नया सामाजिक सुरक्षा क़ानून मज़दूरों के हक़ में कितना हितकारी होगा

सितंबर 2020 में भारत सरकार द्वारा मज़दूरों के हित का दावा करते हुए लाए गए सामाजिक सुरक्षा क़ानून में असंगठित मज़दूरों के लिए बहुत कुछ नहीं है, जबकि देश के कार्यबल में उनकी 91 प्रतिशत भागीदारी है.

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(फोटो: पीटीआई)

सितंबर 2020 में भारत सरकार द्वारा मज़दूरों के हित का दावा करते हुए लाए गए सामाजिक सुरक्षा क़ानून में असंगठित मज़दूरों के लिए बहुत कुछ नहीं है, जबकि देश के कार्यबल में उनकी 91 प्रतिशत भागीदारी है.

(फोटो: पीटीआई)
(फोटो: पीटीआई)

भारत सरकार ने सितंबर 2020 में लोकसभा में एक कानून पारित किया, जो उन चार कानूनों में से एक है जो मजदूरों के हित में होना चाहिए. वो होगा या नहीं, ये अलग बात है जिसका हम विश्लेषण इस लेख में कर रहे हैं.

सामाजिक सुरक्षा कानून 2020 के अतिरिक्त तीन और कानून हैं, जो न्यूनतम मजदूरी, औद्योगिक संबंध और व्यावसायिक स्वास्थ्य और सुरक्षा से संबंधित हैं.

जी-20 देशों में एक हमारा ही देश है, जिसमें 50 करोड़ के मजदूर बल में से 91% प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. ये वह मजदूर हैं जिनके पास किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा की सुविधा नहीं है. जब इस कानून के अधिनियमों को भी राज्य सरकारें मंंज़ूरी दे देंगी, तब इस नए कानून के तहत भारत के बीसवीं शताब्दी के आठ पूर्व पारित कानून रद्द हो जाएंगे और केवल यह नया कानून लागू होगा.

सामाजिक सुरक्षा कानून 2020 का उद्देश्य था कि वह 8 मौजूदा कानूनों को रद्द करके उनके एवज़ में यह एक कानून लागू कर दे. उद्देश्य तो श्रेष्ठ था लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होना चाहिए कि आठ कानूनों को बिना सोचे-समझे नए पन्नों पर पुराने खंडों को चिपका दिया जाए. लेकिन दुखद बात यह है कि असल में यही हुआ है.

दस से अधिक अध्याय का कानून में आप पाएंगे केवल दो अध्याय दो असंगठित क्षेत्र के मज़दूर के संबंध में हैं, जबकि देश में 91 फीसदी असंगठित मज़दूर हैं.

गनीमत है कि निर्माण क्षेत्र के मजदूरों पर एक पूर्ण अध्याय है, जिस पर हम अगले लेख में चर्चा करेंगे.

इस कानून के संग दूसरी कठिनाई यह है कि जिन पूर्व कानूनों को यह कानून एकत्रित करता है, वह अधिकतर संगठित क्षेत्र के मज़दूरों के बारे में थे. अर्थ यह हुआ कि पहले से ही जिस तरह कानूनों में असंगठित क्षेत्र को लेकर अवहेलना की प्रवृत्ति थी, उस स्थिति में कोई अंतर नहीं आया.

तीसरा मुद्दा यह है कि अधिकतर अभी तक राज्य सरकार ही श्रमिकों के लिए सामाजिक सुरक्षा के कार्यक्रम बनाती रही हैं, केंद्र नहीं. लेकिन इस कानून के मुताबिक केंद्र सरकार ही कार्यक्रमों का सुनियोजन करेंगी. तो ज़ाहिर-सा प्रश्न उठता है कि अब तक के राज्य द्वारा संचालित और वित्त-पोषित कार्यक्रमों का क्या होगा?

प्रश्न यह भी उठेगा कि नए कार्यक्रमों को कौन कार्यान्वित करेगा: राज्य अथवा केंद्र प्रशासन? यह बात सामाजिक सुरक्षा नियमों में स्पष्ट नहीं है की लागू करने का अधिकार किसकी ज़िम्मेदारी होगा.

मज़दूर के नज़रिये से देखें, तो स्पष्ट है कि उसको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कार्यक्रम केंद्र या राज्य सरकार द्वारा चालित है. लेकिन सामाजिक सुरक्षा कानून के नियमों के मुताबिक योजना चलाएगा कौन, यही साफ नहीं है.

चौथा प्रश्न यह है कि आज भी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के बाबत केंद्र चालित कई कार्यक्रम चल रहे हैं. जैसे डोलोमाइट खानों में काम करने वाले मजदूर, माइका खानों में काम करने वाले मजदूर, फिल्मों में काम करने वाले, बीड़ी बनाने वाले मजदूर, इनके लिए अलग-अलग कल्याण निधि की व्यवस्था कई दशकों से है, जिसका जिम्मा केंद्र सरकार का है.

लेकिन इंश्योरेंस अथवा सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का एक मूल सिद्धांत होता है जोखिम का एकत्रीकरण (रिस्क पूलिंग), जो सफल सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था की नींव होता है. इस प्रकार के पूलिंग के साथ बीमाकृत व्यक्तियों द्वारा दी हुई धनराशि या निधि का भी एकत्रीकरण हो जाता है, जिससे एक सुदृढ़ सुरक्षा व्यवस्था का निर्माण हो सकता है.

इस संबंध में यह समझना आवश्यक है कि अलग-अलग मजदूर वर्गों के लिए जो केंद्र सरकार चालित कल्याण कोशों का निर्माण हुआ तथा वह आज भी बरक़रार है. लेकिन विडंबना यह है कि उन निधियों की कोई चर्चा नए सामाजिक सुरक्षा कानून में नहीं की गई है.

इस का अर्थ यह निकलता है कि यह खंडित तरीके की सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था आगे भी चलती रहेगी. जबकि इस प्रकार की व्यवस्था सामाजिक सुरक्षा सिद्धांतों के एकदम विपरीत है.

अधिकतर जो सेस आधारित फंड्स बनाये गए थे, वे वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) के लागू होते ही समाप्त हो गए थे, लेकिन जो कल्याणकारी योजना थी वो छोटे स्तर पर अब भी है. हालांकि उनके व्यय की जिम्मेदारी अब राज्य सरकार पर है.

अब सेस नहीं एकत्रित किया जाता. बीड़ी मजदूरों के लिए भी कल्याण स्कीम जारी है पर छोटे स्तर पर ही. आश्चर्य की बात यह है कि नवीन सामाजिक सुरक्षा कानून के अधीन यह सारे कार्यक्रम नहीं आते है, जिसका अभिप्राय यह है कि सामाजिक सुरक्षा कानून ने कोई भारी परिवर्तन लाने की उम्मीदों और आकांक्षाओं पर पानी फेर दिया है.

(संतोष मेहरोत्रा अर्थशास्त्री हैं, जो जेएनयू में  प्रोफेसर, योजना आयोग के वरिष्ठ नीति निर्णायक और राष्ट्रीय श्रम अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक रह चुके हैं.)