कुल मूल्य से करीब 25-30 फीसदी ज्यादा है. इसी तरह से बैंकिंग क्षेत्र में एचडीएफसी का बाजार मूल्य सभी लिस्टेड सरकारी बैंकों के बाजार मूल्य से दोगुना है. वर्तमान बाजार मूल्य पर सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बेचना बेतुका होगा.
सरकार के भीतर भी इस सवाल का अभी तक समाधान नहीं हो सका है और यह बड़े राजनीतिक बवंडर का कारण बन सकता है और कांग्रेस ने इस बात को लेकर खतरे की घंटी बजा दी है कि करदाताओं के पैसों से दशकों में निर्मित परिसंपत्तियां कौड़ी के भाव में बेची जा सकती हैं. मोदी को भी इस राजनीतिक नैरेटिव के संभावित जोखिमों का अंदाजा है.
एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर भाजपा के लिए जनता को सामाजिक तौर पर विभाजनकारी मुद्दों पर गोलबंद करना ज्यादा आसान है, लेकिन इसकी क्षमता की परीक्षा अब जीविका के सवालों पर हो रही है- जिसे हम किसान आंदोलनों या निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मचारियों के हड़ताल के तौर पर देख रहे हैं, जो जाति और धर्मों की दीवारों से परे हैं.
आगे कहानी क्या रुख लेती है, यह देखना दिलचस्प होगा.
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