कोई भी राजनीतिक दल जाति व्यवस्था के अंत का बीड़ा नहीं उठाना चाहता है, न ही कोई सामाजिक आंदोलन इस दिशा में अग्रसर है. बल्कि, जाति आधारित संघों का विस्तार तेज़ी से हो रहा है. यह राष्ट्र एवं समाज के लिए एक घातक संकेत है.
इस सप्ताह पूरे भारत में बाबा साहेब डॉ.क्टर भीमराव आंबेडकर की 130वीं जयंती मनाई गई. डॉ.क्टर आंबेडकर को मरणोपरांत, 31 मार्च 1990 में भारत रत्न से नवाजा गया था. हाल ही में पश्चिम कनाडा की ब्रिटिश कोलंबिया प्रोविंस की सरकार ने बाबा साहेब के जन्मदिवस को विश्व समानता दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया है.
बाबा साहेब ने इस देश और दुनिया को अमूल्य योगदान दिया है. उन्होंने दुनिया में समतामूलक समाज, सामाजिक न्याय और वंचित वर्ग के उत्थान की वकालत की थी. आज हर राजनीतिक दल एवं भिन्न-भिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक मंच उनके योगदान को रेखांकित कर रहे हैं.
बाबा साहेब की प्रतिभा एवं प्रभावशीलता एक विषय तक सीमित नहीं थी बल्कि वे अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, मानव शास्त्र, राजनीति विज्ञान, एवं कानून के क्षेत्र में उच्च कोटि के विद्वान थे. उन्होंने अपने ज्ञान एवं प्रतिभा से ना केवल समाज के वंचित और शोषित तबके का उत्थान किया, बल्कि पूरे भारत को दुनिया में एक नई पहचान दिलाने में अतुल्य सहयोग किया है.
उनके ज्ञान के अथाह सागर की बदौलत आज हम दुनिया में सबसे बड़े संवैधानिक लोकतंत्र के रूप में स्थापित हो पाए हैं. डॉ.क्टर आंबेडकर का मानना था कि टबुद्धि का विकास ही मनुष्य का अंतिम ध्येय होना चाहिए.ट उनके जीवनकाल में बहुत कम लोग इस बात का असली निहितार्थ समझ पाए थे.
हालांकि, आज भी बहुत कम लोग बाबा साहेब की बातों को समझ पाते हैं, पालन करना एवं आत्मसात करना तो बहुत दूर की बात है.
वर्तमान समय में हर दूसरा व्यक्ति, सामाजिक संगठन, एवं राजनीतिक दल आंबेडकर के बौद्धिक पहलू को, उनके सामाजिक एवं राजनीतिक दृष्टिकोण को, और उनकी सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवाज को अपने-अपने दायरे से हमारे बीच पेश कर रहे हैं.
उदाहरण के लिए, कुछ वर्ष पूर्व तक भारत के राजनीतिक कैनवास पर आंबेडकर का जिक्र कम होता था. परंतु, अब भारतीय जनता पार्टी एवं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आंबेडकर के जिन विचारों पर बल देता है, उससे आंबेडकरवादी असहमति रखते हैं.
परंपरागत आंबेडकरवादियों एवं क्रांतिकारी आंबेडकरवादियों में भी आपसी मतभेद उभरकर सामने आ रहे हैं. बसपा सुप्रीमो मायावती एवं भीम सेना प्रमुख चंद्रशेखर ‘रावण’ के बीच उभरे मतभेद एक मिशाल है.
संक्षिप्त में, आंबेडकर की लेखनी एवं जीवनी ने अप्रतिम ऊंचाइयों को प्राप्त किया है, जिसको संकीर्ण दायरों एवं जातिवादी सोच से नहीं समझा जा सकता है.
वर्तमान काल में, देश कई प्रकार की अस्थिरता, अराजकता, तनाव, एवं बदलाव को झेल रहा है. इस परिप्रेक्ष्य में आंबेडकर के विचारों की सार्थकता एवं प्रासंगिकता और ज्यादा बढ़ जाती है. चाहे वह सामाजिक आंदोलनकारियों को आंदोलनजीवी की उपमा की बात हो, नक्सलवाद की बढ़ती ताकत हो, समाज में बढ़ती असमानता एवं असंतोष हो, या, फिर जाति आधारित व्यवस्था की गहराती जड़े हो.
इन तमाम समस्याओं का समाधान बाबा साहेब की लेखनी एवं जीवनी में झलकता है. हमें सिर्फ उसे समझकर समाज में फैलाने एवं राज्य नीति का हिस्सा बनाकर लागू करने की जरूरत है, जिससे भारत की अखंडता एवं सुरक्षा को मजबूती मिलेगी.
उदाहरणार्थ, वर्ष 1934 35 में आंबेडकर ने लिखा कि ‘जिन धार्मिक धारणा पर जाति व्यवस्था बनी हुई है, उनको तोड़े बिना, जाति व्यवस्था का अंत असंभव है.’
दरअसल, जात-पात-तोड़क मंडल ने अपने वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए 1936 में डॉ. आंबेडकर को मुंबई से लाहौर आमंत्रित किया था.
जात-पात-तोड़क मंडल एक हिंदू सामाजिक सुधार आंदोलन का मंच था. काफी मान-मनुहार के बाद बाबा साहेब इस भाषण को देने के लिए सहमत हुए थे. क्योंकि बाबा साहेब की सामाजिक सुधार की विचारधारा एवं जात-पात- तोड़क मंडल की कार्यशैली में बहुत भिन्नता थी.
उन्होंने बाबा साहेब के भाषण के प्रारूप की प्रतिलिपि पहले ही प्राप्त कर ली थी. फलस्वरूप, जात-पात-तोड़क मंडल के कुछ आयोजक सदस्य इस भाषण में मंडल के विचार एवं परिस्थितियों के अनुरूप कुछ कटौती चाह रहे थे. पर डॉ. आंबेडकर कुछ भी कटौती करने के लिए सहमत नहीं हुए.
नतीजन, उस वार्षिक अधिवेशन के सम्मेलन को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया था. क्योंकि आंबेडकर ने इस भाषण की विषयवस्तु में कटौती एवं समझौते के बजाय भाषण नहीं देना उचित समझा था.
इस वाक्यांश के लगभग 85 वर्ष बाद भी उसकी सार्थकता कम नहीं हुई है. डॉ. आंबेडकर ने इस भाषण को ‘द अनहिलेशन ऑफ कास्ट’ (जाति का सर्वनाश) लेख के रूप में प्रकाशित किया है. इसमें लिखी बातों को जीवन में अपनाना एवं समाज में फैलाना उनके प्रति सच्ची श्रद्धा एवं देशभक्ति होगी.
उन्होंने लिखा -सामाजिक सुधारों के अभाव में राजनीतिक एवं आर्थिक सुधार अप्रभावी, अधूरे एवं अर्थहीन होंगे क्योंकि, राजनीतिक एवं आर्थिक व्यवस्था का आधारभूत ढांचा सामाजिक व्यवस्था पर टिका हुआ है. इसलिए उनके अनुसार हिंदू सामाजिक व्यवस्था में जाति केवल कार्यों के विभाजन की व्यवस्था नहीं है, बल्कि कार्मिकों का विभाजन करती है.
अत: जाति व्यवस्था भारत में समता आधारित समाज की स्थापना एवं सख्त राष्ट्र के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है.
जाति व्यवस्था की आत्मा मूलभूत रूप से असामाजिक है क्योंकि यह समाज के वंचित वर्ग के उत्थान को बाधित करती है एवं समावेशी सोच को पनपने नहीं देती है. उच्च जातियों ने सांस्कृतिक माध्यमों से वंचित वर्ग के विरुद्ध षड्यंत्र रचा है, जैसे कि जातिवादी सोच के कारण हिंदू सामाजिक व्यवस्था में परस्पर सहयोग, विश्वास एवं हम की भावनाओं का हरण किया गया है. इस प्रकार जाति व्यवस्था ने जन भावना, जनमत एवं जन स्पष्टता का ह्वास किया है.
अत: जाति व्यवस्था सभी प्रकार के सुधारों, देश में राष्ट्रवाद की स्थापना, एवं सामाजिक एकीकरण को रोकने वाला हथियार है. इसलिए, वे चाहते थे कि स्वतंत्र, समतामूलक एवं बंधुता पर आधारित समाज के निर्माण हेतु जाति व्यवस्था का अंत होना अति आवश्यक है.
परंतु, दुर्भाग्यवश आजादी के 75 वर्ष बाद भी देश में जातिवाद का जहर बढ़ता जा रहा है. यह जहर बाबा साहेब के सपनों के भारत को मूर्त रूप देने में बड़ी बाधा है.
हम देख रहे हैं कि आज अलग-अलग जातीय समूह एवं संघ गली-गली में पनप रहे हैं. साथ ही कुछ तथाकथित आंबेडकरवादी, बाबा साहेब को एक जाति विशेष का बनाने में लगे हुए हैं.
दूसरी तरफ, कुछ संकीर्ण मानसिकता के लोग बाबा साहेब की पहचान को एक विशेष दायरे तक ही सीमित रखने की कोशिश कर रहे हैं. डॉ. आंबेडकर ने इस मनुवादी सोच एवं जाति संघों को जातिवादी व्यवस्था का पोषक बताया है.
हमें इन जातीय समूह से ऊपर उठकर नई परंपराओं को विकसित करना होगा, जिससे ही सामाजिक न्याय की ओर आगे बढ़ा जा सकता है. परंतु, वर्तमान परिस्थितियां दर्शाती हैं कि हम आंबेडकर के सपनों को हासिल करने में असफल रहे है.
कोई भी राजनीतिक दल जाति व्यवस्था के अंत का बीड़ा नहीं उठाना चाहता है. न ही कोई सामाजिक आंदोलन इस दिशा में अग्रसर है. बल्कि, जाति आधारित संघों का विस्तार तेजी से हो रहा है. यह एक घातक संकेत है- राष्ट्र एवं समाज के लिए.
हमें आगे आकर देश हित में बाबा साहेब के सपनों को साकार करने के लिए जातिवादी व्यवस्था के अंत की मुहिम को अंजाम तक पहुंचाना होगा.
(लेखक राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)