यह दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस के गठबंधन ने नोटबंदी को एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया है, लेकिन भाजपा इससे परहेज़ करने की कोशिश कर रही है.
यहां तक कि भाजपा के प्रमुख स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नोटबंदी का अपनी सरकार की बड़ी उपलब्धि के रूप में ज़िक्र नहीं करते. बीते दिनों बाराबंकी में अपनी चुनावी जनसभा में उन्होंने ‘गरीब बनाम अमीर’ के मुद्दे पर काफी ज़ोर दिया और संकेत दिया कि उनकी सरकार गरीबों को और राहत देगी. लेकिन मोदी ने नोटबंदी का ज़िक्र तक नहीं किया.
उनके भाषण से ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा को वास्तव में यह समझ में नहीं आ रहा है कि विमुद्रीकरण के आर्थिक प्रभावों को वह कैसे विश्लेषित करे. भले ही शुरू में लोगों ने इसका समर्थन किया था, क्योंकि नोटबंदी को भ्रष्टाचार और काले धन पर हमला बताया गया था, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, गरीबों को एहसास होगा कि नोटबंदी से उनके जीवन पर कोई खास फ़र्क नहीं पड़ने वाला.
पहले से ही संघ परिवार में नोटबंदी के असर को लेकर अफवाहें हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की एक महत्वपूर्ण ट्रेड यूनियन इकाई भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने यह कहकर कई बार केंद्रीय बजट की आलोचना की कि इसमें अनियोजित क्षेत्र के उन लाखों श्रमिकों के लिए कुछ नहीं है, जिन्हें नोटबंदी के बाद, खास तौर पर सर्वाधिक रोजगार उपलब्ध कराने वाले विनिर्माण क्षेत्र में, अपनी नौकरी गंवानी पड़ी. आरएसएस आठ नवंबर के बाद के हफ्तों में कुछ हद तक चुप्पी साधे रहा.
हालांकि बीएमएस की प्रतिक्रिया में अगर जानने के लिए कुछ है, तो यही कि संघ नेतृत्व बजट में निहित प्रमुख विचारों का बुनियादी तौर पर व्यापक विरोध जता रहा है. बीएमएस के महासचिव बृजेश उपाध्याय ने खुलेआम ‘श्रम सुधार’ और बड़े पैमाने पर ‘विनिवेश कार्यक्रम’ लागू करने संबंधी बजट प्रावधान पर सवाल उठाया, जिसमें ‘केवल अपने शेयर बेचने के इरादे से’ नए सार्वजनिक उपक्रमों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध कराने की बात शामिल है.
प्रस्तावित श्रम सुधारों के तहत हायर ऐंड फायर (नौकरी पर रखने और निकालने) की नीति लाई जा रही है. जब लाखों श्रमिकों ने अपनी नौकरी गंवा दी है, ऐसे में ऐसी संवेदनहीनता सहानुभूति की कमी से ही आ सकती है.
वास्तव में सहानुभूति की इस कमी को नोटबंदी के बाद पिछले तीन महीनों में नीतिगत विमर्श के दौरान देखा गया है, जिसमें केंद्र सरकार ने निर्णायक आंकड़े की कमी का हवाला देकर बड़े पैमाने पर रोज़गार ख़त्म होने की बात मानने से इंकार कर दिया. बीएमएस का कहना है कि अनियोजित विनिर्माण क्षेत्र में 2.5 लाख इकाइयां बंद हो गईं.
बजट भाषण में जोर देकर कहा गया कि इसमें कृषि और अनियोजित क्षेत्र के लिए काफी कुछ किया गया है, लेकिन अगर कोई समग्र खर्च में वृद्धि पर नज़र डाले, तो सांख्यिकीय जांच की कसौटी पर ये दावे विफल साबित होंगे.
वर्ष 2017-18 में कुल खर्च में मात्र 6.5 फीसदी की वृद्धि की गई है यानी मुद्रास्फीति को समायोजित करने के मामले में मात्र दो फीसदी. और ध्यान रहे कि ज़्यादातर ख़र्च-वेतन, ब्याज और सब्सिडी पहले से ही निर्धारित होते हैं.
इसलिए सवाल उठता है कि मात्र दो फीसदी की वास्तविक ख़र्च में वृद्धि से किस तरह नोटबंदी के वर्ष में सामाजिक क्षेत्र की ताजा जरूरतें पूरी हो पाएंगी. प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी जनसभा में किसानों से वायदा किया कि वह उनके कृषि कर्ज़ को माफ कर देंगे. उन्होंने ऐसा बजट में क्यों नहीं किया? ज़ाहिर है, प्रधानमंत्री के इस वायदे में यह आत्मस्वीकारोक्ति छिपी है कि वास्तव में लोगों को नोटबंदी से आर्थिक परेशानी हुई है.
भारत का अनियोजित क्षेत्र महत्वपूर्ण ज़रूरतों की पूर्ति करता है, जिन्हें बड़ी और बहुराष्ट्रीय कंपनियां पूरा करने में सक्षम नहीं हैं. अनियोजित क्षेत्र की छोटी कंपनियां खाद्य, वस्त्र, निर्माण और अन्य क्षेत्रों में कम गुणवत्ता वाले और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की ब्रांडेड उत्पादों के नकली उत्पाद तैयार करती हैं.
यह भी सच है कि गैर-ब्रांडेड नकल उत्पादों का यह तंत्र कर अधिकारियों, श्रम निरीक्षकों और अन्य भ्रष्ट नियामकों की नज़र से दूर रहने के कारण ही फल-फूल रहा है. इनमें से ज़्यादातर कंपनियों को अगर समय से पहले बड़े, संगठित और डिजिटल दुनिया में धकेल दिया जाए, तो वे बच नहीं पाएंगी.
उन्हें बदलाव के लिए कुछ समय चाहिए, अन्यथा अनियोजित क्षेत्र को भारी नुकसान होगा, जो बड़े पैमाने पर रोज़गार उपलब्ध कराता है. दुर्भाग्य से नोटबंदी के बाद नीतिगत विमर्श में जानबूझकर ‘स्वच्छ, नियोजित और डिजिटल अर्थव्यवस्था’ की स्थापना के नाम पर अनियोजित क्षेत्र को नियोजित दुनिया में धकेला जा रहा है.
एक मायने में नोटबंदी, डिजिटलीकरण और जीएसटी- ये सभी सुधार स्वाभाविक रूप से संगठित कारोबार के लिए फायदेमंद हैं और अनियोजित क्षेत्र के सूक्ष्म और लघु उद्यमों को बाधित करेंगे. ऐसे बदलाव के लिए व्यापक सहानुभूति की ज़रूरत है. यकीन के साथ नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा नीतिगत विमर्श ऐसी संवेदनशीलता दिखा रहा है.
सनद रहे कि 2008 की वैश्विक वित्तीय मंदी के बाद संघ परिवार के कई बौद्धिकों ने कहा था कि इस संकट से भारत कुछ हद तक इसलिए बचा रहा, क्योंकि अनियोजित क्षेत्र ने वैश्विक आर्थिक संकट से भारत की अर्थव्यवस्था को बचाया. लेकिन मौजूदा सरकार ऐसी नीति कथा रच रही है, जिसमें संगठित क्षेत्र की तुलना में छोटे कारोबार को भ्रष्ट और कर न चुकाने वाले के रूप में नामित किया जा रहा है. जबकि तथ्य यह है कि ज्यादातर घोटाले बड़े और संगठित कारोबार में हुए हैं, जिसने नियामक संस्थाओं को विकृत कर दिया है.
मसलन, 4.4 करोड़ छोटी इकाइयों के कर्ज़ का स्तर उतना ही है, जितना शीर्ष 20 कॉरपोरेट समूहों का. अनियोजित क्षेत्र की इकाइयां वित्त पोषण के लिए ज़्यादातर स्थानीय वित्तीय नेटवर्क पर निर्भर रहती हैं और वे बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों की तरह दिवालिया होना बर्दाश्त नहीं कर सकतीं. नोटबंदी ने अनियोजित क्षेत्र के वित्तीय नेटवर्क को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है.
(मूल रूप से यह लेख अमर उजाला में प्रकाशित हुआ)