1971, वह साल जब भारतीय क्रिकेट ने एक नए युग में प्रवेश किया

1971 में भारतीय क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड और वेस्टइंडीज़ को उनकी ज़मीन पर हराया था और देश में क्रिकेट को लेकर नई उम्मीदों और उत्साह का प्रसार हुआ था. उस समय में जवान हो रहे लोगों के लिए यह केवल खेल के मैदान में मिली जीत पर खुश होने का नहीं, बल्कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सामूहिक क्षमताओं से रूबरू होने का पल था.

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1971 में वेस्टइंडीज में टेस्ट मैच जीतने वाली भारतीय टीम. (साभार: बीसीसीआई)

1971 में भारतीय क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड और वेस्टइंडीज़ को उनकी ज़मीन पर हराया था और देश में क्रिकेट को लेकर नई उम्मीदों और उत्साह का प्रसार हुआ था. उस समय में जवान हो रहे लोगों के लिए यह केवल खेल के मैदान में मिली जीत पर खुश होने का नहीं, बल्कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सामूहिक क्षमताओं से रूबरू होने का पल था.

1971 में वेस्टइंडीज में टेस्ट मैच जीतने वाली भारतीय टीम. (साभार: बीसीसीआई)
1971 में वेस्टइंडीज में टेस्ट मैच जीतने वाली भारतीय टीम. (साभार: बीसीसीआई)

भारतीय इतिहास के कैलेंडर में 1971 के नाम कई बड़ी जीतें दर्ज हुईं- राजनीति हो, चुनाव या फिर युद्ध- और भारत के लिए इन सबका दूरगामी असर होनेवाला था. भले ही भारत घरेलू मोर्चे पर कई समस्याओं से जूझ रहा था, लेकिन फिर भी देश एक नई उमंग का अनुभव कर रहा था.

50 सालों के बाद हम मुड़कर उस समय को देख रहे हैं और उसका अक्स उभारने की कोशिश कर रहे हैं. लेखों की एक श्रृंखला के तहत नामचीन लेखक उन महत्वपूर्ण घटनाओं और प्रक्रियाओं को याद करेंगे जिन्होंने एक युवा, संघर्षरत मगर उम्मीदों से भरे हुए भारत पर अपनी छाप छोड़ने का काम किया. 1971 ने भारतीय क्रिकेट को कैसे हमेशा के लिए बदल दिया, बता रहे हैं अयाज़ मेमन.

1971 की मेरी यादें 1968 से शुरू होकर चलने वाली यादों के सिलसिले के हिस्से के तौर पर हैं, जब मैंने अपने लड़कपन में कदम रखा था. वे बदलावों भरे साल थे: ये स्कूल में निकर से ‘पतलून’ में आ जाने के साल थे, ये वे साल थे जब एनिड ब्लायटन (मशहूर ब्रिटिश बाल साहित्य लेखिका) बचकाना लगने लगीं और हमने आर्ची कॉमिक्स की खोज की.

ये वे साल थे जब पॉलसन बटर से हेल्दी और वेल्दी (सेहतमंद एवं दौलतमंद) बनने का यकीन पुराने पत्ते की तरह झड़ गया, जब पहली बार सिगरेट पीने की डर भरी काफिराना खुशी का आनंद लिया.

उत्सुकता दिमाग को ज्ञान के नए क्षेत्रों की ओर लेकर गई. ये सब नया जोश जगाने वाले और चुनौतीपूर्ण थे, सिवाय त्रिकोणमिति के जो सिर के ऊपर से निकल जाया करती थी.

भारतीय जीवन में हिंदी सिनेमा की लुभावनी विशेषताओं के बारे में जितना कहा जाए कम है. जीनत अमान की मादकता हर किशोर के सपने पर राज करती थी. इत्तेफाक, आराधना और आनंद के साथ राजेश खन्ना का एक सुपरस्टार के तौर पर उदय और महिलाओं के दिलों पर उनके जादू ने हम सबको हैरत और जलन से भर दिया था.

इस लेख के लिए इंटरनेट को खंगालते हुए मुझे अमेरिका में अश्वेतों के विरोध प्रदर्शनों और फ्रांस तथा अन्य जगहों पर 1968 के दंगे बड़ी घटनाओं के तौर पर दिखाई दिए. लेकिन आज मुझे इनकी कोई स्पष्ट याद नहीं है.

1971 Rewind Logo

वुडस्टॉक (अमेरिका के न्यूयॉर्क में 15-17 अगस्त, 1969 को हुआ म्यूजिक फेस्टिवल, जिसे अमेरिकी सांस्कृतिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना माना जाता है)? वह क्या था? पश्चिमी सभ्यता से हमारे ताल्लुक का स्रोत, हमारी पढ़ाई की भाषा और किताबों के अलावा, साउंड ऑफ म्यूजिक, बेन हर और टेन कमांडमेंट्स जैसी फिल्में थीं, जिनका प्रदर्शन स्कूल के सायबान में किया जाता था.

जो चीज मुझे काफी साफ तौर पर याद है वह है चांद पर अपोलो-11 की लैंडिंग. कुछ दिनों के लिए हमारे स्कूल की चर्चाओं में नासा मुख्यालय छाया रहा, जिसमें शिक्षक भी शामिल रहे.

हमें मानवजाति के लिए इस घटना का अर्थ पर लेख लिखने के असाइनमेंट दिए गए. पचास साल बाद भी हम इसकी पड़ताल में मुब्तला हैं.

जहां तक सियासत का सवाल है, तो 1969 उत्तरार्ध में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा कांग्रेस सिंडिकेट, जो उनके पर कतरने पर आमादा था, पर प्रहार एक ऐसी घटना है, जो मेरी स्मृति के हार्ड डिस्क में बार-बार दस्तक देती रहती है.

यह वह दौर था जब अखबार पढ़ना आदत में शुमार हो रहा था. मुझे याद आता है कि लगभग हर दिन इंदिरा गांधी की तस्वीर और ओल्ड गार्ड से उनकी लड़ाई की कहानियां पहले पन्ने पर होती थीं.

और फिर था क्रिकेट…

मैंने पहला टेस्ट मैच 1964 में बंबई के ब्रेबॉर्न स्टेडियम में देखा था, जब भारत ने एक बेहद रोमांचक मुकाबले में ऑस्ट्रेलिया को शिकस्त दी थी. मुझ पर क्रिकेट का रंग चढ़ गया.

जब मैं किशोरावस्था में दाखिल हुआ, क्रिकेट- परिवार और दोस्तों के साथ और स्कूल में- रोजाना की चर्चा का हिस्सा बन गया. भारत की किसी भी आगामी सीरीज पर खूब बहस और चर्चा होती थी.

इंतजार का आलम यह था कि कभी-कभी तो यह चर्चा महीनों पहले से होने लगती थी.

1970 के अंत तक सारा ध्यान आगामी कैरिबियाई दौरे पर केंद्रित हो गया था. वेस्टइंडीज के खिलाफ भारत का रिकॉर्ड बेहद बुरा था. 1962 के पिछले दौरे में नतीजा 0-5 रहा था, जो काफी शर्मिंदगी से भरा था. सवाल था कि क्या इस बार कहानी अलग होगी? आम धारणा यही थी कि यह एक ‘मिशन इंपॉसिबल’ (असंभव मिशन) था.

इससे पहले कि मैं टेस्ट सीरीज पर आऊं, दौरे से पहले के घटनाक्रम को जानना उपयोगी होगी. यह भारतीय क्रिकेट के इतिहास का सबसे दिलचस्प और विवादास्पद अध्यायों में से एक है.

पूर्वकथा:

1970 में दिसंबर के एक ठंडे दिन, भारत के महानतम बल्लेबाजों में से एक और क्रिकेट टीम चयन समिति के अध्यक्ष विजय मर्चेंट ने अपने मत का इस्तेमाल करते हुए पटौदी के पूर्व नवाब मंसूर अली खान पटौदी को भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी से हटा दिया.

यह सिर्फ किसी खिलाड़ी के कद को कम करने का मामला नहीं था. यह इससे कहीं ज्यादा था. यह किसी क्रांति जैसा था.

आकर्षक बल्लेबाज, शानदार क्षेत्ररक्षक, जोशीले कप्तान और एक खानदानी नवाब पटौदी को 1962 में कप्तान बनाया गया था जब वेस्टइंडीज में चार्ली ग्रिफिश के बाउंसर पर नारी कॉन्ट्रैक्टर के सिर के पिछले हिस्से में गहरी चोट आई थी.

उस समय वे (पटौदी) सिर्फ 22 साल के थे और उस समय तक के क्रिकेट इतिहास के सबसे कम उम्र के कप्तान थे. अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में कदम रखने से पहले ही एक कार हादसे में अपनी एक आंख की दृष्टि लगभग पूरी तरह गंवा चुके पटौदी की छवि एक हीरो वाली थी, जिनकी प्रतिभा और करिश्मा का जादू सर चढ़कर बोलता था.

जिस साहस से उन्होंने दृष्टि बाधा जैसी अक्षमता को पार किया था, उसने उनके प्रति सम्मान और बढ़ा दिया था.

मर्चेंट और पटौदी दोंनो एक दूसरे को क्यों नहीं सुहाते थे,  इस बारे में आज भी कयास ही लगाए जाते हैं. भारतीय क्रिकेट में गहरी दिलचस्पी रखने वाले लोग बताते हैं कि मर्चेंट में कहीं न कहीं 1946 में कप्तान नहीं बनाए जाने का कड़वापन था, जब पटौदी सीनियर- इफ्तिखार अली खान ने इंग्लैंड के खिलाफ भारत का नेतृत्व किया था.

कॉन्सपिरेसी थ्योरी खोजने वालों का कहना है कि मर्चेंट ने 1970 में इसका बदला छोटे पटौदी से लिया. एक कहानी यह भी है कि जब छोटे पटौदी से मर्चेंट के साथ उनके कड़वे रिश्ते के बारे में पूछा गया तो कथित तौर पर उनका जवाब था :‘इज्जत कमाई जाती है, इसकी मांग नहीं की जाती है.’ इन कहानियों की प्रामाणिकता अज्ञात है.

1968 में न्यूजीलैंड के खिलाफ विदेशी सरजमीं पर पहली जीत के बाद टीम के बुरे प्रदर्शन ने भी जूनियर पटौदी के खिलाफ मर्चेंट के केस को मजबूत करने का काम किया.

इनमें सबसे निराशाजनक प्रदर्शन न्यूजीलैंड के खिलाफ स्वदेश में दर्ज किया गया जब भारत किसी तरह से हार को टालने में कामयाब हो पाया, वह भी बेमौसम आई बारिश की कृपा से.

भारतीय कप्तान और अन्य खिलाड़ियों द्वारा टेस्ट के दौरान पार्टी करने की कहानियों ने मामला और बिगाड़ने का काम किया.

इस समय तक देशभर में बदलाव की जबरदस्त बयारें बह रही थीं, इनमें से एक बयार ने क्रिकेट को भी प्रभावित किया. जैसा कि मैंने पहला कहा, उस समय की सर्वप्रमुख सियासी पार्टी कांग्रेस को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दोफाड़ कर दिया था.

उनके द्वारा लिए गए दो अहम फैसले थे: बैंकों का राष्ट्रीयकरण और प्रिवी पर्स की समाप्ति.

दूसरे फैसले ने पटौदी को नवाब से एक आम आदमी में तब्दील कर दिया. इसलिए ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ 1969-70 की घरेलू श्रृंखला में नवाब पटौदी, मंसूर अली खान के तौर पर खेले.

श्रृंखला में उनका प्रदर्शन ठीक-ठाक रहा था, लेकिन टीम श्रृंखला 1-2 से हार गई. मर्चेंट के मन में 18-20 महीने से ज्यादा समय नाराजगी जमा हो रही ही थीं. अब शायद इंदिरा गांधी के लोकलुभावनवादी कदमों से साहस पाकर मर्चेंट ने अपना फैसला लिया.

चयनकर्ताओं की बैठक में ईस्ट जोन के दत्ता रे अनुपस्थित थे. बाकी चार पटौदी या किसी अन्य में बंटे हुए थे. गतिरोध को तोड़ते हुए चयन समिति के चेयरमैन के तौर पर मर्चेंट ने पटौदी के खिलाफ अपना निर्णायक वोट दिया.

चयनकर्ताओं ने तब वाडेकर का नाम आगे किया, जो दूर-दूर तक कप्तानी की दौड़ में नहीं थे. मर्चेंट का प्रभाव सिर्फ वाडेकर को कप्तान बनाने तक सीमित न रहकर इससे आगे जाने वाला था.

अजित वाडेकर. (फाइल फोटो, साभार: आईसीसी)
अजित वाडेकर. (फाइल फोटो, साभार: आईसीसी)

‘युवाओं को मौका दो’ उनका नारा था. दो साल पहले बैंगलोर के छोटे कद के आकर्षक बल्लेबाज गुंडप्पा विश्वनाथ ने कानपुर में शतक लगाकर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ अपने टेस्ट करिअर की शुरुआत की थी.

मशहूर खिलाड़ी वीनू मांकड के बेटे अशोक को उसी श्रृंखला में मौका दिया गया था. मुंबई के मरीन ड्राइव पर स्थित हिंदू जिमखाना के ग्राउंड्समैन के बेटे एकनाथ सोलकर ने भी उसी सत्र में न्यूजीलैंड के खिलाफ अपना पहला टेस्ट मैच खेला था.

इन युवाओं में सबसे उम्मीद जगाने वाला था बॉम्बे का एक छोटे कद का सलामी बल्लेबाज सुनील मनोहर गावस्कर, जिसने स्कूल, कॉलेज और फर्स्ट क्लास मैचों में रनों का अंबार खड़ा किया था.

टीम को विदा करने के लिए आयोजित डिनर के मौके पर मर्चेंट ने सलाह दी थी: वह टीम में सबसे युवा है, लेकिन सीनियरों के लिए भी उसकी मिसाल का अनुसरण करना अच्छा होगा.

दिलचस्प यह है कि गावस्कर, विश्वनाथ, सोलकर, मांकड और बिशन सिंह बेदी, वेंकटराघवन और जयंतीलाल जैसे अपेक्षाकृत युवा खिलाड़ियों के अलावा टीम में कई सीनियर खिलाड़ी भी थे, जिनमें वे भी शामिल थे, जिन्हें पटौदी का खास समझा जाता था: जयसिम्हा, प्रसन्ना, दिलीप सरदेसाई. हालांकि निजी कारण का हवाला देते हुए पटौदी इस दौरे में शामिल नहीं हुए थे.

1971 की शुरुआत में कैरीबिया के लिए रवाना हुई टीम में अनुभव और युवा खून का एक स्वस्थ मिश्रण था. लेकिन आलोचकों और विशेषज्ञों ने अपना फैसला सुना दिया था.

ये सब अपने पूर्वानुमान में एकमत थे: इतिहास खुद को दोहराएगा और 1962 की तरह टीम को करारी शिकस्त का मुंह देखना पड़ेगा.

जीत ने चूमे कदम

टीम के सिर पर जीत का सेहरा दूसरे टेस्ट में बंधा, मगर इसकी नींव पहले टेस्ट में किंग्स्टन में रखी गई थी. मैच के शुरू होने से पहले एक दिन से ज्यादा का खेल बारिश की भेंट चढ़ गया. और भारत जल्दी ही संकट में था और 75 रन बनाकर 5 खिलाड़ी पवेलियन लौट चुके थे.

करारी हार का खतरा बिल्कुल सामने मंडरा रहा था. मगर छठे विकट के लिए साहसी सोलकर और अनुभवी सरदेसाई के बीच 137 रनों की साझेदारी और फिर सरदेसाई की ऑफ स्पिनर प्रसन्ना के साथ 122 रनों की साझेदारी ने इस खतरे को टाल दिया और भारत ने 387 रनों का एक अच्छा-खास स्कोर खड़ा कर दिया.

सरदेसाई ने 212 रन बनाए जो कि वेस्टइंडीज के खिलाफ किसी भारतीय का पहला दोहरा शतक था. जवाब में वेस्टइंडीज की पूरी टीम सनसनीखेज तरीके से महज 217 रनों पर सिमट गई.

लेकिन उन्हें आगे ओर भी झटका लगनेवाला था जब वाडेकर ने वेस्टइंडीज टीम को फॉलो ऑन के लिए बुलाया. वेस्टइंडीज के कप्तान सोबर्स हैरान रह गए.

उन्होंने इस बात की जानकारी नहीं थी कि नियम कहता है कि एक दिन के खेल का नुकसान होने पर फॉलो ऑन 150 रनों पर दिया जा सकता है. वेस्टइंडीज ने उस मैच को बचा लिया, मगर भारत ने एक बड़ी मनोवैज्ञानिक जंग जीत ली थी.

अगला टेस्ट पोर्ट ऑफ स्पेन में था. पहले बल्लेबाजी करते हुए वेस्टइंडीज की पूरी टीम 214 रनों पर सिमट गई. चोट के कारण पहले टेस्ट में नहीं खेल पाए गावस्कर ने अपने पदार्पण मैच में बेहतरीन 65 रन ठोंके.

सबसे अहम योगदान किंग्स्टन के दो शूरवीरों सरदेसाई और सोलकर की तरफ से आया, जिन्होंने 114 रनों की साझेदारी करके भारत के स्कोर को 352 रनों पर पहुंचाया. इस मैच में सरदेसाई ने श्रृंखला का दूसरा शतक जड़ा.

इसे भारत की खुशकिस्मती कहें, तीसरे दिन खेल के शुरू होने से पहले फॉर्म में चल रहे चार्ली डेविस को नेट प्रैक्टिस के वक्त आंख में चोट लग गई और उन्हें उपचार के लिए अस्पताल जाना पड़ा.

वेस्टइंडीज को इससे भी बड़ा झटका तब लगा जब फ्रेडरिक्स अपने पिछले दिन के स्कोर पर ही रन आउट हो गए. वेस्टइंडीज संकट में था, लेकिन क्लाइव लॉयड और सोबर्स का विकेट अभी तक बचा हुआ था.

लॉयड ने कुछ व्यग्रता भरे शॉटों के जरिये टीम पर कस रहे शिकंजे से मुक्त कराने की कोशिश की. वाडेकर ने तब मास्टरस्ट्रोक खेलते हुए अधीरता दिखा रहे बल्लेबाज को गेंद डालने के लिए सलीम दुर्रानी को बुलाया और खुद मिड विकेट पर खड़े हो गए. मानों उन्हें कोई इशारा किया गया हो, लॉयड ने एक गेंद सीधे भारतीय कप्तान के हाथों में थमा दी.

दुर्रानी की अगली गेंद और ज्यादा खतरनाक थी और यह सोबर्स के रक्षात्मक शॉट को चकमा देते हुए लेग स्टंप की गिल्ली ले उड़ी. अगर दो गेंद कोई मैच जिता सकती थी, जो ये वैसी ही दो गेंदें थीं. बाजी पलट देने वाली!

वेस्टइंडीज की टीम 261 पर सिमट गई. भारत को जीत के लिए सिर्फ 124 रनों की दरकार थी. इस लक्ष्य को आसानी से पा लिया गया. उभरते हुए सितारे सुनील गावस्कर ने नाबाद 67 रन बनाए. और इस तरह से भारत ने वेस्टइंडीज को पहली बार टेस्ट मैच में हरा दिया.

बाकी के तीन टेस्ट मैच जबदस्त टक्कर वाले थे और सोबर्स ने सीरीज को बराबरी पर लाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रखी, लेकिन भारतीय बल्लेबाजों ने उनकीर कोशिशों को कामयाब नहीं होने दिया.

अपने पदार्पण सीरीज में गावस्कर ने 774 रन बनाए. यह एक रिकॉर्ड है जो आधी सदी बीत जाने के बाद भी आज तक तोड़ा नहीं जा सका है. प्रसिद्ध कैलिप्सो कलाकार लॉर्ड रिलेटर ने गावस्कर की तारीफ में एक गीत लिखा और उसे स्वर दिया.

सुनील गावस्कर. (फाइल फोटो, साभार: आईसीसी)
सुनील गावस्कर. (फाइल फोटो, साभार: आईसीसी)

यह आने वाले समय में गावस्कर द्वारा बनाए जाने वाले कई रिकॉर्डों और मील के पत्थरों की पहली झलक थी. 1987 में जब उन्होंने क्रिकेट से संन्यास लिया, तब तक उनके नाम सबसे ज्यादा टेस्ट रन (10,122) और सबसे ज्यादा शतकें (34) थीं. और वे आने वाली पीढ़ियों के कई भारतीयों के लिए आसमान छूने का प्रेरणास्रोत बन चुके थे.

642 रनों के साथ सरदेसाई ने ‘रिनेसां मैंन’(नवजागरण पुरुष) की उपाधि अर्जित कर ली थी. सोलकर के साहस ने मैदान के एक युवा को रातों रात कॉकटेल पार्टी स्टार बना दिया था.

बेदी, प्रसन्ना और वेंकटराघवन पर उनके शानदार कौशलों के लिए प्रशंसा की बरसात हुई, जिसने सोबर्स, लॉयड रोहन कन्हाई जैसे आतिशी बल्लेबाजों को बेबस कर दिया था.

कप्तान के तौर पर वाडेकर भले हर किसी की पसंद न रहें हों, मगर अब वे हर किसी के आंखों के तारे थे. उन्होंने बहुत ज्यादा रन नहीं बनाए, मगर मैदान पर संसाधनों का उन्होंने जिस तरह से इस्तेमाल किया और कप्तान के तौर पर उन्होंने जैसे प्रयोग किए, उसकी सबने, यहां तक कि सोबर्स ने भी, जी भर कर प्रशंसा की.

और सलीम दुर्रानी को कौन भूल सकता है? आंकड़ों के हिसाब से- चाहे बल्लेबाजी हो या गेंदबाजी, उनका योगदान नगण्य था. लेकिन इस सीरीज के परिणाम को उनके दो जादुई गेंदों ने तय किया.

कुछ साल बाद, मैंने दुर्रानी से पूछा कि क्या उस यादगार मैच में जब वाडेकर ने आपकी तरफ गेंद उछाला, तब आप क्या घबराए हुए थे? उनका जवाब था, ‘वास्तव में मैं उन्हें गेंद देने के लिए जोर दे रहा था. मुझे मालूम था कि मैं उन्हें आउट कर सकता था, मैंने हमेश खुद पर यकीन किया, लेकिन मेरे पास मुझ पर यकीन करने वाले काफी लोग नहीं थे.’

एक शानदार हरफनमौला दुर्रानी एक गैरपरंपरागत खिलाड़ी थे, जिन्होंने अपने छिटपुट करिअर में सिर्फ 25 टेस्ट मैच खेले.

जीत: भाग 2

लगभग 5 महीने बाद वाडेकर के नेतृत्व वाली टीम ने रे लिंलिथगो की बेहद ताकतवर टीम को ओवल में शिकस्त दी. यह इंग्लैंड में भारत को मिली पहली टेस्ट और श्रृंखला विजय थी.

1967 के पिछले दौरे में पटौदी की टीम को 0-3 से रौंद दिया गया था. घास वाली तेज पिचों पर किसी को सपने में भी वाडेकर की टीम के अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद नहीं थी.

लेकिन वेस्टइंडीज की ही तरह भारत ने निर्णायक क्षण में सबको हैरान कर देने वाला प्रदर्शन किया. इस बार वाडेकर का तुरूप का इक्का थे अपरंपरागत लेग स्पिनर भागवत चंद्रशेखर, जिनका बायां हाथ बचपन में पोलियोग्रस्त हो गया था.

वे हमेशा, यहां तक कि गेंदबाजी करते वक्त भी पूरी बांह की कमीज पहनकर इसके असर को जनता की निगाहों से छिपाया करते थे.  (एक संयोग है कि आमिर खान और आशुतोष गोवरिकर की सुपरहिट फिल्म लगान का रहस्यमय गेंदबाज कचरा का किरदार ऊपरी तौर पर चंद्रशेखर पर आधारित है.)

बेदी, प्रसन्ना, और वेंकटाराघवन के साथ चंद्रा ने ऐतिहासिक ‘स्पिन चौकड़ी का निर्माण किया, जो भारतीय क्रिकेट इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है.

पहला और दूसरा टेस्ट बेनतीजा रहा. तीसरे टेस्ट में चंद्रशेखर ने उनकी बल्लेबाजी को अपनी फिरकी के जाल में फंसाकर तहस-नहस कर दिया. भारत के लिए लक्ष्य छोटा था और कुछ परेशानियों के बावजूद उसे हासिल कर लिया गया.

लंदन में भारतीय टीम के समर्थकों ने हाथी को ओवल में लाकर जीत का जश्न मनाया. भारत में क्रिकेट-प्रेमियों को, खासतौर पर इस खेल के प्यार में पड़े एक 15 साल के किशोर को इन दो श्रृंखलाओं ने किस तरह से रोमांचित किया और उन पर कितना असर डाला, इसे शब्दों में बयान कर पाना नामुमकिन है.

कोई भी उपमा इसके लिए नाकाफी होगी और इसलिए मैंने उन यादगार जीतों के खास बिंदुओं को पकड़ने के लिए वास्तविक घटनाक्रम पर भरोसा किया है.

जब वाडेकर की विजेता टीम इंग्लैंड से लौटने पर मोटर काफिले पर सवार होक सांताक्रूज एयरपोर्ट से सीसीआई (क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया) तक आई, तब बंबई के सड़कों पर टीम की एक झलक पाने और खिलाड़ियों पर फूलों की बारिश करने और उनकी जयकार करने के लिए उतरे हजारों लोगों में मैं भी शमिल था.

उत्तरकथा:

1974 में इंग्लैंड ने भारत को 3-0 से करारी शिकस्त दी. लॉर्ड्स में पूरी भारतीय टीम महज 42 रन बनाकर आउट हो गई. व्यथित वाडेकर ने तुरंत संन्यास ले लिया.

वेस्टइंडीज की ही तरह शानदार रन बनाना जारी रखने वाले सरदेसाई ने 1972-73 में इंग्लैंड के साथ सीरीज के बीच ही खराब फॉर्म के कारण टीम से बाहर किए जाने पर संन्यास ले लिया.

1971 के इंग्लैंड दौरे के लिए टीम से बाहर कर दिए गए दुर्रानी दीये की बुझती हुई तेज लौ की तरह थोड़े समय के लिए टीम में दोबारा लौटे. 1972-73 में जब टोनी लुइस की टीम के खिलाफ बॉम्बे टेस्ट के लिए दुर्रानी को टीम से बाहर किया गया, तब ‘नो दुर्रानी, नो टेस्ट (दुर्रानी नहीं तो टेस्ट नहीं) के बैनर लहराए गए.

इंग्लैंड के ओवल में तीसरे टेस्ट में जीत दर्ज करने के बाद अजित वाडेकर और भागवत चंद्रशेखर. (साभार: बीसीसीआई)
इंग्लैंड के ओवल में तीसरे टेस्ट में जीत दर्ज करने के बाद अजित वाडेकर और भागवत चंद्रशेखर. (साभार: बीसीसीआई)

चयनकर्ता लोकप्रिय मांग के सामने झुके और दुर्रानी ने दर्शकों की मांग पर छक्के जड़कर दर्शकों का पूरा पैसा वसूल कराया. इसने उन्हें ‘मिस्टर सिक्सर’ की स्थायी उपाधि दिलाई.

यह उनका आखिरी प्रदर्शन था क्योंकि जयसिम्हा की तरह उन्हें भी फिर टीम में कभी शामिल नहीं किया गया, जो 1971 के वेस्टइंडीज के दौरे के बाद फिर कभी भारत के लिए नहीं खेले.

वेस्टइंडीज के खिलाफ घरेलू श्रृंखला में और कोई विकल्प नहीं होने के कारण चयनकर्ताओं ने मंसूर अली खान पटौदी को एक बार फिर कप्तानी की कमान सौंपी. इस तरह से पूर्व नवाब के लिए जीवन का एक चक्र पूरा हुआ.

उत्तरकथा:

भारत में जवान बड़े हो रहे लोगों के लिए 1971 की गर्मी सिर्फ क्रिकेट के मैदान में मिली जीत पर खुश होने से संबंधित नहीं थी, बल्कि यह जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तिगत और सामूहिक क्षमताओं से रूबरू होने का पल था.

क्रिकेट की साधारण प्रतिभा होने के कारण क्रिकेट में बड़ा नाम कमाने का मेरा सपना कॉलेज के दूसरे साल तक टूट गया. लेकिन मुझे शक है कि किसी चीज ने अवचेतन में जड़ जमा ली और कई सालों बाद यह मुझे दूसरे सबसे अच्छे विकल्प की ओर लेकर गई: इस महान खेल को जीवनभर नजदीक से देखने के लिए प्रेस दीर्घा में.

अयाज़ मेमन वरिष्ठ पत्रकार हैं, जो खेल, राजनीति और सामाजिक विषयों पर लिखते हैं. 

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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