कानपुर जैसे शहर में एक युवा कम्युनिस्ट और ट्रेड यूनियन के सदस्य के बतौर काम करने के दौरान देखे गए पुलिस और प्रशासन के पक्षपातपूर्ण रवैये ने मेरे लिए वर्गीय दृष्टिकोण और वर्गीय सत्ता की सच्चाई को और प्रमाणित कर दिया.
भारतीय इतिहास के कैलेंडर में 1971 के नाम कई बड़ी जीतें दर्ज हुईं- राजनीति हो, चुनाव या फिर युद्ध- और भारत के लिए इन सबका दूरगामी असर होनेवाला था. भले ही भारत घरेलू मोर्चे पर कई समस्याओं से जूझ रहा था, लेकिन फिर भी देश एक नई उमंग का अनुभव कर रहा था.
50 सालों के बाद हम मुड़कर उस समय को देख रहे हैं और उसका अक्स उभारने की कोशिश कर रहे हैं. लेखों की एक श्रृंखला के तहत नामचीन लेखक उन महत्वपूर्ण घटनाओं और प्रक्रियाओं को याद करेंगे जिन्होंने एक युवा, संघर्षरत मगर उम्मीदों से भरे हुए भारत पर अपनी छाप छोड़ने का काम किया. इस लेख में अपने अनुभव साझा कर रही हैं सुभाषिनी अली.
1969, 70, 71… याद करने पर यह तीन साल एकदूसरे मे गड्ड-मड्ड हो जाते हैं. जुलाई ’69 में मैं अमेरिका से कानपुर लौटी थी. मैंने तय कर लिया था कि तीन में से एक कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ुंगी.
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) 1964 मे स्थापित हुई थी. उसके तमाम नेताओं को स्थापना के फौरन बाद नज़रबंद कर दिया गया था और 1967 में आम चुनावों से पहले वे जेल से छूटे थे. इस चुनाव में पश्चिम बंगाल और केरल में माकपा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चों की सरकारें बनीं.
कानपुर लौटने के कुछ दिन बाद मैं कोलकता गई. गर्मागर्म बहसों का माहौल था. माकपा राज्य सरकारों को ‘संघर्ष के हथियार’ के रूप में इस्तेमाल करने की अपनी नीति को लागू करने की कोशिश कर रही थी.
पश्चिम बंगाल में हड़तालों, घेराव और आंदोलनों की लहर चल रही थी और पुलिस को मालिकों की तरफ से हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं थी. परिणामस्वरूप, सैकड़ों छोटे-बड़े उद्योगों के मजदूरों की बहुत कम मजदूरी कई दशकों के बाद बढ़ी.
केरल की सरकार ने कॉइर (नारियल की रस्सी), बीड़ी और खेतिहर मजदूरों को बहुत राहत पहुंचाई. ज़मीन और शिक्षा संबंधी मूलभूत सुधारों को लागू करने की उसकी कोशिश जारी थी. यही कोशिशें केरल के विकास मॉडल की नींव डालने के लिए जिम्मेदार हैं.
सरकार के इन कदमों का निहित स्वार्थों की ओर से ज़बरदस्त विरोध हुआ और जुलाई 1969 में केंद्र सरकार ने ईएमएस नंबूदरीपाद की अगुवाई वाली राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया. इस्तीफा देने के दूसरे दिन ईएमएस कोलकाता पहुंचे. यहां उनके और केरल की जनता के समर्थन मे माकपा ने विशाल आम सभा का आयोजन किया.
मेरा सौभाग्य था कि मैं उसको देख सकी, उसमें भाग ले सकी. ब्रिगेड ग्राउंड को किस तरह गांव और शहर की गरीब जनता ने अपने लाल झंडों से एक लाल समंदर में बदल दिया, यह मेरे लिए एक अविस्मरणीय दृश्य था जिसकी कल्पना भी मैं इसके पहले कभी कर नहीं पाई थी.
कानपुर लौटने से पहले मैंने माकपा के साथ जुड़ने का फैसला ले लिया. लौटने के बाद एक तपती दोपहर में लू की लपट के बीच रिक्शे में बैठ मैंने कानपुर की एक गली को तलाशा. यह गली माल रोड से ही निकलती थी और माल रोड तो मेरी विशेषाधिकृत दुनिया का हिस्सा था.
वह गली भी ‘हमारे’ ड्राइक्लीनर की दुकान के बगल से ही निकलती थी लेकिन उसने मुझे एक बिल्कुल ही अजनबी दुनिया में पहुंचा दिया. यह कुरस्वां था, एक निम्नमध्यम वर्गीय मोहल्ला जिसके जर्जर मकान संयुक्त परिवारों की कई पीढ़ियों और उनकी बढ़ती बेरोजगारी और गरीबी के बोझ के नीचे चरमरा रहे थे.
माकपा के ज़िला मंत्री कॉमरेड राम आसरे, एक ऐसे ही मकान में रहते थे. कानपुर से तीन साल ज़िला बदर किए जाने के बाद वे हाल में लौटे थे. ज़बरदस्त वक्ता, हुनरवान लेखक और अथक पाठक, वे मेरे लिए एक आदर्श कम्युनिस्ट थे और आज तक हैं.
उन्होंने मुझे कानपुर के मजदूर वर्ग की दुनिया से मिलाया. वे मुझे मिलों के फाटक पर होने वाली सभाओं में ले जाते थे. सभा खत्म होने पर मैं भी उनके साथ उन चाय की गुमटियों पर बैठती थी जो हर मिल के फाटक के इर्द-गिर्द बने हुए थे. इनमें यूनियन के नेताओं, जुझारू और साधारण मजदूरों से बात करने का मौका मिलता था.
मेरा परिवार हमेशा मिलों के आस-पास ही रहा. हर दिन को मिलों की सीटी विभाजित करती थी. हमारे घर के सामने उन सीटियों की आवाज़ के साथ मजदूरों की कतारें निकलती थी. ठंड के कोहरे मे ठिठुरते हुए; गरम दोपहरों में पसीने से लथपथ. चारों तरफ पालियां लगती और समाप्त होती रहती थीं.
मिल के फाटकों के सामने चाय की दुकानों के चूल्हे सुलगते रहते थे. उनका और मजदूरों की बीड़ियों का धुआं पूरे माहौल को सौंधा बनाए रखता था. यह सब मेरे लिए जाना-पहचाना लेकिन मेरी अपनी दुनिया से बहुत दूर था. अब मैं उसका हिस्सा बनने की कोशिश कर रही थी. पता नहीं, मैं उसका हिस्सा पूरी तरह बन पाई कि नहीं, लेकिन यह तो हुआ ही कि एक बड़ी खाई लांघकर मैं हमेशा के लिए उस दुनिया के साथ खड़ी हो गई.
1970 की शुरुआत में कॉमरेड ईएमएस तीन दिन के लिए कानपुर की नई ज़िला कमेटी के साथ विस्तृत चर्चा के लिए आए. कॉ. राम आसरे ने मेरे माता-पिता से उन्हें हमारे घर पर ठहराने के लिए कहा. यह बहुत आश्चर्य की बात नहीं थी. उनके अंदर सुभाष चंद्र बोस द्वारा द्वितीय महायुद्ध के दौरान अपनाई भूमिका की सीपीआई की कठोर आलोचना को लेकर नाराजगी तो थी लेकिन वे ईएमएस जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की बहुत इज्ज़त करते थे.
यही नहीं, केरल में हुए मौलिक सामाजिक और आर्थिक सुधारों में कॉ. ईएमएस के योगदान की मेरी मलयाली मां बड़ी प्रशंसक थी. आईएनए के इन वरिष्ठ सेनानियों के घर रुकने के लिए ईएमएस भी खुशी-खुशी तैयार हो गए.
मेरे जैसी जिद्दी और बहस करने वाली युवती के साथ लंबी बातचीत करने में कॉ. ईएमएस ने परहेज नहीं किया. उन्होंने मुझसे कहा भी कि पार्टी की सदस्यता ले लो. मेरी ‘आज़ादी खत्म हो जाने’ वाले मेरे बहुत घिसे-पिटे बहाने का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, ‘तुम जब चाहो, छोड़ भी सकती हो. विवाह की तरह नहीं है.’ और उनके कानपुर छोड़ने से पहले मैंने पार्टी का फॉर्म भर दिया.
यह वह समय था जब कानपुर की कई सूती मिल या तो बंद हो या बंद होने की कगार पर थे. बंदी का ऐसा भय मजदूरों को हर वक्त घेरे हुए था कि वे मिल प्रशासन के हर हमले को चुपचाप बर्दाश्त करने के लिए मजबूर हो गए थे. 60 के दशक मे बंद होने वाली मिलों में से एक विक्टोरिया मिल भी थी, जहां 1947 से मेरे पिता मैनेजर थे.
कॉ. ईएमएस के जाने के बाद कॉ. राम आसरे, जो सूती मिल मजदूर सभा के नेता थे, ने बंद कारखानों को राष्ट्रीयकृत कर शुरू करने की मांग पर अभियान और आंदोलन का आह्वान किया. बाकी तमाम यूनियनों ने इसका विरोध यह कहकर किया कि यह दुस्साहस है.
हम लोगों ने विक्टोरिया मिल के बंद फाटक के सामने सभाएं शुरू कर दीं और इनमें बेरोजगार और निराश मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ने लगी. फिर यह तय किया गया कि क्रमिक ‘जेल भरो’ शुरू किया जाए.
रोज़ विभिन्न मिलों के मजदूरों का एक जत्था गिरफ्तारी देने लगा. एक अनूठा फैसला भी लिया गया: मिल के मजदूरों के घरों की महिलाओं का एक जत्था भी गिरफ्तारी देगा. मुझे इसे संगठित करने की ज़िम्मेदारी दी गई.
रोज़ दोपहर मैं कुछ कॉमरेडों के साथ उन बस्तियों और अहातों की तरफ निकल पड़ती थी जहां विक्टोरिया के मजदूर रहते थे. हमारे विरोधियों और समाचार पत्रों को बहुत मज़ा आया. उनका नारा था- सहगल मिल बंद करवाए, उसकी बेटी चालू करवाए! लेकिन मजदूर और उनके परिवार के लोग इनसे कहीं ज़्यादा उदार थे जैसा कि अक्सर मजदूर वर्ग के लोग होते हैं.
फिर मेरी मां मजदूरों के बीच बहुत ही जनप्रिय डाक्टर थीं जो गरीबों का निशुल्क और बढ़िया इलाज साल के 364 दिन करती थीं, केवल होली के दिन ही उनका दवाखाना बंद रहता था. मेरा पिताजी की छवि भी एक मजदूर-विरोधी अधिकारी की नहीं थी. मजदूरों के लिए बस मैं ही अजीब थी!
दो हफ्तों तक मैं बस्ती-बस्ती, अहाता-अहाता फिरती रही. गरीबी, अमानवीय परिस्थितियां, और अकल्पनीय धूल और हंगामे के बीच उन लोगों की दरियादिली और हास्य-भाव से मेरा परिचय हुआ. यह एहसास भी हुआ कि उनकी ज़बरदस्त अभाव की स्थिति मेरे अपने धनवान और विशेषाधिकारप्राप्त होने का दूसरा पहलू था!
आखिरकार, विभिन्न उम्र की 50 से अधिक महिलाएं जेल जाने के लिए तैयार हो गईं. विक्टोरिया के गेट से ज़िला कचहरी तक का हमारा जुलूस देखने वाला था. हजारों लोग उसे देखने इकठ्ठा हो गए. कुछ समर्थन मे तो कुछ हैरत से ताकने के लिए!
हम लोगों को एक हफ्ते तक जेल मे रहने की सज़ा सुनाई गई और फिर हमारे आंदोलन के पक्ष में तमाम यूनियनें और अन्य संगठन खड़े हो गए. उस समय चौधरी चरण सिंह मुख्यमंत्री थे. वे ट्रेड यूनियनों और संगठित मजदूरों से हमदर्दी नहीं रखते थे लेकिन वे भी नर्म पड़े और उन्होने केंद्र सरकार से विक्टोरिया मिल का राष्ट्रीयकरण करने की सिफ़ारिश भेज दी.
यह बहुत बड़ी विजय थी. इसके बाद हम लोगों ने कॉ. राम आसरे के नेतृत्व में कानपुर के एक छोर से दूसरे छोर तक एक पदयात्रा निकाली जो 20 किलोमीटर तक चली.
मैंने जेके रेयान वर्कर्स यूनियन में भी काम करना शुरू किया और 1970 मे ही, आईईएल यूरिया खाद्य कारखाने (आईसीआई) में यूनियन बनाने में मेरा भी थोड़ा योगदान रहा. दोनों कारखानों में हड़ताले हुई और मजदूरों ने काफी-कुछ हासिल भी किया.
आईईएल की हड़ताल से पहले अपने साथी अरविंद के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया गया. पहली बार जेल मे अकेले रहना था. हम लोग देर रात अपने-अपने बैरक भेजे गए और, जैसे ही मैं बैरक में पहुंची, दीवार पर महिला गार्ड का विशाल और डरावने आकार वाला साया पड़ा. पर वह काफी अच्छी महिला निकलीं.
उसी साल की तीसरी हड़ताल जेके जूट मिल की थी. पश्चिम बंगाल के जूट के मजदूरों ने 30 रुपये मासिक की बढ़ोतरी हासिल की थी- यह उनके इतिहास में सबसे बड़ी बढ़ोतरी थी!
कानपुर के मजदूरों ने भी प्रेरित होकर समान बढ़ोतरी के लिए हड़ताल कर दी. इस हड़ताल की तैयारी के दौरान मुझे बिहारी मजदूरों के संपर्क मे आने का मौका मिला, जो जूट मिल मे बड़ी संख्या में काम करते और मिल के आस-पास के अहातों में रहते थे. उनके घरों में जाना, चोखा खाना, भोजपुरी की मिठास को जानना, यह सिलसिला सालों तक जारी रहा.
इस बीच मुझे रामरती से मुलाक़ात करने और उससे गहरी मोहब्बत करने का भी मौका मिला. जूट मिल मे काम करने वाली औरतों मे बस वही रह गई थी. मुश्किल से साढ़े चार फुट की रही होंगी. लेकिन तेवर बड़े ज़बरदस्त थे.
हड़ताल के दौरान वह भोर होते ही अपनी कोठरी के सामने फुकनी लेकर खड़ी हो जाती थी. खड़ी-खड़ी, वह ललकारती थी, ‘अगर कोऊ हरामखोर मिल की तरफ जाय की हिम्मत दिखाई तो कचूमर बना देहूं, हां!’
इन हड़तालों के दौरान पुलिस और प्रशासन का जो मैंने पक्षपातपूर्ण ही नहीं बल्कि बिल्कुल एक खेमे की जमकर सुरक्षा करने का रवैया देखा, उसने मेरे लिए वर्गीय दृष्टिकोण और वर्गीय शासन की सच्चाई को प्रमाणित कर दिया.
हड़ताल तोड़क और मैनेजमेंट के गुंडों के रूप मे पुलिस और प्रशासन को काम करने से रोकने का कॉमरेड ज्योति बसु के दंड संकल्प को मैंने नई रोशनी में देखा और सराहा. वर्गीय संतुलन मे उलट-फेर करने वाली उनकी यह नीतियां केंद्र सरकार द्वारा उनकी सरकार का निष्कासन का सबब भी बना.
इस दौर में पाकिस्तान में वह राजनीतिक प्रक्रिया शुरू हुई जिसका अंत बांग्लादेश की स्थापना में हुआ. पूर्वी बंगाल की जनता पर पाकिस्तानी सेना द्वारा ढाए सबको आक्रोशित करने वाले बर्बर दमन के परिणामस्वरूप पश्चिम बंगाल में लाखों लोगों का पलायन हुआ.
कॉ. ज्योति बसु, जो पश्चिम बंगाल मे अब विपक्ष के नेता थे, ने देशभर के डॉक्टरों और स्वास्थकर्मियों से पश्चिम बंगाल आकर इन शरणार्थियों की सेवा करने की अपील की. मेरी मां फौरन तैयार हो गई और बहुत जल्द वह बानगांव के एक शिविर में काम मे जुट गईं.
उनको पार्टी के कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों की निष्ठा ने बहुत प्रभावित किया और जब शिविर का समापन हुआ, तो उन्होने माकपा से जुड़ने का फैसला ले लिया. इसके पहले वह पार्टी नेतृत्व द्वारा कुछ मुद्दे पर अपना नज़रिया स्पष्ट करतीं, वे कॉ. ज्योति बसु से मिली और उनसे उन्होंने सुभाष बोस के प्रति सीपीआई के रवैये के बारे मे बात की.
बिना किसी हिचक के कॉ. ज्योति बसु ने इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि सुभाष बोस की राष्ट्र भक्ति पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है. वे एक बहादुर देशभक्त थे. इसके बाद मेरी मां ने पार्टी की सदस्यता ली, शायद 54 वर्ष की उम्र मे ऐसा करने वाली वह अकेली महिला रही होंगी!
यह पश्चिम बंगाल में ज़बरदस्त राजनीतिक उथल-पुथल का दौर था. कॉ. ज्योति बसु के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चे की सरकार का 1970 में हुए निष्कासन के बाद मार्च 1971 के लोकसभा के चुनाव के साथ विधानसभा के चुनाव करवाए गए.
इस चुनाव में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे को लेकर इंदिरा गांधी ने देशभर में बड़ी सफलता हासिल की लेकिन पश्चिम बंगाल में माकपा ने अपनी स्थिति को सुधारा. विधानसभा में वह सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई और लोकसभा की 20 सीटों पर भी जीती.
चुनाव के दौरान काफी हिंसा हुई और 3 प्रत्याशियों की हत्या भी हुई. कांग्रेस ने अपनी ताकत का इस्तेमाल करके माकपा की राज्य सरकार बनने नहीं दी, लेकिन जिस सरकार को उसने ज़बरदस्ती थोपा, वह कुछ महीनों में गिर गई और राज्य मे राष्ट्रपति शासन लग गया.
इसके चलते माकपा, उसके समर्थकों और ट्रेड यूनियनों पर हमले बहुत बढ़ गए. महिला समर्थकों के साथ तो बर्बर व्यवहार किया गया.
कानपुर में 1971 के चुनाव मे हमारी पार्टी ने भगत सिंह के साथी, कॉमरेड शिव वर्मा जो अंडमान जेल भेजे गए सबसे कम उम्र के कैदी थे (उन्होंने उस कम उम्र में भी कोई माफीनामा अंग्रेजों को नहीं दिया) को खड़ा किया.
मुझे पहली बार चुनावी अनुभव प्राप्त हुआ. हमें केवल 5000 वोट ही मिले. बहुत जल्द केंद्र और राज्य में मजबूती से जमी कांग्रेस ने हम पर अपना हमला शुरू कर दिया.
उस समय हमारे शहर के ही गणेश शंकर बाजपेयी प्रदेश के श्रम मंत्री थे. वह कॉ. राम आसरे के पड़ोसी, परम मित्र और ट्रेड यूनियन में सहयोगी भी रहे लेकिन वर्गीय राजनीति और दृष्टिकोण से ओत-प्रोत उन्होंने अपने आपको ‘यूनियनों का भक्षक’ घोषित किया.
बहुत जल्द, सरकार की मिली-भगत का फायदा उठाते हुए आईईएल, जेके जूट और जेके रेयॉन के प्रशासकों ने तीनों कारखानों मे तालाबंदी कर दी और यूनियन के कई कार्यकर्ताओं पर अनुशासनात्मक कार्यवाहियां भी कीं. सूती मिलों मे भी दंडात्मक कार्यवाहियां होने लगीं.
आईईएल की तालाबंदी 52 दिन तक चली. कारखाना शहर से 18 किलोमीटर दूर था और हम लोगों ने इस दूरी को तय करते हुए न जाने कितने पैदल जुलूस निकाले होंगे!
तालाबंदी के आखिरी दिनों को अपने साथी अरविंद कुमार के साथ हमने दिल्ली में ही बिताया, जहां हम लोगों की श्रम और खाद्य व केमिकल विभागों के केंद्रीय मंत्रियों और आईईएल के उच्च अधिकारियों से कई बार बातचीत हुई.
एक बार जब हम आईईएल के अधिकारियों से बात कर रहे थे तो मैंने उनसे मंत्रियों द्वारा दिएगए किसी आश्वासन का ज़िक्र किया तो उसने अंग्रेजी मे जवाब दिया, ‘वह कुत्ता नहीं नाचेगा!’ (That dog wont dance!) यह था बहुराष्ट्रीय कंपनियों का अहंकारी व्यवहार. तीसरी दुनिया की सरकारों को, इंदिरा गांधी की सरकार को भी वे कुछ नहीं समझते थे!
1971 का साल हमलों को झेलने मे ही गुज़र गया. जुलूस, सभाएं, धरने और सार्वजनिक चंदा-अभियान. अंत में, तालाबंदियां समाप्त हुईं और निकाले गए मजदूरों को धीरे-धीरे काम पर वापस भेजने मे सफलता मिली.
यही मजदूर वर्ग के संघर्षों का सबसे मुश्किल और मार्मिक मुद्दा होता है. इसके तमाम पहलुओं का वर्णन करना मेरे लिए असंभव-सा है. जिस तरह की निष्ठा और बहादुरी के साथ हजारों मजदूर अभाव, हमले और दबाव का सामना करते हैं, अवर्णनीय है.
उनके नेता किस तरह से पुलिस के उत्पीड़न, गिरफ्तारियों और बड़ी रिश्वतों के प्रस्ताव के सामने अडिग खड़े रहते हैं, यह बातें मेरे मस्तिष्क में छपी हुई हैं.
साल 1971 में ही बिजली के मज़दूरों की एक नई यूनियन बनाने में मेरी भागीदारी रही. यह एक राज्यव्यापी यूनियन थी और साथी प्रदीप श्रीवास्तव और हम प्रदेश के तमाम बड़े बिजली घरों के मजदूरों के बीच गए.
वह भी क्या सफर था! हम लोग बस किसी बिजली की कॉलोनी में पहुंच जाते थे और पता नहीं कैसे, कोई हमदर्द या कोई पहचानने वाला मिल जाता था जो हम लोगों को अपने घर रुकवा भी लेता था.
हम दोनों बिजली घर के फाटक पर शिफ्ट छूटने के समय पहुंचते और भाषण देना शुरू कर देते. वह दृश्य ही इतना अजूबा रहा होगा कि लोग रुककर हमारी बातों को सुनते, फिर बैठकर कुछ चर्चा भी हो जाती.
इस तरह हम लोगों ने कई लोगों के नाम और पते बटोर लिए जिनमें से कई बाद में हमारी यूनियन के साथ जुड़े थे. यूनियन की स्थापना के थोड़े ही दिन बाद दूसरी यूनियनों ने अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी.
कानपुर में पुलिस ने हमारे साथी दौलत और हमारा पीछा करना शुरू कर दिया, तो मैंने बुर्का पहनकर छिपने का काम किया. फिर हम दोनों को कानपुर में बिजली घर जाकर हड़ताल करवाने की ज़िम्मेदारी दी गई.
बिजली घर को पुलिस ने घेर रखा था. मैं फाटक के सामने बुर्का ओढ़े, हाथ में एक प्लास्टिक की टोकरी में टिफिन रखे खड़ी थी. जैसे ही फाटक खुला, मैं चाय की दुकान के सामने स्टूल पर खड़ी हो गई और भाषण शुरू! हड़ताल भी हो गई.
मज़दूर नहीं चाहते थे कि हम लोग गिरफ्तार हों, तो उन्होंने हम लोगों को घेर लिया और एक कोठरी मे धकेल दिया. अंधेरा होने के बाद हम दोनों उस बस्ती की तंग गलियों से किसी तरह निकलकर भागे.
फिर पता चला की हड़ताल फैसले के बाद वापस हो गई है तो फिर देर रात की पाली के समय फाटक पर जाना पड़ा और हड़ताल को वापस लेनी पड़ी. उस दिन मुझे ‘सॉलीडैरिटी’ या भाईचारे का मतलब समझ में आया.
उस वर्ष पूरे देश के मजदूर वर्ग पर हो रहे हमलों का एक छोटा-सा हिस्सा ही हमने कानपुर में झेला.
1971 का अंत पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय सेना की ज़बरदस्त जीत के साथ हुआ और बांग्लादेश की आज़ादी की घोषणा हो गई. बहुत ही सनसनीखेज मौका था!
इंदिरा गांधी की ताकत और प्रतिष्ठा चरम पर थी. दुर्भाग्यवश इसका इस्तेमाल उन्होंने जनतांत्रिक संस्थानों को कमजोर करने और विपक्ष पर हमला करने मे लगा दिया. खास तौर से माकपा उनके निशाने पर थी.
1972 में पश्चिम बंगाल में आतंक के राज की शुरुआत हो गई. यह 1975 में आने वाले आपातकाल की झांकी थी.
(सुभाषिनी अली पूर्व सांसद और माकपा की पोलित ब्यूरो सदस्य हैं.)
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