यदि चीन के सामने पूर्ण समर्पण को रोकना है, तो सबसे पहले भारत को एक मज़बूत औद्योगिक नीति लानी होगी.
व्यापार के शास्त्रीय सिद्धांत यह मानते हैं कि देशों को ऐसे उत्पादों के निर्माण में विशेषज्ञता हासिल करनी चाहिए, जिनमें उन्हें तुलनात्मक (लागत) लाभ हो और मांग को पूरा करने, खपत और कल्याण में सुधार के लिए अन्य उत्पादों की खरीद करना चाहिए.
इस प्रकार, यदि एक देश में कपड़े के उत्पादन में अधिक निपुणता है जबकि दूसरे में शराब (डेविड रिकार्डो के मुताबिक) है, तो दोनों को विशेषज्ञ होना चाहिए और दोनों को अपने माल का आदान-प्रदान करना चाहिए. भारत-चीन व्यापार कम से कम एक दशक से इस तरह विकसित हुआ है.
हालांकि, इसे दूसरे तरीके से देखें: कपड़ा बनाने वाले देश में कपड़ा इंजीनियरिंग के अलावा मैकेनिकल इंजीनियरिंग में भी क्षमता होगी, जिसे वह अन्य उत्पादों के उत्पादन के लिए समय के साथ सुधार सकता है, जबकि शराब बनाने वाला एक डेड-एंड के साथ फंस गया है.
इसी प्रकार चीन मैन्युफैक्चरिंग में आगे निकल गया है और रिवर्स इंजीनियरिंग के साथ उसने मैन्युफैक्चरिंग में अपनी ‘गहराई’ बढ़ा दी है. इसके विपरीत, भारत विभिन्न निम्न-स्तरीय सेवाओं के साथ फंसा हुआ है, जिनमें प्रतिस्पर्धी मजदूरी के आधार पर भारत निर्यात कर रहा था, परंतु जिसका दायरा तेजी से घट रहा है.
इस बीच, भारत ने निर्माण के क्षेत्र में क्षमताओं को खोना शुरू कर दिया है. यहां तक कि उन इलाकों में भी जहां अभी भी इसकी मौजूदगी है, चीन पर इसकी निर्भरता ज्यादा है.
उदाहरण देखें, (सक्रिय अवयवों के लिए 68 प्रतिशत निर्भरता) और ऑटो उद्योग (इलेक्ट्रिकल इलेक्ट्रॉनिक्स, ईंधन इंजेक्शन के लिए 15-20 प्रतिशत निर्भरता) दो उदाहरण हैं. सूची लंबी है- सौर पैनल, धातु के बर्तन और औद्योगिक मशीनरी और पुर्जे.
इसके बाद, मोबाइल फोन और टीवी जैसे उपभोक्ता उत्पादों और यहां तक कि फर्नीचर, बर्तन, खिलौने, पतंग, अगरबत्ती जैसे सस्ते उत्पादों में विनिर्माण में कौशल खोने के बाद, यहां तक कि हिंदू नववर्ष, त्योहार, दिवाली पर पूजा की जाने वाली मूर्तियों तक, जहां चीनी कंपनियों का प्रभुत्व कुल मिलाकर बहुत महत्वपूर्ण है.
दोनों देशों के बीच 50 अरब डॉलर से अधिक का वार्षिक व्यापार घाटा एक से अधिक कारणों से अब आगे चल नहीं सकता. सबसे पहले, अधिकांश भारतीय निर्यात मुख्य रूप से कच्चे माल या उस शैली (कम तकनीक और कम रोजगार, जैसे अयस्क, दुर्लभ मिट्टी, रसायन) में होते हैं, जबकि आयात होने वाले उत्पाद विनिर्माण (उच्च तकनीक) में होते हैं.
इस तरह के व्यापार पैटर्न के परिणामस्वरूप समय पर व्यापार की असमान शर्तें होती हैं. (‘मैं आपके उत्पादों के बिना काम कर सकता हूं लेकिन आप मेरे बिना नहीं कर सकते’) इसके बाद, उन क्षेत्रों में भी जहां भारत की क्षमता है, महत्वपूर्ण इनपुट चीन से आयात किए जाते हैं.
तीसरा, एक बिगड़ती बाहरी चालू खाता स्थिति देश को अंतरराष्ट्रीय बैंकों से ऋण लेने के लिए मजबूर करती है. ये ऋण यहां तक कि मिट्टी के काम करने के लिए भी बढ़त मांगती है, और चालू खाते को संतुलित करने के लिए विदेशी मुद्रा का उपयोग करती है.
चूंकि विश्व बैंक और एडीबी दोनों को ठेके देने के लिए वैश्विक निविदा की आवश्यकता होती है, चीनी कंपनियां भारत में सुरंग खोदने या रेलमार्ग बनाने के लिए नापाक मार्गों को अपनाती हैं.
समय के साथ, भारतीय उद्योग व्यवहारिक रूप से अनुपयुक्त हो जाते हैं. इस प्रकार भारत उत्तरोत्तर चीन को सार्थक नौकरियों का निर्यात कर रहा है, कीमती विदेशी मुद्रा की निकासी कर रहा है, और आधुनिक तकनीकों और विनिर्माण में कौशल खो रहा है. जबकि चीन के पास दुनिया के साथ व्यापार अधिशेष का निरंतर संतुलन है, भारत को लगातार घाटा होता है.
तुलनात्मक लाभ के सिद्धांत में मुख्य पहेली यह है कि यह प्रौद्योगिकी और राजनीतिक शक्ति के प्रयोग दोनों में व्यापारिक भागीदारों के बीच समानता के अनुमान पर आधारित है. यह इस पर भी आधारित है कि व्यापार करने वाले दोनों देशों में पारस्परिक कल्याण की एक साझा दृष्टि है.
हालांकि, वर्तमान अनुभव से पता चलता है कि चीनी दृष्टि कुछ और ही है; वे आर्थिक रिश्तों में आक्रामक हैं (देशों में उद्योगों को खत्म करने के लिए अवास्तविक कीमतों और दरों का इस्तेमाल करते हुए), अपनी मुद्रा दर में हेरफेर करते हैं, जेल श्रमिकों को तैनात करते हैं, कुछ ही मानकों का पालन करते हैं, आईपीआर चुराते हैं, छोटे देशों को अत्यधिक उधार देते हैं और अंततः उन्हें कर्ज के जाल में डाल देते हैं, और बार-बार सैन्य शक्ति का प्रयोग करते हैं.
वे गनबोट कूटनीति सहित किसी भी माध्यम से कंपनियों और अर्थव्यवस्थाओं के शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण का अभ्यास करते हैं – यूरोपीय उपनिवेशवादियों का एक विशिष्ट 18वीं/19वीं शताब्दी से मिलता-जुलता दृष्टिकोण. युन सन स अमेरिका में स्टिमसन सेंटर के एक प्रसिद्ध सिनोलॉजिस्ट, इस दृष्टिकोण से सहमत हैं और इसी तरह कई लेखक और भी हैं.
पिछले तीन दशकों से वॉशिंगटन सर्वसम्मति (Consensus) के भारतीय संस्करण का अनुसरण करने वाले विकास के प्रति भारत के दृष्टिकोण को बदलना होगा, यदि चीन के सामने पूर्ण समर्पण को रोकना है.
उपभोक्ताओं, व्यापारियों और घरेलू निर्माताओं के लिए 2-3 साल तक के लिए अल्पकालिक वित्तीय नुकसान होगा, जैसे कि चीन से सस्ती ऑटो- और मशीन/बिजली के पुर्जे या दवाओं के लिए सामग्री आयात करने में सक्षम नहीं होना, हालांकि यह धीरे-धीरे कम हो जाएगा.
चीन से कम आयात से व्यापार की समग्र शर्तें भी बेहतर होंगी और इसलिए रुपये के मूल्य का स्थिरीकरण होगा, जिसके परिणामस्वरूप पेट्रोलियम उत्पादों का रुपया मूल्य कम होगा. इस प्रकार, भले ही मोटर बाइक, कार या बस की कीमत बढ़ जाती है, परिवहन ईंधन की लागत गिर जाती है. इसके बाद, निम्न-अंत उत्पादों और उपभोक्ता वस्तुओं के आयात पर एक निकट प्रतिबंध अधिक रोजगार पैदा करेगा, व्यापार घाटे और रुपये को स्थिर करेगा.
वॉशिंगटन सर्वसम्मति जैसे दृष्टिकोण से दूर जाने के लिए भारत को एक मजबूत औद्योगिक नीति की आवश्यकता है. प्रस्तावित औद्योगिक नीति के कम से कम पांच घटक हैं:
- सरकार और उद्योग को बहुत बारीकी से काम करने और टैरिफ, सब्सिडी, भूमि और श्रम कानूनों, बुनियादी ढांचे, और इसी तरह के माध्यम से उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए आपसी विश्वास बनाने की जरूरत है. जापान या हाल ही में दक्षिण कोरिया में एमआईटीआई की तरह सरकार को राष्ट्रीय कंपनियों को बढ़ने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनने में मदद करनी चाहिए.
- उत्पादन पैमाने को बढ़ाने से जो आर्थिक फायदे महत्वपूर्ण हैं क्योंकि भारत में बहुत सारे छोटे और सूक्ष्म उद्यम हैं. इस संदर्भ में, ‘एक-राज्य/जिला-एक उत्पाद दृष्टिकोण’ एसएमई को एक विशाल इकाई बनाने के लिए एक साथ ला सकता है. फिर से, राज्य को पूरी तरह से योजना बनाकर ऐसी प्रक्रिया को अपनाने की जरूरत है.
- लक्षित अनुसंधान एवं विकास में भारी निवेश, निजी-सार्वजनिक भागीदारी के लिए आवश्यक है. भारत सरकार और रक्षा प्रयोगशालाओं को निजी और सार्वजनिक इकाई के अनुसंधान एवं विकास के साथ हाथ मिलाना चाहिए. संयुक्त रिसर्च एंड डेवलपमेंट व्यय सकल घरेलू उत्पाद के 0.7 प्रतिशत से कम से कम 3-4 गुना बढ़ना चाहिए. जैसा कि दुनिया के दोपहिया वाहनों के सबसे बड़े निर्माता राहुल बजाज (वैश्विक स्तर पर चीनियों को पछाड़ने के बाद) कहते हैं: ‘भारतीय व्यापारियों के पास एक दूरदर्शी दृष्टि की कमी है- वह दृष्टि अल्पकालिक और साथ ही भौगोलिक रूप से सीमित. बेशक, सरकार भी मदद नहीं करती है.’
- शिक्षा, प्रशिक्षण और मानव पूंजी निर्माण में निवेश जीडीपी के मौजूदा 3 प्रतिशत से बढ़कर 6 प्रतिशत हो जाना चाहिए, जिसमें अधिक उद्यम-आधारित प्रशिक्षण, गुणवत्ता और एसटीईएम पर केंद्रित हो.
- भारत से बाहर ब्रेन-ड्रेन (जैसे आईआईटी, शीर्ष मेडिकल कॉलेज) को विदेशों की ओर जाने से रोकना है. पश्चिम के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के साथ साझेदारी भारत में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने का एक तरीका है.
लेकिन मोदी सरकार राष्ट्रवादी होने का दावा करते हुए ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के बावजूद न तो नई शिक्षा नीति लाने में कामयाब रही और न ही छह वर्षों में कोई निर्माण रणनीति. 1991 में आर्थिक सुधारों शुरू होने के बाद से भारत में सकल घरेलू उत्पाद और रोजगार का विनिर्माण हिस्सा स्थिर हो गया है, और 2014 के बाद विनिर्माण रोजगार में गिरावट आई है जैसे कि महामारी शुरू होने से पहले ही युवा बेरोजगारी दर 18 प्रतिशत हो गई थी.
(संतोष मेहरोत्रा अर्थशास्त्री हैं, जो जेएनयू में प्रोफेसर, योजना आयोग के वरिष्ठ नीति निर्णायक और राष्ट्रीय श्रम अनुसंधान संस्थान के महानिदेशक रह चुके हैं. सारथी आचार्य मानव विकास संस्थान में प्रोफेसर हैं.)