सत्तर के दशक से आज तक बच्चों के खेलकूद के स्थान में 90 फीसदी गिरावट आई है लेकिन हमारी व्यवस्था बच्चों के इस बुनियादी अधिकार को लेकर असंवेदनशील है.
एक पार्क हमारा प्यारा प्यारा
नन्हे मुन्ने बच्चों का एकमात्र सहारा
खेले कूदें नाचें झूमें हम
मस्ती में गाएं तर रम पम पम….
– नव्या, उम्र 7 वर्ष
प्रधानमंत्री कार्यालय को आनेवाली चिट्ठियों में शायद यह पहली दफा हुआ होगा कि अपने पत्र के साथ उन्हें किसी बच्ची द्वारा लिखी कविता पढ़ने को मिली होगी. और यह पत्र मोदी अंकल को इस बात के लिए लिखा गया था कि वह उस छोटी बच्ची के घर के पास स्थित पार्क को बचा दें जो तमाम बच्चों की ‘प्रिय जगह’ है.
सात साल की नव्या, जो दिल्ली के उत्तरी पश्चिमी इलाके रोहिणी की निवासी है, वह अपनी इसी अनोखी मांग के लिए मीडिया की सुर्खियों में आयी है. पिछले सप्ताह ही ख़बर आई कि नव्या ने दिल्ली की उच्च अदालत में अपने वकील पिता के मार्फत याचिका दायर करवायी है कि उसके घर के पास स्थित पार्क में कम्युनिटी हाॅल के निर्माण को रोका जाए ताकि उसके जैसे सैकड़ों बच्चे वहां खेलकूद जारी रख सकें.
याचिका में लिखा गया था कि किस तरह पहले वहां एक मंदिर बना, जिसने ढेर सारी जगह धीरे-धीरे घेर ली. फिर एक मोबाइल टाॅवर खड़ा कर दिया गया, फिर दिल्ली सरकार ने एक जिम लगवाया और अब तो बाकी बची-खुची जगह पर डीडीए की योजना के तहत कम्युनिटी हाॅल बनने जा रहा है.
और अब आलम यह बना है कि पिछले लगभग दो माह से वहां किसी को घुसने भी नहीं दिया जा रहा है ताकि निर्माण सुचारू रूप से चल सके.
दिल्ली की उच्च अदालत ने नव्या की याचिका पर हस्तक्षेप करते हुए डीडीए को यह आदेश दिया कि वह तत्काल निर्माण रोक दे तथा अगली सुनवाई की तारीख 18 सितंबर तय कर दी है.
अदालत ने डीडीए को झाड़ लगाते हुए कहा कि ‘वह किसी पार्क को निर्माण स्थल में यूं ही तब्दील नहीं कर सकते हैं. आप करदाताओं के पैसों से खिलवाड़ कर रहे हैं.’
समाचार के मुताबिक अभी आलम यह है कि दिल्ली मे 18 हजार पार्क हैं, मगर मुश्किल से पांच सौ पार्कों में बच्चों के लिए झूले, घिसरनपट्टी जैसी चीजें मौजूद हैं.
फिलवक्त़ यह कहा नहीं जा सकता कि नव्या की इस याचिका को लेकर अन्तिम निर्णय क्या होगा, क्या फैसला बच्चों के हक में हो सकेगा, मगर पार्क के ऐसे रूपांतरण को अब अपवाद नहीं कहा जा सकता!
लगभग दो साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने खुद पार्कों में बच्चों के खेलने के अधिकार की हिमायत करते हुए निर्देश दिए थे, मगर उसने बाद में पाया कि जमीनी स्तर पर कुछ भी हुआ नहीं है.
यहां यह बताना समीचीन होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कुरियन जोसेफ ने दिल्ली उच्च अदालत को यहां के पार्कों की दयनीय स्थिति के बारे में लिखा था, उसी पत्र को उच्च न्यायालय ने जनहित याचिका में तब्दील कर अपना फैसला सुनाया था.
उसने अदालत के मित्र के तौर पर भी एक वरिष्ठ अधिवक्ता को नियुक्त किया, जिसने कई पार्कों का दौरा कर बताया कि यहां की सुविधाएं इतनी बुरी हालत में हैं गोया ‘मौत का शिकंजा’ हो, झूले टूटे पड़े हैं, निर्माण सामग्री बिखरी पड़ी हैं, कई स्थानों पर पानी भरा है.
दिसंबर 2016 में शिवपुरी, मध्यप्रदेश से आई एक ख़बर को लेकर देश भर में बाल अधिकारों के लिए सक्रिय लोगों में जबरदस्त आक्रोश की स्थिति बनी थी, वहां पर भी मसला खेलकूद के स्थानों की मांग का था.
पता चला कि वहां लगभग पचास बच्चों को (जिनमें अधिकतर अल्पवयस्क थे) तीन घंटे से अधिक समय तक पुलिस हिरासत में रखा गया क्योंकि वह खेलकूद के मैदान की मांग कर रहे थे.
कहा गया था कि यह समूचा प्रसंग बाल अधिकारों की रक्षा के लिए राज्य में बने आयोग के अग्रणी के सामने हुआ, जब बच्चों ने कलेक्टर द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में इस सिलसिले में अपनी आवाज़ बुलंद की.
गौरतलब था कि इन बच्चों को (जिनमें पांच लड़कियां भी शामिल थीं) एक ही साथ पुलिस वैन में ठूंसा गया, जबकि वहां कोई महिला पुलिस कर्मी भी मौजूद नहीं थी. अब जबकि यह ख़बर राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बनी हैं, तो संबंधित अधिकारियों की तरफ से कथित तौर पर लीपापोती जारी है, जबकि इन बच्चों ने उनके साथ हुई इस ज्यादती को लेकर बाल अधिकार संरक्षण के लिए बने राष्ट्रीय आयोग तथा केंद्रीय स्तर पर अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के यहां गुहार लगायी गई.
शिवपुरी की तर्ज पर दो साल पहले मुंबई से बच्चों से पार्क को छीनने की एक ख़बर पर तो कहीं चर्चा भी नहीं हुई. सब कुछ इतना आनन फानन हुआ कि बांद्रा के अलमीडा पार्क के बच्चों के खेलने के एरिया में जब शाम को बच्चे पहुंचे तो उन्हें इस बात का पता चला कि वहां मोबाइल टाॅवर लगाया जा रहा है.
निवासियों ने बच्चों की शारीरिक सुरक्षा तथा मोबाइल टॉवर के रेडिएशन के खतरनाक परिणामों को रेखांकित करते हुए इस पर आपत्ति दर्ज करानी चाही, मगर उन्हें महानगरपालिका के इंजीनियरों ने बताया कि उपरोक्त समूह को सभी किस्म की मंजूरी मिल चुकी है.
समाचार के मुताबिक ‘शहर के म्युनिसिपल कार्पोरेशन के मुताबिक उपनगरीय मुंबई में लगभग 20 पार्कों एवं खेल के मैदानों में मोबाइल टावर्स लगाए’ जाने वाले थे, जो सभी एक ही प्राइवेट कंपनी के होने वाले थे.
राजधानी दिल्ली हो, औद्योगिक राजधानी मुंबई हो या शिवपुरी हो, बच्चों से उनकी खेल की जगहें छीनने का सिलसिला अनवरत जारी है, भले ही देश के कर्णधार आए दिन बच्चों के अधिकारों की दुहाई देते फिरें.
पिछले दिनों अपने एक महत्वपूर्ण आलेख में बाल अधिकारों के लिए प्रयासरत कार्यकर्ता किशोर झा ने (नो चाईल्डस प्ले, इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल वीकली, 16 जनवरी 2016) संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा बच्चों के खेलने के अधिकार को दी गयी मान्यता और वास्तविक स्थिति में बढ़ते अंतराल की ओर इशारा करते हुए लिखा कि जहां 1959 में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने बच्चों के अधिकारों पर अपना घोषणापत्र जारी करते हुए उसमें खेलने के अधिकार को रेखांकित किया, वर्ष 1989 में उसे अधिक मजबूती दी गयी जब कन्वेन्शन आॅन द राइट्स आॅफ द चाइल्ड पारित हुआ, जिसकी धारा 31 बच्चों के मनोरंजन, खेलने, आराम करने आदि अधिकारों पर जोर दिया गया और किस तरह प्रस्तुत कन्वेन्शन पर दस्तखत करने के नाते यह राज्य की कानूनी जिम्मेदारी भी बनती है कि वह इसका इन्तजाम करे, मगर न राज्य इसके प्रति गंभीर दिखता है, न हमारे यहां खेलने की संस्क्रति को बढ़ावा दिया जा रहा है और किस तरह रेजिडेन्टस वेलफेयर एसोसिएशनें भी अपने अपार्टमेंटों या रिहायशी इलाकों में चारों तरफ गेट लगा कर बच्चों को उनके इस अधिकार से वंचित कर रही हैं.
बच्चों के लिए खाली स्थानों की अनुपलब्धता (जहां वह खेलकूद सकें, सूरज की रौशनी में टहल सकें, प्राकृतिक हवाओं से रूबरू हो सकें) उनके स्वास्थ्य पर किस तरह गहरा असर कर सकती है, इसे जानना हों तो हम ब्रिटेन के चीफ मेडिकल आॅफिसर द्वारा तैयार एक रिपोर्ट को देख सकते हैं, जो लंदन से निकलने वाले प्रतिष्ठित अख़बार गार्डियन में (25 अक्तूबर 2013) को प्रकाशित हुई थी जिसमें बताया गया था कि किस तरह वहां सूखा/सुखंडी अर्थात रिकेटस की बीमारी, जिसे 19 वीं सदी की निशानी समझा जाता था, उसने वापसी की है.
रिपोर्ट में बताया गया था कि सर्वेक्षण किए गए इलाकों में 25 फीसदी (या उससे भी अधिक) बच्चों में विटामिन डी की कमी पाई गई. अब इस समस्या के समाधान के लिए उसने पांच साल से कम बच्चों के लिए विटामिन को मुफ्त में उपलब्ध करने के लिए कहा.
स्वास्थ्य की बुनियादी जानकारी रखने वाला बता सकता है कि विटामिन डी धूप में खेलने या घूमने-फिरने से शरीर में तैयार होता है, वही स्थिति संभव नहीं हो पा रही है.
अपने आलेख ‘चिल्डेन इन आॅवर टाउन्स एंड सिटीज आर बिंग राब्ड आॅफ सेफ प्लेसेस टू प्ले’ जार्ज मानबियाट (गार्डियन, 5 जनवरी 2015) बताते हैं कि किस तरह ‘आज का बचपन अपनी साझी जगहों को खो रहा है.’
किस तरह सत्तर के दशक से आज तक ऐसे स्थानों में 90 फीसदी गिरावट आयी है, जहां बच्चे किन्हीं वयस्क के बिना भी घुम सकते हैं. उनके मुताबिक ‘सरकारी मास्टरप्लान में, बच्चों का उल्लेख महज दो बार हुआ है, वह भी आवास की श्रेणियों के सन्दर्भ में.
संसद द्वारा इन योजनाओं की समीक्षा में, उनका कहीं कोई उल्लेख तक नहीं है. युवा लोग, जिनके इर्द गिर्द हमारी जिंदगियां घूमती हैं, उन्हें नियोजन की प्रणाली से गायब कर दिया गया है.
मगर क्या खेलकूद के मैदानों पर कब्जा महज कॉरपोरेट मालिकानों या सरकारी नीतियों की अदूरदर्शिता का नतीजा है? निश्चित ही नहीं!
अब शहरों-महानगरों में कारों की बढ़ती संख्या के चलते आसपास के पार्कों की दीवारों को ‘आपसी सहमति’ से तोड़ उसे पार्किंग स्पेस में तब्दील करने की मिसालें आए दिन मिलती हैं.
और महज कारें नहीं लोगों की श्रद्धा का दोहन करते हुए खाली जगहों पर प्रार्थनास्थल निर्माण करने का सिलसिला इधर बीच कुछ ज्यादा ही तेज होता दिखता है.
एक मोटे अनुमान के हिसाब से पार्किंग के चलते शहर की लगभग दस फीसदी भूमि इस्तेमाल हो रही है, जबकि राजधानी का वनक्षेत्र बमुश्किल 11 फीसदी है. (हिन्दुस्तान टाईम्स, दिल्ली: कारस एवरीवेअर जस्ट नो प्लेस टू पार्क, 22 अगस्त 2014) राजधानी दिल्ली के जिस इलाके में प्रस्तुत लेखक रहता है वहां कम से कम 20 से अधिक स्थानों से वाकिफ हैं जहां पार्कों को पार्किंग स्पेस में या प्रार्थनास्थलों के निर्माण में न्यौछावर कर दिया है, अब इलाके के बच्चे खेलने के लिए कहां जाएं, यह सरोकार किसी का नहीं है.
जहां कार्यपालिका एवं विधायिका बच्चों के खेलने के अधिकार को लेकर लापरवाह दिखती है, वहीं न्यायपालिका इस मामले में ‘ज़मीर की आवाज़’ अर्थात कान्शन्स कीपर के तौर पर उभरती दिख रही है.
अभी पिछले साल की बात है जब मद्रास की उच्च अदालत ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में खेलकूद के लिए इस्तेमाल मैदानों के बढ़ते व्यावसायिक इस्तेमाल पर अंकुश लगाते हुए कहा कि कार्पोरेशन के इन मैदानों में अगर आप को कोई अन्य साप्ताहिक गतिविधि का आयोजन करना है तो उसके लिए नियम बनाने होंगे और यह सुनिश्चित करना होगा कि खेल की गतिविधियों पर इसका असर न पड़े.
दरअसल अदालत अशोक नगर के वाॅली क्लब द्वारा डाली गयी जनहित याचिका पर अपना आदेश दे रही थी, जिसमें उसने एक इवेंट मैनेजमेंट ग्रुप द्वारा इस मैदान में आयोजित स्ट्रीट फूड फेस्टिवल के आयोजन पर आपत्ति जतायी थी.
याचिका में इस बात को रेखांकित किया गया था कि ऐसी गैरखेलकूदवाली गतिविधियों को बढ़ावा दिया गया तो यह गलत नज़ीर बन सकता है. (टाईम्स आफ इंडिया, मार्च 3, 2016, डोण्ट अलाउ …) मद्रास हाईकोर्ट के इस निर्णय को इस मामले में ऐतिहासिक कहा गया था क्योंकि उसने पूरे देश में खेलकूद के मैदानों के तेजी से विलुप्त होने की परिघटना को रेखांकित किया था.
वैसे दुनिया में इक्का दुक्का ऐसी मिसालें भी सामने आ रही हैं जब बच्चे एवं बड़ों ने मिल कर उनके खेलने के मैदान के रातों रात बड़ी थैलीशाहों के हाथों सौंपे जाने को लेकर सफल प्रतिरोध किया. दो साल पहले कीनिया की राजधानी नैरोबी के ‘लंगाटा प्रायमरी स्कूल’ के बच्चों द्वारा अपने स्कूल के मैदान पर कब्जे के ख़िलाफ़ चला शान्तिपूर्ण प्रदर्शन राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियों में रहा.
मालूम हो क्रिसमस की छुट्टियों के बाद स्कूल पहुंचे बच्चों ने पाया कि किस तरह उनके स्कूल के मैदान को घेर लिया गया है, अस्थायी दीवार बना दी गयी है और वहां सुरक्षाकर्मी भी तैनात किए गए हैं.
अनौपचारिक सूत्रों से उन्हें पता चला कि कीनिया के एक दबंग राजनेता के पास स्थित होटल की पार्किंग के लिए बच्चों के इस मैदान का अधिग्रहण किया गया है.
फिर कुछ वरिष्ठ छात्रा एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के सहयोग-समर्थन से उन्होंने एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन की योजना बनाई. मगर उन्हें शायद यह अन्दाज़ा नहीं था कि जिन पुलिस अंकल एवं सेना के जवानों के बारे में उनकी पाठ्य पुस्तकों में अच्छी-अच्छी बातें लिखी रहती हैं, वह जंगली भेड़ियों की तरह उन पर टूट पड़ेगे, लाठियां चलाएंगे, आंसू गैस के गोले भी छोड़ेंगे.
मामला इतनी सुर्खियों में पहुंचा कि राताोंरात कीनिया के राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करके इस अधिग्रहण को वापस लेना पड़ा और अपने विशेष प्रतिनिधि के तौर पर अपने सीनियर मंत्री को वहां भेजना पड़ा. बहरहाल, खेलने के अपने अधिकार को लेकर कीनिया के बच्चों ने कायम की नज़ीर भारत जैसे विकासशील मुल्क के लिए भी बहुत अहमियत रखती है, यह बताना जरूरी नहीं है.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक हैं)