राजस्थान के एक गांव में प्रशासन ने फरमान जारी किया है कि जो भी अपने घर में शौचालय होने का प्रमाण नहीं दे पाएगा, उसे राशन भी नहीं दिया जाएगा.
बीते दिनों एनजीओ इंडिया सैनिटेशन कोएलिशन की अध्यक्ष के बतौर नैनालाल किदवई ने इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में प्रकाशित अपने एक लेख के शुरुआती अंश में स्वच्छ भारत मिशन का एक शानदार लेखा-जोखा प्रस्तुत किया. भारत को स्वच्छ बनाने के लिहाज से स्वच्छ भारत मिशन महत्वपूर्ण समझा जाता है क्योंकि यह मूलतः खुले में शौच करने से रोकने, समाज को ‘खुले में शौच जाने की प्रवृत्ति से मुक्त’ करने, इस प्रवृत्ति के विरोध में खड़े होने के लिए समाज को शिक्षित और शौचालयों के निर्माण का समर्थन करने पर केंद्रित है.
कहा जाता है कि परिणामों पर इतना अधिक बल देने के पीछे ‘ऊपर’ का दबाव है. अधिकार और जवाबदेही की इस नौकरशाही-श्रृंखला में गांव नीचे तक प्रभावित हैं, जहां निगरानी समिति बनाई गई हैं और उन्हें यह सुनिश्चित करना है कि गांव का कोई भी व्यक्ति खुले में शौच न जाए. जिस तरह के ‘एकतरफ़ा जुनून’ से स्वच्छ भारत मिशन संचालित है, उसके बारे में किदवई का नज़रिया बहुत सटीक हो सकता है, लेकिन इस तरह के अभियानों के वास्तविक परिणामों को थोड़ा नज़दीक से देखने की ज़रूरत है.
राजस्थान के राजसमंद जिले के घोडच गांव के बारे में मैंने जो सुना, वही यहां साझा करता हूं. यहां प्रशासन के पास गांव और पूरे जिले को खुले में शौच की प्रवृत्ति से मुक्त करने का स्पष्ट लक्ष्य था.
इस लक्ष्य में वह आंकड़ा शामिल था, जिसके अनुसार गांव के 565 परिवारों के पास शौचालय नहीं थे. ज़ाहिर तौर पर प्रशासन अधिकार संपन्न था, इस हद तक कि ब्लॉक स्तर के अधिकारियों ने राशन की दुकानों पर एक आधिकारिक नोटिस जारी कर दिया कि जिनके पास शौचालय होने के प्रमाणिक दस्तावेज़ न हों, उन परिवारों को अनाज न दिया जाए.
निगरानी समिति में निर्वाचित अधिकारी, सरकारी कर्मचारी और अन्य प्रभावशाली व्यक्ति (संक्षेप में कहें तो सामंती व्यवस्था के सबसे ताक़तवर लोग) शामिल होते हैं, जिनका काम हमेशा से आतंक फैलाने का रहा है. उनका स्पष्ट संदेश रहा कि शौचालयों को हर क़ीमत पर बनाया जाना चाहिए और जो लोग ऐसा नहीं करते हैं उन्हें राशन नहीं मिलेगा. अलावा इसके वे पेंशन जैसे कुछ दूसरे लाभों से भी हाथ धो बैठेंगे.
इस मिशन का लक्ष्य गांव के उन गरीब लोगों के ‘व्यवहार में बदलाव’ लाना है, जो शौचालय बनाने की स्थिति में भी नहीं हैं. वे सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर खड़े लोग हैं. आमतौर पर उनके पास न कोई ज़मीन है, न कोई संपत्ति और न ही कोई बचत. पास के खदानों में अनियमित और जोखिमभरी मेहनत से वे अपने घर के लिए मुट्ठी भर कमाई जुटाते हैं.
अनाज की सार्वजनिक वितरण प्रणाली भूख और भुखमरी के बीच अंतर पैदा करती है. उन्हें बताया गया था कि उनके घरों में सेप्टिक टैंकों का गड्ढा चालू शौचालय की ओर पहला कदम है. भुखमरी के डर से इन परिवारों ने दिहाड़ी मजदूरी को छोड़ दिया, ताकि पथरीली चट्टानों वाले अपने गांव में गड्ढे बनाए जा सकें.
चट्टानों को तोड़ना बहुत मुश्किल साबित हुआ. बहुतों ने आधे में ही तौबा कर ली. कुछ ने जेसीबी मशीन का सहारा लेने की ख़ातिर कर्ज़ लिया. यहां तक कि जिन लोगों ने गड्ढे खोद लिए, उन्हें भी शौचालय बनाने के लिए कम से कम 20,000 से 30,000 रुपये खर्च करने होंगे. किसी को भी पता नहीं कि यह पैसा कहां से आएगा. अगर शौचालय बन भी गए, तो इस गांव में पीने के लिए ही पर्याप्त पानी नहीं है. फिर शौचालय की तो बात छोड़ ही दें.
घोडच अब अध-खुदे गड्ढों से भरा हुआ है. राशन का वितरण अभी जारी है, लेकिन ग्रामीण आतंकित रहते हैं कि उनके जीवन का यह एकमात्र सहारा किसी भी समय रोका जा सकता है. कोई भी नहीं जानता कि अगले क्षण क्या होगा? कि फरमानों की यह अंधी गली कहां जाकर खुलेगी? ऐसे में पड़ोस का रामा गांव सुझाता है कि कैसे इस समस्या को सुलझाया जा सकता है.
ये समझ आ जाने पर कि रामा गांव के 100 घर भी अपने यहां शौचालय बनवाने की स्थिति में नहीं हैं, अपने वरिष्ठों के दबाव में स्थानीय अधिकारियों ने गांव को ‘खुले में शौच से मुक्त’ घोषित कर दिया. इसके लिए बाकायदा 50,000 रुपये ख़र्च करके एक समारोह का आयोजित किया गया, बधाईयों के लेन-देन हुआ.
इसके बाद कड़ा रुख अख्तियार करते हुए उन्होंने गांव के बीचों-बीच यह लिखवाया कि यदि कोई व्यक्ति खुले में शौच करते पकड़ा जाता है, तो उस पर भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं के तहत मुकदमा चलाया जाएगा. रामा गांव ऐसा कोई अकेला उदाहरण नहीं है. स्वच्छ भारत मिशन के नाम पर विभिन्न राज्यों में अपनाए जा रहे ऐसे तरीकों को अख़बार समय-समय पर दर्ज करते रहे हैं.
इसमे कोई शक नहीं कि किदवई व्यक्तिगत तौर पर इन निहायत ही अमानवीय और असंवैधानिक नतीजों के पक्ष में न हों, लेकिन ऐसे ग़लत तथ्य भारतीय समाज की गहरी विषमताओं पर विचार नहीं करने के कारण सामने आते हैं और उन परिस्थितियों का सही ढंग से अनुभव न करने के कारण भी, जो इस समाज के शक्ति संपन्न और शक्तिहीन की स्थिति में एक बड़ा अंतर खड़ा करती हैं.
कमज़ोर वर्ग के पास सत्ता के बेजा दवाबों से ख़ुद को बचा लेने की क्षमता नहीं है. इसीलिए जब सरकार किसी एक ऐसे उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करती है या उसे प्रोत्साहित करती है, जो समाज के सबसे गरीब तबक़े के जीवन में अनाधिकृत रूप से घुसने जैसा होता है, तब एक तरह से ये उन लोगों का उत्पीड़न करने जैसा होता है, जो इसका विरोध करने की क्षमता भी नहीं रखते.
ऐसे माहौल में शक्ति संपन्न लोगों का सिर्फ नेक इरादों से अपने काम में जुटे रहना काफी नहीं है. जहां हम काम करना चाहते हैं, हमें उस समाज में शक्ति या सत्ता के विभाजन और उसके काम करने के तरीके को समझना होगा.
‘राजनीति को इस सबसे दूर रखा जाए’ के इस वर्तमान ट्रेंड के बावजूद इस बात की ज़रूरत है कि काम करने से पहले अपनी राजनीतिक जागरूकता और समझ को फिर से सहेजा जाए. इसके बिना हम अपने संकीर्ण उद्देश्यों और विवेकहीन उदार एजेंडा के गुलाम बने रहने के जोखिम को क़ायम रखे रहेंगे, जो वैसा संसार नहीं बना पाएगा जिसका हम सपना देखते हैं.
लेखक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और राजीव गांधी पंचायती राज संगठन के साथ काम करते हैं.
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें. उपमा ऋचा द्वारा हिंदी में अनूदित.