बहुमत के फैसले में कहा गया कि तीन तलाक सहित कोई भी प्रथा जो कुरान के सिद्धांतों के खिलाफ है, अस्वीकार्य है.
नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने बहुमत के निर्णय में मुस्लिम समाज में एक बार में तीन बार तलाक देने की प्रथा को निरस्त करते हुए अपनी व्यवस्था में इसे असंवैधानिक, गैरकानूनी और शून्य करार दिया.
न्यायालय ने कहा कि तीन तलाक की यह प्रथा कुरान के मूल सिद्धांत के खिलाफ है. प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने 365 पेज के फैसले में कहा, ‘3:2 के बहुमत से दर्ज की गयी अलग अलग राय के मद्देनजर तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक) को निरस्त किया जाता है.’
प्रधान न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर ने तीन तलाक की इस प्रथा पर छह महीने की रोक लगाने की हिमायत करते हुये सरकार से कहा कि वह इस संबंध में कानून बनाये जबकि न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन और न्यायमूर्ति उदय यू ललित ने इस प्रथा को संविधान का उल्लंघन करने वाला करार दिया.
बहुमत के फैसले में कहा गया कि तीन तलाक सहित कोई भी प्रथा जो कुरान के सिद्धांतों के खिलाफ है, अस्वीकार्य है. तीन न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि तीन तलाक के माध्यम से विवाह विच्छेद करने की प्रथा मनमानी है और इससे संविधान का उल्लंघन होता हैं. इसलिए इसे निरस्त किया जाना चाहिए.
प्रधान न्यायाधीश खेहर और न्यायमूर्ति नजीर ने अल्पमत के निर्णय में तीन तलाक की प्रथा को छह महीने स्थगित रखने की हिमायत करते हुये राजनीतिक दलों से कहा कि वे अपने मतभेद परे रखते हुये केंद्र को इस संबंध में कानून बनाने में सहयोग करें. अल्पमत के निर्णय में यह भी कहा गया कि यदि केंद्र छह महीने के भीतर कानून नहीं बनाता है तो तीन तलाक पर यह अंतरिम रोक जारी रहेगी.
प्रधान न्यायाधीश और न्यायमूर्ति नजीर ने उम्मीद जताई कि केंद्र का कानून मुस्लिम संगठनों की चिंता और शरिया कानून को ध्यान में रखेगा. इस पांच सदस्यीय संविधान पीठ में विभिन्न धार्मिक समुदाय (सिख, ईसाई, पारसी, हिंदू और मुस्लिम) के न्यायाधीशों ने तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देने वाली पांच मुस्लिम महिलाओं की याचिका सहित सात याचिकाओं पर सुनवाई की थी.
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था कि तीन तलाक की प्रथा असंवैधानिक है. याचिका दायर करने वाली मुस्लिम महिलाओं ने एक ही बार में पति द्वारा तीन तलाक देने की प्रथा को चुनौती दी थी. कई बार तो तलाक के लिये फोन या लिखित संदेश का सहारा लिया जाता है.
इन याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने टिप्पणी की थी कि मुस्लिम समुदाय में विवाह विच्छेद के लिये तीन तलाक देने की परंपरा बहुत ही खराब और अवांछनीय है. हालांकि कुछ वर्गो के विचार में यह कानूनी है.
पहले केंद्र सरकार ने न्यायालय से कहा था कि यदि तीन तलाक की प्रथा को अवैध और असंवैधानिक करार दिया गया तो वह मुस्लिम समाज में विवाह और तलाक को नियमित करने के लिये कानून बनायेगी.
सरकार ने मुस्लिम समुदाय में तलाक देने के तीनों तरीकों-तलाक-ए-बिद्दत, तलाक हसन और तलाक अहसन को एक तरफा और न्यायेत्तर बताया था.
सरकार ने कहा था कि पर्सनल लॉ देश के संविधान के अनुरूप होने चाहिए और विवाह, तलाक, संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकारों को एक समान मानना चाहिए और इन्हें संविधान के अनुरूप ही होना होगा.
इन याचिकाओं में मुस्लिम समाज में प्रचलित निकाल हलाला और बहुविवाह जैसी अन्य प्रथाओं की संवैधानिकता को भी चुनौती दी गयी थी.
न्यायालय ने तलाक अथवा पति द्वारा दूसरी शादी के कारण मुस्लिम महिलाओं द्वारा लैंगिक भेदभाव से जुडे सवाल का स्वत: ही संज्ञान लेते हुये इसके लिये अपनी याचिका को मुस्लिम महिलाओं के लिये समता की तलाश का नाम दिया था.