दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा के टर्मिनल-3 के निर्माण के लिए नांगल देवत गांव के 59 दलित परिवारों की ज़मीन ली गई थी. ज़मीन के बदले ज़मीन देने का वादा था जो एक दशक बाद भी पूरा नहीं हुआ.
‘दो साल पहले मेरे पति का निधन हो गया था. मेरी बेटी शादी लायक हो गई है लेकिन घर और ज़मीन न होने के कारण उसकी शादी नहीं हो रही है. हमारे बच्चों को ठीक से खाना नसीब नहीं हो पा रहा. यह सिर्फ मेरी स्थिति नहीं, यहां के 59 दलित परिवारों का हाल यही है.’ हमें यह बात एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) के जोरबाग स्थित दफ्तर के बाहर धरने पर बैठी धजा ने बताई.
धजा समेत 59 दलित परिवार के सदस्य यहां पिछले दो महीने से ज्यादा समय से धरने पर बैठे हैं. ये सारे परिवार इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास के नांगल देवत गांव के हैं. दरअसल हवाई अड्डे के विस्तार और टर्मिनल-3 के निर्माण के चलते गांव की बस्तियों का अधिग्रहण सरकार ने कर लिया था.
एएआई ने 2007 में ज़मीन के बदले ज़मीन देने का वादा किया था. लेकिन 10 साल होने के बाद भी 122 लोगों की सूची में 59 दलित परिवारों को अब तक ज़मीन आवंटित नहीं हुई है.
60 दिन से एएआई के दफ्तर के बाहर धरने पर बैठे सुनील दत्त का कहना है, ‘हम जब भी एएआई के दरवाज़े जाते हैं तो वे हमें एडीएम के पास भेजते हैं. एडीएम के पास जाते हैं तो वे हमें वापस एएआई के पास जाने की बात कहते हैं. पिछले 10 वर्षों से यही हमारा हर रोज का संघर्ष है.’
इस पूरे मसले में गांव की महिलाओं की स्थिति सबसे बदतर है. इन 10 सालों के संघर्ष के दौरान कई महिलाओं के पतियों का निधन हो चुका है. पति के निधन के बाद बच्चों को पालना और ख़र्च उठाना अब मुश्किल हो गया है. ऐसी ही एक महिला कुंती ने बताया कि उनके पति की मौत पिछले साल अगस्त महीने में हो गई. कुंती देवी अब रिश्तेदारों के यहां रहती है.
इन पीड़ित महिलाओं की दिनचर्या अब बदल चुकी है. दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में किराये पर रह रहीं ये महिलाएं सुबह एएआई दफ्तर के पास धरने के लिए पहुंच जाती हैं.
पैसों की किल्लत की वजह से कुछ महिलाएं 10 किलोमीटर तक का सफर पैदल तय करती हैं. एएआई के खिलाफ नारों और दलित आंदोलन के लोक गीतों के साथ इन महिलाओं के सुबह से शाम तक का समय फरियादी के रूप में कट रहा है.
इसमें से ज़्यादातर महिलाएं दिहाड़ी मजदूरी या दूसरे घरों में चौका-बर्तन करके अपना पेट पालती हैं. ऐसे में इनका संघर्ष दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है.
धरने पर नज़फ़गढ़ में किराये पर रहने वाले रिटायर्ड सीआरपीएफ जवान 60 वर्षीय ओम प्रकाश भी बैठे हैं. वे कहते हैं, ‘हमारी दशा पर कोई ध्यान नहीं देता. हम 60 दिनों से धरने पर बैठे हैं, पर कोई भी अधिकारी हम से मिलने नहीं आया. हमारी हालत इतनी बुरी है कि अगर हमारे घर-परिवार में किसी की मौत हो जाए तो हमें मातम तक नहीं करने दिया जाता. कहते हैं कि हमारे घर में भूत-प्रेत का साया हो जाएगा.’
इस मामले की शुरुआत 1953 से हुई, जब नांगल देवत गांव में लोगों ने आकर रहना शुरू किया. 1958 में इन लोगों का नाम यहां के रहवासियों की सूची में शामिल हो गया. इसके तकरीबन 10 साल बाद 1964-65 में पालम हवाई अड्डे के विस्तार के नाम पर गांववालों की ज़मीन का अधिग्रहण कर लिया गया था. हालांकि नांगल देवत गांव में 63 एकड़ अधिग्रहण की गई ज़मीन पर लोग रह रहे थे. 2007 के अगस्त महीने की पहली तारीख को यहां के लोगों को टर्मिनल 3 के निर्माण के चलते हटा दिया गया.
27 मई, 2008 को सभी दलित परिवारों ने दिल्ली के तत्कालीन उप-राज्यपाल से मिलकर अपनी समस्या बताई. उप-राज्यपाल तेजेंदर खन्ना ने मामले को संज्ञान में लेते हुए सभी विभाग की बैठक बुलाकर 59 परिवारों को ज़मीन आवंटन करने के आदेश दिए. उप-राज्यपाल का आदेश पर अभी तक अमल नहीं किया गया है.
ज़मीन अधिग्रहण करते समय एएआई ने सूची में मौजूद 122 लोगों को ज़मीन के बदले ज़मीन देने से इनकार कर दिया था. एएआई ने इसके बजाय समुदाय के हिसाब से ज़मीन देने का प्रस्ताव रखा था. जैसे कि 650 मीटर वाल्मीकि समाज, 650 मीटर जाटव समाज और 650 मीटर हरिजन समाज आदि. जबकि हर समुदाय में परिवार की संख्या अलग-अलग है.
2006 में दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बाद एएआई ने 122 लोगों को अलग-अलग प्लॉट देने की बात कही, लेकिन ऐसा आज तक नहीं हुआ है.
धरने पर बैठे सुनील लोहिया ने द वायर से बात करते हुए बताया, ‘फैसले के बाद एएआई ने हमे धोखा दिया. एएआई ने चुपके से एक समिति बनाई जिसमें एएआई के एक सदस्य, डीडीए के एक सदस्य और एडिशनल डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट को उसका अध्यक्ष नियुक्त कर दिया. इस समिति की सूचना हमें नहीं दी गई. इस समिति ने हम लोगों पर दो शर्तें थोप दीं. पहली 1958 की 122 लोगों की सूची में नाम होना चाहिए और दूसरी की 1958 की सूची के हिसाब से वारिस उसी जमीन पर होना चाहिए.’
लोहिया के अनुसार, 122 लोगों में से 59 दलित परिवारों के साथ ऐसा हो रहा है, जबकि 63 लोगों को ज़मीन अवंटित की जा चुकी है. 59 दलित परिवार में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो समिति की दोनों शर्तों पर खरे उतरते हैं, फिर भी उनके साथ अत्याचार हो रहा है. 2008 में उप-राज्यपाल के आदेश के बावज़ूद इस ऑफिस से उस ऑफिस के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं.
अनुसूचित जाति वेलफेयर सोसाइटी के तहत संघर्ष करते अनिल लोहिया के अनुसार यह अत्याचार सिर्फ इसलिए हो रहा है, क्योंकि वे लोग दलित समाज से आते हैं.
अनिल का कहना है, ‘एएआई पिछला केस हारने की कसर पूरी कर रही है. हमने कई सरकारी महकमों में फ़रियाद की, यहां तक कि प्रधानमंत्री और उप-राज्यपाल को हर रोज पत्र लिखते है. आज तक हमें कोई जवाब नहीं आया. हमारे सामने से कितने मंत्री गुजरते हैं पर आज तक किसी ने अपनी गाड़ी रोककर नहीं पूछा कि यहां क्यों बैठे हो.’
लोहिया का यह भी कहना है कि हमें जून 2007 में एक नोटिस दिया गया था. जिसमें 1 अगस्त, 2007 तक ज़मीन खाली करने को कहा गया था. ज़मीन खाली करनी थी, इसी कारण कई लोग किराये के मकान में चले गए. एएआई ने बिना सूचना दिए एक सर्वे कराया और जो लोग उस समय गांव में मौजूद थे, उन्हें छोड़ 59 दलित परिवारों का नाम सूची से काट दिया गया.
दिल्ली हाईकोर्ट ने 31 मई, 2007 को आदेश दिया है कि जैसे सभी को ज़मीन आवंटित की गई है, उसी प्रक्रिया के तहत इन 59 दलित परिवारों को भी ज़मीन मिलनी चाहिए. सांसद फग्गन सिंह कुलस्ते, उदित राज और रमेश बिधूड़ी ने भी इस मामले से जुड़े मंत्री, अधिकारियों और उप-राज्यपाल को पत्र लिखा है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी उड्डयन मंत्री अशोक गजपति राजू को तीन पत्र लिखे हैं कि इन सब को ज़मीन जल्द आवंटित की जाए. अब तक कोई जवाब किसी विभाग से नहीं आया है.
हाल ही में एएआई ने 17 अप्रैल, 2015 को एडीएम को एक पत्र लिख कर बताया है कि 59 विस्थापित दलित परिवार की समस्या का हल न्यायालय से नहीं होगा. इस मामले का हल संबंधित विभाग राजस्व, डीडीए और एएआई द्वारा ही होगा.
इस मामले में एयरपोर्ट अथॉरिटी आॅफ इंडिया का पक्ष जानने के लिए वहां के जनरल मैनेजर (पब्लिक रिलेशन) जेबी सिंह से कई बार फोन पर बात करने की कोशिश की गई मगर उनका फोन नहीं उठा. इसके अलावा ईमेल भी किया गया लेकिन ख़बर लिखे जाने तक उनका कोई जवाब नहीं आया.